Friday, December 25, 2009

जिंदगी का पाठ पढ़ाती हैं किताबें




अच्छी किताबों को पढऩे मात्र से ही जीवन के किसी अंधेरे में रोशनी की तरह का सहारा मिलता है। किताबों को पढऩे से ही हमें आध्यात्म व संस्कृति का भी ज्ञान मिलता है। किताबों को निरंतर पढ़ते रहने से जीवन में हमेशा नई ऊर्जा शक्ति का भी अनुभव किया जा सकता है तथा ये हमारे जीवन को शोभायमान करती हैं।

किताबें क्या कुछ बयां नहीं करती! हमारे आस-पास कई तरह की किताबें पाई जाती हैं। किताब पढऩे के कई तरह के शौकीन होते हैं। कोई समय बिताने के लिए किताब पढ़ता है, कोई मनोरंजन के लिए किताब पढ़ता है। किसी की रुचि ज्ञानवद्र्धक किताबों में होती है, तो किसी को आध्यात्मिक किताबों में और किसी को विचार प्रेरक पुस्तकें पसंद हैं। हम सबकी रुचि व पसंद के अनुरूप हर एक विषय पर हजारों किताबें उपलब्ध हैं। इन्हीं किताबों से हमें जिंदगी के सार का पता भी चलता है और दुनिया-जहान का भी। जिंदगी के हर पड़ाव में किताबें ही सच्ची संगत की साथी रहती हैं। बचपन में स्कूली कोर्स से शुरूहुआ इन किताबों का सफर हमारी पूरी जिंदगी तक अनवरत बना रहता है, बस अध्याय-दर-अध्याय बदलते चले जाते हैं। पढ़ाई-लिखाई के समय की किताबें प्रारंभिक शिक्षा व ज्ञान प्रदान करती हैं तथा किसी भी विषय को भली-भांति जानने और समझने की प्रवृत्ति को भी पैदा करती हैं, फिर एक बार उसमें रुचि पैदा हो जाने पर हमें कोई एक विषय विशेष रूप से आकर्षित करता है। जिसे बार-बार पढऩे का मन करता है और कई-कई बार पढऩे के बाद भी मन में ऊब नहीं होती है। एक व्यक्ति खाली समय मिलने पर किताबें पढ़ता है और वहीं एक व्यक्ति उसमें रुचि होने के कारण समय निकाल कर किताब पढ़ता है। किताबें हमारे जीवन को सीख देती हैं व जीने का पाठ भी पढ़ाती हैं। अच्छी किताबों को पढऩे से कोई भी अपना जीवन संवार सकता है। मुख्यत: किताबें लेखकों के अपने निजी अनुभवों पर आधारित होती हैं जो पाठकों के लिए ज्ञान बांटने का काम करती हैं। कुछ किताबें केवल मनोरंजन के लिए पढ़ी जाती हैं और कुछ से जिंदगी के रहस्य को समझा जा सकता है। कुछ किताबें सिर्फ पढऩे ंके लिए होती हैं और किन्हीं किताबों के सार को अपनी जिंदगी में भी उतारा जाता है।
पुस्तकों के प्रेमी अपनी पसंद व रुचि की किताबों को अपने घरों-अलमारी में सजाकर भी रखते हैं, जिससे उनके पुस्तक प्रेमी होने का पता भी चलता है तथा वे विभिन्न विषयों पर आधारित दुर्लभ किताबों का अध्ययन करने के साथ उनके संकलन में भी विशेष रुचि रखते हैं। घरों से लेकर पुस्तकालयों व संग्रहालयों में लगभग सभी तरह की पुस्तकों का संग्रह रहता है। लोग इन वाचनालयों में जाकर भी अपनी रुचि के अनुसार पुस्तकों को पढ़ते हैं। आजकल लाइब्रेरियों के अलावा विश्व की दुर्लभ पुस्तकें कंप्यूटर या इंटरनेट पर भी खूब पढ़ी जाती हैं। विभिन्न पुस्तकों द्वारा ज्ञान और शिक्षा बटोरने की आज आधुनिक तकनीक भी विकसित हो चुकी है जिसका ज्यादातर उपयोग करके बहुत कुछ सीखा व समझा जा सकता है। किसी लेखक के किसी बिंदु पर लिख देने से वह एक विषय बन जाता है और ज्यादा विस्तृत जानकारी के साथ वर्णन करने से उस विषय पर किताब बन जाती है। कोई किताब कई वाल्यूम्स या भागों की होती है। किसी पुस्तक के सभी भागों को पढऩे से ही उसके महत्व व सार का पता चलता है। किताबें हमारी जिंदगी का वह केंद्र बिंदु हैं जहां से हम अपनी जिंदगी की पूरी परिभाषा सीखकर उसे अपनी निजी जिंदगी में प्रायोगिक रूप से ढालने का काम करती हैं। अब यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि अपने आस-पास मौजूद किताबों से कितना लाभ उठा पाते हैं अब तक जितने भी सफलतम व्यक्ति रहे हैं अधिकतर सबने इन्हीं किताबों से ही ज्ञान बटोरा तथा अपनी जिंदगी का अनुभव हमें अपनी किताब लिख कर दे गए। आज दुनिया की कई दुर्लभ व नामी विभूतियों ने अपनी पूरी जीवनी 'आत्मकथा' किताब के रूप लिख कर दे दी, जिनको पढ़कर ही हम उनके विलक्षण जीवन के अमूल्य क्षणों को जान व समझ पाते हैं। रामायण, महाभारत, गीता, कुरान, बाइबिल और वेद पुराण ये सब भी कभी लिखे गए और आज हम सबके बीच अमूल्य किताबों या संग्रह के रूप में मौजूद हैं। इन सबके अमर लेखकों की अलौकिक रचनाओं व अमूल्य कृतियों को पढ़कर हम अपनी जिंदगी का दु:ख-दर्द कम कर सकते हैं तथा सुख सागर के समंदर में आनंद की पराकाष्ठा तक जा पहुंचते हैं। अनजानी जिंदगी के अनजाने रास्तों पर चलने में यही किताबें हमारे लिए पथ-प्रदर्शक का भी काम करती हैं तथा हमारी जिंदगी में कुछ कर गुजरने के लिए प्रेरणा स्रोत भी बन जाती है। अच्छी किताबों को नियमित रूप से पढऩे से ये हमारे नजरिए को सदैव सकारात्मक रखती हैं, जिससे हमारा मस्तिष्क व विचार सकारात्मक रूप से हमेशा क्रियाशील बने रहते हैं। अच्छी किताबों को पढऩे मात्र से ही जीवन के किसी अंधेरे में रोशनी की तरह का सहारा मिलता है। किताबों को पढऩे से ही हमें आध्यात्म व संस्कृति का भी ज्ञान मिलता है। किताबों को निरंतर पढ़ते रहने से जीवन में हमेशा नई ऊर्जा शक्ति का भी अनुभव किया जा सकता है तथा ये हमारे जीवन को शोभायमान करती हैं। अच्छी किताबें हमारे जीवन में बहुमूल्य धरोहर की तरह हैं, ऐसी किताबों को मन व क्रम से पढऩा देवी-देवताओं की सच्ची आराधना के समान होती है और मन भी उसी भांति प्रफुल्लित होता है।

Saturday, December 19, 2009

सहभागिता से होगा समाज का विकास



समाज सेवा के लिए क्षेत्रीय स्तर पर भी बहुत सी सामाजिक व बिरादरी की संस्थाओं का गठन किया जाता है। इनमें से ही कुछ सामाजिक संस्थाएं निर्धन व असहाय गरीब परिवार की कन्याओं का सामूहिक विवाह, गरीब बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, स्वास्थ्य या उनके लिए वृद्धाश्रम बनवाने तथा दुखी व जरूरतमंदों को पैसे की मदद करने जैसे सराहनीय कार्यों के सदैव तत्पर रहते हैं।

कई लोगों के आपस में मिलने या जुडऩे पर ही समाज का निर्माण होता है। देश के इस वृहद व संपूर्ण समाज में विभिन्न सम्प्रदाय व जाति-बिरादरियों का सबका अपना अलग-अलग छोटा बड़ा समाज बना हुआ है। और इस तरह से अपने देश में कई प्रकार के छोटे या बड़े समाज पाए जाते हैं। इन सभी समाज को आपस में जोड़े रखने तथा महत्वपूर्ण कार्यों व दायित्वों का निर्वहन भी समाज की इन्हीं सामाजिक व बिरादरी की निजी संस्थाएं मिलकर बखूबी निभाती हैं। लगभग हर बिरादरी की अपनी संस्था कार्य कर रही है। जो सीधे तौर पर व्यक्तिगत रूप से लोगों से जुड़ाव का कार्य करती है। देश के विकास के लिए इन्हीं बिरादरी की या सामाजिक संस्थाओं की भागीदारी व योगदान आपेक्षित होता है।
कोई भी सामाजिक या बिरादरी का संगठन लोगों के लिए कुछ हितकर उद्देश्य लेकर ही अवतरित होता है। जिसकी आधारशिला मुख्यरूप से ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपनी संस्था से जोड़े रखने में होती है, ताकि जरूरत के वक्त एक-दूसरे की हर संभव सहायता या लाभ पहुंचाया जा सके। समाज सेवा या बिरादरी के लोगों के हितार्थ काम करने के लिए क्षेत्रीय स्तर पर भी बहुत सी सामाजिक व बिरादरी की संस्थाओं का गठन किया जाता है। इनमें से ही कुछ सामाजिक संस्थाएं निर्धन व असहाय गरीब परिवार की कन्याओं का सामूहिक विवाह, गरीब बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, इनका पालन-पोषण, वृद्ध व असहाय लोगों के लिए दवा, स्वास्थ्य या उनके लिए वृद्धाश्रम बनवाने तथा दुखी व जरूरतमंद परिवारों को पैसे की मदद करने जैसे महत्वपूर्ण व सराहनीय कार्यों के सदैव तत्पर रहते हैं। अचानक किसी महामारी फैलने, अकाल या भयानक आपदा जैसी स्थितियों में सरकारी संगठनों के अलावा गैर सरकारी सामाजिक संगठन (एनजीओ) पीडि़तों की मदद के लिए क्रियाशील रहते हैं। इन सब कार्यों को संचालित करने व सबको लाभ पहुंचाने के लिए कुछ गैर सरकारी संगठनों को विदेशों से अनुदान भी मिल जाता है। वहीं पर क्षेत्रीय सामाजिक या बिरादरी की संस्थाओं को जनहितार्थ उद्देश्यों को फलीभूत करने के लिए अपने जानने वाले, व्यापारियों व उद्यमियों से मिलने वाले दान पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसी संस्थाओं को लोगों के बीच काम करने के लिए फंड इकट्ïठा करना, लाभप्रद कार्यक्रम चलाना औैर भारी भीड़ जमा करने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। फिर भी इन सबके ऊपर इन संस्थाओं के लिए काम करने वालों का उत्साह व जज्बा काबिल-ए-तारीफ होता है।
अब देखने वाली बात यह है कि अगर देश की जनसंख्या के आधार पर सामाजिक संगठन या संस्थाओं से जुड़े लोगों के आंकड़ों का प्रतिशत निकाला जाए तो यह निराशाजनक से बिल्कुल कम नहीं होगा कि अभी तक बढ़ी आबादी के लोग न तो किसी भी सामाजिक संगठन से जुड़े हैं और न ही अपनी बिरादरी की संस्था के ही सदस्य हैं। इनको अपनी या किसी अन्य सामाजिक संगठन से जुडऩा या सहभागिता करने में कोई रुचि नहीं दिखाई देती है। या फिर ऐसे लोग किसी भी संस्था से जुडऩे या उसके सदस्य बनने को कोई महत्व नहीं देते। इसका कारण यह भी हो सकता है कि आज के इतने व्यस्ततम माहौल में किसी भी व्यक्ति के पास मुश्किल से ही खाली समय मिल पाता है। किसी सामाजिक संस्था द्वारा आयोजित आपसी एकता, सामंजस्य व जनहित उद्देश्य के लिए किसी कार्यक्रम में अपनी सहभागिता हेतु समय अवश्य ही निकाला जाना चाहिए। ऐसे अवसर पर सम्मिलित होने से सबको एक सूत्र में पिरोने के साथ साथ सामाजिक एकता का संदेश भी दिया जाता है। जिसका सीधा लक्ष्य समाज के विकास के साथ देश को विकास की ओर ले जाना होता है। यह सच है कि समाज के विकास से ही देश का विकास हो सकता है। महात्मा गांधी ने भी कहा है कि किसी देश का विकास समाज के विकास पर ही निर्भर करता है। इसलिए सबसे पहले हमको अपने समाज को मजबूत करना होगा।
हमारे देश के अलग-अलग समाज छोटी-बड़ी नदियों की तरह हैं और इन समाज के जन साधारण व्यक्ति बिल्कुल किसी तालाब या पोखर की तरह होते हैं। फिर जब इन छोटे तालाबों का मिलन नदियों से होता है, और यही सब नदियां एक साथ मिलकर एक जगह समाहित होकर एक विशाल समुंदर के रूप में एक समृद्ध देश का निर्माण करती हंै। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि सभी व्यक्तियों का समाज से और समाज का देश से आवश्यक तालमेल बनाया जाए। क्योंकि एक अकेले पोखर या नदी का अस्तित्व ज्यादा दिन तक नहीं रह पाता है। एक दिन ये सभी सूख जाते हैं।
किसी भी सामाजिक संस्था का गठन कई लोगों के द्वारा व कई लोगों के लाभ के लिए ही होता है। इन जनहितार्थ कार्यक्रम व सम्मेलन में लोगों की नि:स्वार्थ सेवा भावना व सहभागिता नितांत आवश्यक होती है। ऐसे में सरकार द्वारा मिलने वाला अनुदान व अन्य सहायता भी संस्था द्वारा किए गए जनहितार्थ व जन-उपयोगी कार्यक्रम पर आधारित होती है। सरकारी विभाग द्वारा जारी किए जाने वाले अनुदान व अनुशंसा भी ओर व्यापक तरीके से की जाय ताकि ऐसी संस्थाओं को और बढ़ावा मिल सके और अधिक से अधिक लोग इनसे जुड़कर लाभान्वित हों तथा देश व समाज की समृद्धि में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सकें।

Monday, December 14, 2009

जिंदगी में जीतने की जिद जरूरी



किसी भी काम में सफलता का संकल्प ले लेना और उसको अपने मन ही मन ठान लेना कि मैं इस काम को करूंगा और करके ही रहूंगा, यही हमारा स्वभाव किसी भी काम में सफलता या जीत के प्रति हमारे जिद्दीपन को दर्शाता है और इसी के सहारे हम कहीं पर भी अपनी जीत को दर्ज करा सकते हैं।
जीत किसको पसंद नहीं? कौन जीतना नहीं चाहता? चाहे खेल का मैदान हो या जंग का या फिर हो व्यवसायिक दुनिया की जंग, प्रतियोगिता या मुकाबला हर तरफ है। जीत के प्रयास में तो सभी होते हैं। लेकिन जीत उसी की होती है जिसमें जीतने की जिद होती है। जीत हासिल करने के लिए कोई भी व्यक्ति किसी भी प्रकार की कोर-कसर नहीं छोडऩा चाहता, लेकिन अंत में जीतता वही है जो जीत की सच्ची लगन से हमेशा ओत-प्रोत रहता है। किसी भी काम में जीत का और उस व्यक्ति में जीतने की जिद का आपस में गहरा संबंध होता है।
अगर हमारे मन में जीतने की लगन केवल एक बार लग गई, तो फिर इस लगन का मन में तब तक लगे रहना जरूरी हो जाता है जब तक जीत हासिल न कर ली जाय। यानी पूरा किला फतह न कर लिया जाय। खेल में, जंग में या फिर किसी भी मुकाबले में जो कोई भी शामिल होता है, उद्देश्य सभी का होता है उसको जीत जाना। देखने वाली बात यह भी है कि सिर्फ सोचने या चाहने मात्र से ही जीत हासिल नहीं हो जाती। इसके लिए बहुत कुछ कर गुजरना पड़ता है। इसमें जीत की लगन रूपी आग हमेशा अपने अंदर लगाये रखनी पड़ती है। निगाह यह भी रखनी पड़ती है कि किसी भी तरह से जीत मिलने तक इसकी लौ धीमी न पडऩे पाये। कभी-कभी जीत या सफलता का सफर लंबा होने के कारण हमारे जोश या उत्साह में कमी आने की संभावना तो हो जाती है, परंतु आत्मविश्वास की बुलंदी व मौजूदगी के कारण यह हमारे जीत के हौसले को नुकसान नहीं पहुंचा सकती है।
जीत जाना या सफल हो जाना किसी भी काम का सुखद परिणाम होता है। लेकिन, इसके लिए सबसे पहली आवश्यक बात यह हो जाती है कि इस ओर कदम बढ़ाना। केवल एक कदम रख देने से ही किसी काम की यात्रा प्रारंभ हो जाती है, और फिर हमारा हर एक कदम हमें सफलता के नजदीक ले जाता है। जब भी कभी हम किसी काम में आगे बढ़ते हैं तो एकाएक हमारे दिमाग में आशातीत सफलता की खुशी व कभी हार का डर भी डराने लगता है। आशान्वित सफलता की खुशी तो हमारा मनोबल व उत्साह बढ़ा देती है, परंतु हार का डर हमारे मन में बैठने मात्र से पूरे मन को हताश व निराश होने का खतरा बढ़ जाता है। इस कारण हमारे बढ़ते हुए कदम पीछे होना शुरू हो सकते हैं। इसलिए हमें हमेशा इस बात से सचेत रहते हुए अपने मन को सकारात्मक व मजबूत करना है। जीत और हार किसी भी काम के दो परिणाम होते हैं। हममें से बहुत लोग किसी भी काम की शुरुआत केवल हार के डर से नहीं कर पाते हैं। उनमें हार का डर इस कदर हावी हो जाता है कि यह कोई भी काम शुरू करने नहीं देता है। देखा जाय तो अगर केवल एक बार हमारा मन जीत के प्रति आश्वस्त हो जाय और हार को अपने ख्याल से हटा दें, कुल मिलाकर हार या असफल हो जाने को अपने ध्यान में से ही निकाल दिया जाय। तो फिर निश्चित ही एक स्थिति ऐसी आ जाएगी जब हम हार के डर की इस डरावनी स्टेज को पूरी तरह से पार कर चुके होते हैं। एक बार इस स्थिति से निकल जाने के बाद फिर हमें इसका डर दोबारा नहीं सताता है। क्योंकि अब हम जीत की ओर काफी आगे बढ़ चुके होते हैं। इसी तरह आजकल एक उत्पाद के विज्ञापन की पंचलाइन भी यही कहती है कि डर के आगे जीत है।
जिस तरह से हमारे अंदर और भी कई तरह की जिद पलती हैं और हम उन्हें पूरा करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। उसी तरह अपने जेहन में जीत की जिद को भी पालना बहुत जरूरी है। देखा जाए तो जैसे कोई बच्चा किसी भी चीज या खिलौने को लेने की अचानक जिद पकड़ लेता है। उसे लेने के लिए रोता है, अपने हाथ-पैर जमीन पर पटकना शुरू कर देता है और यहां तक जमीन पर लेट जाता है। वह अपनी जिद पूरी करवाने के लिए सब कुछ करता है और अंत में उसकी जिद पूरी की भी जाती है। कहा जाता है कि यह बहुत जिद्दी है, जिसकी भी जिद कर लेता है उसको आखिर लेकर ही रहता है। फलस्वरूप बच्चों की बचपन जैसी जिद हमें अपनी जिंदगी या करियर में भी रखनी आवश्यक होती है। जीत के लिए इसी जिद को अपना स्वभाव भी बनाना होगा। यही जिद हमको हमारे जीवन के कार्यों के सफलता के लिए ऊर्जा भी देती है तथा सफलता की ललक को भी दर्शाती है। हमारी व्यक्तिगत जिंदगी से लेकर कारोबार तक हर जगह हमेशा एक प्रतियोगिता का माहौल देखा जाता है। अब केवल साधारण तरीके से सफलता के प्रति उत्साहित रहने से सफलता की प्राप्ति सुनिश्चित नहीं की जा सकती है, जब तक जीत की चाहत दीवानगी की हद तक न चली जाय। हमारी हालत पूरी दीवानों की तरह से ही हो जानी चाहिए।
किसी काम में मिली आंशिक असफलता को कभी पूरी हार की संज्ञा नहीं देनी चाहिए क्योंकि यहीं पूरी बात खत्म नहीं हो गई। बल्कि इसको अपने रास्ते का एक अनुभव मानकर आगे और ज्यादा उत्साह के साथ प्रयास किया जाय। किसी भी काम में सफलता का संकल्प ले लेना और उसको अपने मन ही मन ठान लेना कि मैं इस काम को करूंगा और करके ही रहूंगा, यही हमारा स्वभाव किसी भी काम में सफलता या जीत के प्रति हमारे जिद्दीपन को दर्शाता है और इसी के सहारे हम कहीं पर भी अपनी जीत को दर्ज करा सकते हैं।

Friday, December 4, 2009

विचार से ही बदलती है जिंदगी



सफलता के लिए ठोस कार्य योजना व पूर्व समीक्षा के साथ कड़ी मेहनत की आवश्यकता होती है। जैसे किसी बीज को पहले रोपा या बोया जाए तो बीज धीरे-धीरे जमीन के अंदर अपनी जड़ें बनाना शुरू करता है। उसी तरह मस्तिष्क में आया विचार हमारे प्रयास से अंदर ही अंदर बड़ा होता जाता है। अब वह केवल भ्रूण नहीं रह जाता है।

कौन जानता है कि किस पल आने वाला विचार हमारी जिंदगी बदल कर रख देगा! हमारे क्रियाशील मस्तिष्क में हर वक्त नए-नए विचार आते और जाते रहते हैं। इनकी गति बहुत तीव्रगामी होती है। कभी-कभी ये श्रृंखलाबद्ध होते हैं और कभी-कभी इनका आपस में कोई तालमेल ही नहीं होता है। फिर भी किसी व्यक्ति की सफलता में आने वाले इन्हीं विचारों का आधारभूत योगदान होता है। हमारी पूरी की पूरी व्यक्तिगत व व्यवसायिक जिंदगी इन्हीं विचारों पर ही आधारित होती है। किसी एक विचार पर अमल कर के ही कोई व्यक्ति सफल हो जाता है और कोई असफल।
कोई एक विचार अपनी पैदाइश के समय पर बिल्कुल एक बीज या भ्रूण की तरह ही होता है। किसी बीज और फलदार या छायादार वृक्ष के बीच की दूरी व समय ही पूरी कार्य योजना व प्रक्रिया है। यह सब तुरंत नहीं हो जाता है, बल्कि इस बीच हमें ठोस कार्य योजना व पूर्व समीक्षा के साथ कड़ी मेहनत की आवश्यकता होती है। जैसे किसी बीज को पहले रोपा या बोया जाए तो बीज धीरे-धीरे जमीन के अंदर अपनी जड़ें बनाना शुरू करता है। उसी तरह मस्तिष्क में आया विचार हमारे प्रयास से अंदर ही अंदर बड़ा होता जाता है। अब वह केवल भ्रूण नहीं रह जाता है। जिस तरह से जब कोई बीज अंकुरित होकर बढऩा प्रारंभ करता है, वैसे ही हमारे विचार से ही जुड़ी सकारात्मक और नकारात्मक बातें जन्म लेना शुरू कर देती हैं। अब यह हमारा काम होता है कि हम अपने विचार को किसी भी नकारात्मक ऊर्जा से बचा कर उसको मजबूत स्थिति में रखें। जिस तरह से हम किसी बीज से बने नवजात पौधे की पूरी देखभाल व रख-रखाव के लिए उसके चारों ओर एक सुरक्षा घेरा बना देते हैं ताकि उस पौधे को कोई भी नष्ट न कर सके। हमारा यह प्रयास होता है कि अब टास्क या लक्ष्य का रूप ले चुके विचार पर किसी भी नकारात्मक ऊर्जा का असर अथवा प्रभाव न पड़ सके। अगर हम देखें तो दोनों को हम एक सी ही परवरिश देते हैं। धीरे-धीरे दोनों का रूप हमारे सामने बड़ा होता दिखाई पड़ता है। और फिर एक दिन वही एक नन्हा सा बीज हम सब के सामने बड़ा फलदार और छायादार वृक्ष बन कर खड़ा हो जाता है। अब हमारा विचार केवल एक विचार की तरह ही नहीं बल्कि एक सफलता के रूप में परिवर्तित हो जाता है।
एक सेकेंड के अंदर आने वाला कोई विचार ही हमारी पूरी जीवनगति को बदल कर रख सकता है। बशर्ते उस पर पूरा भरोसा रखा जाए तथा उसे पूरा मौका दिया जाए। आइन्सटीन व एडिशन जैसे वैज्ञानिकों के मस्तिष्क में एकाएक जो विचार कौंधा, वह अन्य दूसरों के लिए उतना भरोसेमंद नहीं रहा होगा जितना खुद उनके लिए था। आज तक जितने भी विज्ञान के अविष्कार या चमत्कार हुए, सब किसी न किसी के दिमाग के मूल्यवान विचार की ही उपज है। अगर ये सभी लोग अपने विचार को नजरअंदाज कर देते और असंभव या बेकार जान कर इस पर विश्वास न करते तो आज हम सबको बिजली की रोशनी, मोटर गाड़ी, तीव्रगामी यात्रा, सूदूर वार्ता व चलचित्र जैसी चीजों के नाम ही नहीं मालूम पड़ पाते। इसलिए हमें अपने आते जाते विचारों में से ही अमूल्य या सफलतादायी विचार को पहचानने में तनिक भी देर नहीं करनी चाहिए और समय रहते उसे अपनी कार्य योजना में भी ढाल लेना चाहिए। वैसे भी हमें अपनी व्यक्तिगत व व्यवसायिक जिंदगी के कई ऐसे मौकों पर अपने लक्ष्य को सफल बनाने के लिए तरह-तरह की स्कीमों पर काम करना पड़ता है। हमारे दिमाग में अनेक तरह के विचार व सुझाव आते रहते हैं। जिनमें से कुछ पर हम अमल भी करते हैं और हमें सफलता भी मिलती है तथा कुछ में असफल भी हो जाते हैं। इन्हीं विचारों पर ही हमारे काम करने की प्लानिंग स्टेटजी आधारित होती है और जो हमारी कार्य पद्धति भी बन जाती है। एक विचार किसी भी कार्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इसी के अनुरूप चलने से हम सफलता के दरवाजे तक पहुंच सकते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में हमें अपने विचार को पूरा पोषण देने की भी बहुत आवश्यकता होती है ताकि वह कहीं से भी अविकसित न रह जाय और उसका पूरा का पूरा फैलाव भी हो सके। जिस तरह से हम किसी पौधे को उर्वरक देते हैं और पौधा बड़ा होकर एक पेड़ बन जाता है। उसी प्रकार अपने दिमाग में जन्मे किसी विचार को पूरी सतर्कता व सकारात्मकता के पानी से सींचकर तथा उत्साह की खाद डालकर उसको पूरा विस्तार देते हैं ताकि कहीं से भी कोई कोर-कसर न रह जाए। अन्यथा हमारी जरा सी लापरवाही से बहुत नुकसान भी उठाना पड़ सकता है तथा हमारा पूरा उद्देश्य व परिश्रम असफल हो सकता है।
एक विचार तब तक विचार ही रहता है जब तक उस पर अमल न किया जाय, अमल करने के बाद वह सिद्ध व अमूल्य बन जाता है इसलिए हमारी जिंदगी में अच्छे विचारों को सहेजना बहुत आवश्यक हो जाता है। जरूरी यह भी है कि अपने मस्तिष्क में आने वाले अनगिनत विचारों मे से ही सही विचार का चयन कर उस पर पूरा भरोसा भी बना कर रखें और उसे पूरे विकास का माहौल देकर एक ठोस कार्य योजना के तहत सफल कर देने में कोई कसर न छोड़ें।

Friday, November 27, 2009

शान-शौकत ही नहीं संस्कारों को भी दें तवज्जो



वर वधू का भविष्य किसी योग्य पुरोहित द्वारा सही उच्चारित वेद मंत्रों, शुद्ध श्लोकों व विधिवत पाठ-पूजन से शादी कराये जाने पर ही आधारित होता है। समारोह को आलीशान व बनाने के लिए लोग कोई कोर-कसर नहीं छोडऩा चाहते और इसी बात ने समाज में दिखावे की प्रतियोगिता को भी जन्म दे दिया है।

सहालगें आ चुकी हैं। आजकल शादी-ब्याह का मौसम जोरों पर चल रहा है। भरे-भरे बाजार, घरों में चलती जोर-शोर से तैयारियां, गली-सड़कों में बैण्ड-बाजे की धूम, सजी बारातें व होटल-गेस्ट हाउस में आलीशान व्यवस्था का माहौल है। कुल मिलाकर हर तरफ मौज और मस्ती का माहौल छाया हुआ है। शादी-ब्याह तो हमारे यहां की सामाजिक व्यवस्था है, जिसके अंतर्गत लड़का-लड़की को एक सूत्र में पिरोया जाता है। इस शुभ अवसर पर हम सब एक बड़ा समारोह भी आयोजित करते हैं, जो अब एक परम्परा की तरह है। जिसमें अनाप-शनाप पैसा भी खर्च किया जाता है। उद्देश्य यह होता है कि हमारे स्टेटस में किसी भी प्रकार की कमी न रह जाय। लेकिन इसके साथ देखने वाली मुख्य बात यह है कि विवाह जैसे संस्कार जिसमें दो अंजान व्यक्ति अपनी जिंदगी की बागडोर एक दूसरे को सौंपते हैं। यहां पर इस बात पर ध्यान देना ज्यादा जरूरी हो जाता है क्योंकि इन दोनों का भविष्य एवं मांगलिक वैवाहिक जीवन किसी योग्य पुरोहित द्वारा सही उच्चारित वेद मंत्रों, शुद्ध श्लोकों व विधिवत पाठ-पूजन से शादी कराये जाने पर ही आधारित होता है तथा ये दोनों अपने वैवाहिक जीवन की शुरुआत यहीं से करते हैं।
शुभ विवाह की रस्में किसी लड़का-लड़की के वैवाहिक जीवन के लिए अति महत्वपूर्ण हैं। विवाह की इस पावन घड़ी में हम पूरे आयोजन को एक भव्य रूप देना चाहते हैं। बड़े-बड़े पंडाल, महंगे-आलीशान होटल, गेस्ट हाउस में चकाचौंध रंगबिरंगी रोशनियों के बीच शादी-पार्टी का आयोजन किया जाता है। खाने-पीने के एक से एक लजीज व्यंजनों के अनेक स्टाल सजाए जाते हैं। लोगों के खाने-पीने व मौज-मस्ती का पूरा ख्याल रखा जाता है। सजे-धजे आने वाले सभी मेहमान भी खूब मौज-मस्ती करते हैं। बच्चों के साथ बड़ों के लिए भी मनोरंजन के साधन जुटाए जाते हैं। जिसमें आजकल आर्केस्टा, डांस ग्रुप व डीजे मुख्य रूप से होते हैं। पहले होता था कि जयमाल के समय घर की महिलाएं मंगलगीत गाया करती थीं, अब प्राय: देखा यह जाता है कि इस समय दोनों पक्षों द्वारा जयमाल स्टेज पर ऊल-जलूल हरकतें, अशोभनीय कृत्य या वार्तालाप पूरे गरिमामयी माहौल को बिगाड़ देते हैं। आज की मॉर्डन शादियों में अब मधुर गीतों की जगह शोर-शराबे वाले डीजे के हुड़दंग ने ले ली है। आधुनिकता के इस दौर में शादी ब्याह के दौरान पुराने रीति-रिवाज अब बहुत ही कम दिखाई पड़ते हैं। इनकी जगह बहुत कुछ बदलाव देखा जाता है। इस नई सदी में विवाह के समय पर आध्यात्मिक माहौल की जगह ज्यादातर आधुनिकता का ग्लैमर ही पसंद किया जाता है। पाणिग्रहण संस्कार एवं फेरों के समय का माहौल पूरी तरह से आध्यात्मिक व आत्मीय बेला होती है। जिसमें वर व वधू दोनों पक्षों की ओर से इस विवाह को मांगलिक रूप देने के लिए शुभ गीतों व भजनों आदि के गाने की रस्म हुआ करती थी, परंतु इस दौर के लोगों में इस बात की दिलचस्पी खत्म मालूम पड़ती है। यहां तक पंडित- पुरोहित के मंत्रों, श्लोकों व विवाह के नियम कानून की जरूरी शिक्षा को एक उबाऊ कार्यक्रम की तरह देखा जाता है, तथा यह महत्वपूर्ण समय बेकार व निरर्थक हंसी ठिठोली में निकाल दिया जाता है। इस कार्यक्रम की महत्ता को अच्छी तरह न समझने और लोगों की ज्यादा रुचि न होने के कारण ही कभी-कभी पंडित-पुरोहित पर इस कार्यक्रम को जल्दी निपटाने के लिए भी दबाव बनाया जाता है।
हिंदू संस्कृति व रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह दो व्यक्तियों का मिलन होता है। जिसको हम वैवाहिक गठबंधन भी कहते हैं। इस गठबंधन में लड़का-लड़की को वेद मंत्रों व श्लोकों के माध्यम से वैवाहिक जीवन के नियम कानून बताए और सिखाए जाते हैं। इस संस्कार में योग्य पुरोहित द्वारा वर एवं वधू को परस्पर हर स्थिति में साथ निभाने व सुख-दुख के साथी जैसे सात वचन एक दूसरे को दिलाते हैं। अपनी जीवन की नई यात्रा का शुुभारंभ करने वाले नए युगल को विवाह की मर्यादा भली-भांति समझाई जाती हैं। जिस तरह हम अपने घर-व्यापार के लिए अन्य पूजन-पाठ या जाप किसी योग्य व प्रशिक्षित पुरोहित द्वारा ही कराते हैं ताकि हमारा अनुष्ठान सफल व सार्थक हो सके। उसी प्रकार इस विवाह की मांगलिक बेला पर भी पूरे विधि-विधान के साथ किसी शुभ मुहूर्त में वैवाहिक संस्कार का क्रियान्वयन ही नव दंपत्ति के जीवन को हर तरीके से सुखमय, सफल व सार्थक कर देता है। आज समाज में विवाह के अवसर पर आयोजित समारोह को आलीशान व यादगार बनाने के लिए लोग कोई कोर-कसर नहीं छोडऩा चाहते और इसी बात ने समाज में दिखावे की प्रतियोगिता को भी जन्म दे दिया है। शादी के इंतजाम में लाखों रुपया खर्च कर दिया जाता है ताकि आने वाले किसी भी मेहमान की किसी भी तरह का कष्टï न हो बल्कि सभी पूरी तरह से एन्ज्वाय कर सकें। आज शादी समारोह लोगों की सामाजिक प्रतिष्ठा और शान-शौकत का भी प्र्रतीक बन गए हैं। ऐसे में वैवाहिक संस्कारों, रस्मों व रीति- रिवाज की उपेक्षा व नजरंदाजी क्या नव युगल के वैवाहिक जीवन के लिए मंगलकारी व हितकारी होगी ? आज यह हम सबके लिए चिंतन का विषय है कि शादी के अवसर पर वैवाहिक संस्कार व रीति-रिवाज मात्र रस्म अदायगी या औपचारिकता बन कर न रह जाएं।

Wednesday, November 25, 2009

मन पसंद हो ध्यान का साधन



ध्यान की अवस्था को पाने के लिए हम तरह-तरह की वीधियों में से ही कोई एक विधि चुन लेते हैं। कोई मौन होकर ध्यान को पाता है, तो कोई भक्ति रस में डूबकर, गीत गा कर, संगीत या अन्य किसी भी विधि से वह अपनी अन्तरात्मा को जागृत करने की विधि आजमाता है।

अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए हम अपनी पसंद का साधन व मार्ग ही चुनते हैं, जिससे रास्ता किसी भी तरह कष्टïदायी न हो बल्कि, आराम व आनंद से मंजिल तक पहुंचा जा सके और पूरे रास्ते यात्रा का भरपूर लुत्फ उठाया जाए। ध्यान को उपलब्ध होने के लिए भी अपने मन को अच्छा लगने वाले विषय को ही मुख्य माध्यम बनाया जाय। जिससे ध्यान के निर्मित होने में किसी प्रकार की रुकावट न हो, बल्कि इसमें एक अलग तरह का निमंत्रण व आकर्षण हो जिसे करने के लिए हमारा मन हमेशा लालायित हो और इस तरह से पूरी क्रिया आनंद से सराबोर हो जाए। हमारी उस काम में दिलचस्पी ज्यादा होती है जो हमें अधिक आनंददायक व रुचिकर लगता है। यह बात ध्यान को साधने में भी बहुत मायने रखती है। ध्यान की अवस्था को पाने के लिए हम तरह-तरह की विधियों में से ही कोई एक विधि चुन लेते हैं। कोई मौन होकर ध्यान को पाता है, तो कोई भक्ति रस में डूबकर, गीत गा कर, संगीत या अन्य किसी भी विधि से वह अपनी अन्तरात्मा को जागृत करने की विधि आजमाता है।
यहां पर मुख्य बात हमारी रुचि की है। वस्तुत: हम उस चीज को ज्यादा पसंद करते हैं। पहले से ही हमें जिस काम को करने में ज्यादा आनंद मिलता है और हमें जो हमेशा आकर्षित करता है। नि:संदेह हमें उसे अपनाने में ज्यादा समस्या नहीं होगी। पतंजलि कहते हैं कि जो तुम्हें ज्यादा आकर्षित करता हो उसे ध्यान का विषय बनाओ। सही भी है क्योंकि उस मार्ग से ध्यान को पाने की संभावना जल्दी बन जाती है। उदाहरण के तौर पर किसी बच्चे का भविष्य संवारने के लिए भी उसे उसकी पसंद का विषय पढऩे पर ही ज्यादा जोर दिया जाता है और इस तरह से उसके सफल होने की संभावना ज्यादा प्रबल हो जाती है। मन को जबरदस्ती किसी एक विषय पर टिकाया नहीं जा सकता है। मन को एकाग्रचित्त किया जा सकता है। ध्यान अपने आप अकस्मात ही अवघटित हो जाता है। एकाग्रचित्त व ध्यान की अवस्था को उपलब्ध होने के लिए किसी भी तरह का संघर्ष या विरोध नहीं किया जा सकता। मन की एक स्वाभाविक दौड़ है। वह एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक बिना सेकेंड गंवाए जाता है। मन को अपने प्रयत्न से रोक कर नहीं रखा जा सकता है। परंतु अपने पसंदीदा मार्ग पर उसके साथ चलते हुए, सब कुछ ध्यान उन्मुक्त होते हुए अनुभव किया जा सकता है और सब कुछ बदल जाता है। सब दौड़ खत्म हो जाती है। हमारा प्रवेश एक नई दिशा में होने लगता है। यह बिल्कुल वैसे ही होगा जैसे कोई व्यक्ति लेटे हुए सोने की कोशिश में लगा हुआ हो और अपनी ओर से सोने की पूरी कोशिश कर रहा है। उसका हर प्रयास बेकार हो जाएगा, क्योंकि वह जितनी कोशिश करेगा, नींद उससे उतनी ही दूर होती जाएगी। वह अपनी आंख जोर से बंद करेगा, नींद लाने का हर प्रयास करेगा, फिर भी सफल नहीं हो सकेगा। यह तभी हो सकता है जब हम अपने आप बिना किसी प्रयास के केवल लेट जाते हैं, फिर जो भी विचार आते-जाते हैं वह सब नींद लाने की ही प्रक्रिया है। एक समय सब सोचना बंद हो जाएगा और अकस्मात ही हम नींद में चले जाते हंै। वह भी बिना किसी प्रयत्न के।
इसी तरह हमारे कुछ करने से भी ध्यान उत्पन्न नहीं होगा। ध्यान के समय हमें किसी भी तरह के द्वंद्व या झंझट में भी नहीं पडऩा है, बल्कि इन सबसे पार होकर निकल जाना है। ध्यान करते समय विचारों की एक बड़ी भीड़ दिखाई देती है। इन पर जबरदस्ती दबाव बनाने का प्रयत्न भी नहीं करना चाहिए। ध्यान में विचार तो पानी की लहरों के तेज झोंके की तरह आते हैं। इस समय अपने किसी भी प्रयास से विचारों के प्रवाह या लहरों से संघर्ष और प्रतिरोध ठीक नहीं होगा। बल्कि अपने मन को बिना किसी दबाव के इस बहाव में बह जाने दें। इन सबसे सीख व अनुभव लेते चलें। एक समय पर हमारे सब विचार बिना किसी प्रयत्न के आने बंद हो जाएंगे। मन शांत होता चला जाता है और धीरे-धीरे ध्यान की गति बढ़ती चली जाती है। हालांकि ऐसी स्थिति में कभी-कभी किसी बाहरी गतिविधि के कारण हमारे ध्यान की बढ़ती हुई दिशा में कोई अवरोध या रुकावट भी आ सकती है, जिससे हमारे मन में अमुक माध्यम से ध्यान टूटने का अंदेशा भी हो जाता है। मान लिया जाय कि हम ध्यान में हैं, बाहर कोई आपस में तेज बातें कर रहा है, कहीं पर गाना बज रहा है, लाउड स्पीकर की आवाज सुनाई पड़ रही है या किसी के फोन अथवा मोबाइल पर बात करने की अचानक आवाज आने लगती है। ऐसे में हम किसी की आवाज को नहीं बंद कर सकते हैं और इन्हें हम अपने ध्यान में अवरोध मान लेते हैं। इस समय एक काम किया जाय फिर हमारे ध्यान में इससे कोई समस्या न होगी । अगर हम अपना ध्यान बिंदु ही तुरंत उसी आवाज पर कर दें। जैसे ही हम उन पर ध्यान देना शुरू करेंगे वैसे ही धीरे-धीरे हम उन आवाजों से दूर होते जाएंगे। फिर हमें कोई आवाज परेशान नहीं करेगी और हम इन आवाजों को चीरते हुए ध्यान की ओर प्रशस्त होते जाएंगे। ध्यान करने का माध्यम कुछ भी हो सकता है। जिस तरह से मंजिल मिल जाने के बाद रास्ते का कोई मतलब नहीं रह जाता है, उसी तरह ध्यान का विषय भी है। आकर्षण और विरोध सबकुछ ध्यान की उपलब्धि होने पर अंत में अपने आप छूट जाता है और मिलता है- स्व अनुभव व अनंत आनंद की रसबेला।

Sunday, November 15, 2009

व्यवहारिक भाषा से ही है आपकी पहचान


किसी भी भाषा को बोलने या लिखने में हम जानकार हो सकते हैं, उसमें सिद्धहस्त भी हो सकते हैं। हम किसी भी भाषा में अपनी बात को समझा सकते हैं व समझ भी सकते हैं। परंतु जो हमारे आचरण की भाषा है, हम जिस तरह से अपना व्यवहार करते हैं वही हमारी मूल भाषा होती है। सामान्य तौर पर क्रोध या उत्तेेजना के समय पर भाषा में बड़ा अंतर देखा जाता है।

एक बार अकबर के दरबार में कई भाषाओं में पारंगत एक व्यक्ति आया और चुनौती दी कि कोई भी उसकी असली व मूल भाषा नहीं बता सकता है। उसका दावा था, क्योंकि, उसकी हर एक भाषा में इतनी तेज पकड़ थी कि उसके द्वारा बोले जाने वाली हर भाषा उसकी मूल भाषा लगती थी।
यूं तो अकबर के दरबार में विद्वानों की कोई कमी नहीं थी, फिर भी यह चुनौती आसान नहीं थी। क्योंकि उस व्यक्ति में एक अलग तरह की योग्यता व विश्वास साफ दिखाई दे रहा था। लेकिन, फिर भी दरबार की गरिमा के लिए महाराज अकबर ने उसकी चुनौती स्वीकार कर ली। उस व्यक्ति के साथ दरबार के अनगिनत भाषाओं के जानकार व दक्ष विद्वानों ने अलग-अलग भाषाओं में खूब वार्तालाप व साक्षात्कार किया। परंतुु, सभी असफल हुए। उनमें से कोई भी उसकी मूल भाषा को नहीं पकड़ सका। अंत में अकबर ने बीरबल को बुलाकर पूरी बात बताई। बीरबल ने कहा-समस्या तो मुश्किल है लेकिन इसका हल बहुत आसान है। यह कहते हुए बीरबल ने उस व्यक्ति को पीछे से जोर का धक्का दिया। फलस्वरूप वह गिरकर सीढिय़ों से नीचे लुढ़कने लगा। वह व्यक्ति बीरबल को क्रोध में आकर तेज-तेज गालियां देने लगा। बीरबल ने अकबर से कहा- महाराज यही है इसकी असली भाषा। बीरबल ने उस व्यक्ति से क्षमा मांगते हुए कहा कि- श्री मान्! आपकी मूल भाषा का पता लगाने के लिए इसके अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं था। इस तरह से उसकी मूल भाषा पकड़ी गई।
किसी भी भाषा को बोलने या लिखने में हम जानकार हो सकते हैं, उसमें सिद्धहस्त भी हो सकते हैं। हम किसी भी भाषा में अपनी बात को समझा सकते हैं व समझ भी सकते हैं। परंतु जो हमारे आचरण की भाषा है, हम जिस तरह से अपना व्यवहार करते हैं वही हमारी मूल भाषा होती है। सामान्य तौर पर क्रोध या उत्तेेजना के समय पर भाषा में बड़ा अंतर देखा जाता है।
जब दरबार में उस व्यक्ति ने खुली चुनौती दी तो वह पूरी तरह निश्चिंत था, क्योंकि उसे लगभग सभी भाषाओं में महारत हासिल थी। उसे किसी भी भाषा में कोई व्यक्ति पराजित नहीं कर सकता था। यह सब देखकर ही बुद्धिमान बीरबल नें ऐसा तरीका ढूंढ़ा जिससे उसकी सच्ची भाषा का पता चल सके। वस्तुत: यह सच है कि क्रोध में प्रयुक्त भाषा ही मूल भाषा होती है। क्रोध के समय किया गया आचरण व व्यवहार ही वास्तविक एवं सच्चा होता है। लोक व्यवहार के तौर-तरीकों के अनुसार हम कई तरह से अपने आपको प्रदर्शित करते हैं। हम खासकर हमेशा अपना अच्छा व सर्वश्रेष्ठ आचरण ही दूसरों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। हमारा यह प्रयास रहता है कि हम अपनी भाषा व व्यवहार कुशलता से दूसरों का मन मोह लें तथा सभी के आर्कषण का केंद्र बनें। साथ ही साथ हमें इस ओर भी ध्यान देना चाहिए कि हमारी वास्तविक भाषा, आचरण एवं लोक व्यवहार में कोई अंतर न दिखाई पड़े।
अक्सर हम देखते हैं कि जीवन की कुछ असामान्य स्थिति में अचानक ही हमारे आचरण व व्यवहारिकता में परिवर्तन दिखाई देन लगता है। एकाएक हमारी भाषा हमारे काबू में नहीं रह पाती है। अगर ऐसी स्थिति में हम गौर करें तो हम पाएंगे कि इस दौरान हमें किसी और चीज का ख्याल नहीं रहता है। क्योंकि सामान्य स्थिति में हम अपना सर्वश्रेष्ठï व्यवहार ही प्रदर्शित करना चाहते हैं।
इस समय हम केवल अपने अंदर की अच्छी बातें ही बताना व दिखाना चाहते हैं। परंतु क्रोध या तनाव की स्थिति में हम सब कुछ भूल जाते हैं। ऐसे में मुंह से जो शब्द निकलते हैं वही हमारी असली व वास्तविक भाषाका परिचायक होती है। मीठी बोली हमारे व्यक्तित्व व लोक व्यवहार में बहुत मायने रखती है। यह हमारी व्यवहार कुशलता का भी मुख्य पैमाना होती है। हमारे बोल-चाल की भाषा में मीठी बोली को मिश्री जैसे बोल की भी संज्ञा दी जाती है। हर एक व्यक्ति दूसरों से सदैव अच्छे व्यवहार की ही अपेक्षा रखता है। समझने वाली बात यह है कि हम अपनी मूल भाषा और आचरण को व्यवहारिक दृष्टि से इतना स्वीकार्य बनाएं कि हमारी वास्तविक व मेलजोल की भाषा में किसी भी प्रकार का विरोधाभास न दिखाई दे। किसी असामान्य स्थिति या उत्तेजना आदि की दशा में हम सदैव अपनी भाषाशैली व व्यवहार के तरीके पर अपना संयम बना कर रखें।
आज के इस कॉपोरेट युग में जहां हर चीज की मार्केटिंग हो रही है, वहीं अपनी अच्छी बोली व भाषाशैैली से हम किसी को भी प्रसन्न कर सकते हैं। किसी को भी हम अपनी वाक्ïपटुता व भाषा की पकड़ के रुआब में ले सकते हैं। ऐसे में इस बात का ध्यान में रखना बहुत आवश्यक हो जाता है कि जीवन की किंहीं दो परिस्थितियों में हम हमेशा एक सा ही आचरण अपनाने का प्रयास करें तथा हमारे व्यवहार में किसी प्रकार का दिखावा भी न पाया जा सके। फिर हमारी व्यवहारिक भाषा मूल भाषाकी तरह पहचानी जाए। जिनमें कोई भी किसी भी तरह का अंतर न ढूंढ़ सके।

Friday, November 6, 2009

तोल-मोल फिर बोल, यही है वाणी का उचित रोल


हमारे कुछ भी बोलने से पहले उससे पडऩे वाले प्रभाव व परिणाम का पूर्व आकलन करना बेहद आवश्यक हो जाता है क्योंकि हमारे कुछ भी कह देने से सब कुछ वैसा ही नहीं रहता बल्कि लोगों के हावभाव व व्यवहार हर एक में तुरंत से ही अचानक परिवर्तन देखा जाने लगता है। बोलने के बाद सोचने से हम कुछ नहीं संभाल सकते हैं, तब तक बहुत कुछ बिगड़ चुका होता है। इसलिए किसी भी निष्कर्ष तक पहुंचने से पहले थोड़ा समय अपने आप में लें।


तोलना मतलब किसी भी चीज का वजन देखना, मोल का अर्थ उसकी कीमत। इसके बाद बोल का तात्पर्य ही है कि किसी भी चीज के बारे में हर तरीके से सूक्ष्म विश्लेषण करने के बाद ही अपनी कोई टिप्पणी या राय देना। क्योंकि हमारी किसी बात का वजन होने से ही उसके ग्राही को उस बात की अच्छी कीमत या वैल्यू दी जाती है, अन्यथा हमारी बात कमजोर व तत्वहीन होने से उसका असर बेकार तथा निरर्थक भी हो सकता है। हमारी कोई भी सलाह इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि इसके आने वाले परिणाम भी हमारी बात पर ही निर्भर करते हैं। कई जगह इस तरह का एक गेम शो भी देखा जाता है जो तोल-मोल के बोल पर ही आधारित होता है। इस शो में हिस्सा लेने वाले प्रतिभागियों को पैक किए हुए कई तरह के उत्पाद दिखाए जाते हैं, और लोगों से इन पैक्ड डिब्बों में बंद चीजों की सही कीमत लगाने को बोला जाता है। जिस भी प्रतिभागी की सबसे नजदीकी कीमत उस वस्तु की कीमत से मेल खा जाती है, वह व्यक्ति उस वस्तु का इनाम हो जाती है। यहां पर भी हमारा आइडिया ही काम करता है। परिणाम सामने आने पर ही हमें अपनी लगाई हुई कीमत व वस्तु के असली दाम में अंतर समझ में आता है। इसी तरह से जब हम अपनी रुटीन लाइफ मे किसी वस्तु के बारे में, किसी व्यक्ति के विषय में या किसी भी स्थिति के संदर्भ में अपना वक्तव्य रखते हैं तो वह हमारे पूरे विश्लेषण और आकलन का परिणाम होता है। यहां पर ध्यान देने वाली बात यह भी होनी चाहिए कि जब कभी भी हम अपना मत या राय किसी के लिए भी रखें तो हमारा पूरा मन किसी व्यक्तिविशेष के प्रति पूर्वाग्रहित भी नहीं होना चाहिए। हर एक बात का निरीक्षण व त्वरित समीक्षा पूर्व के आधार पर नहीं बल्कि नये बिंदू से ही शुरू करनी चाहिए, तब ही हमारी बात निष्पक्ष और निर्विवाद होगी। थिंक बिफोर स्पीक, हमारे किसी भी संवाद में बहुत महत्वपूर्ण है। हमारे कुछ भी बोलने से पहले उससे पडऩे वाले प्रभाव व परिणाम का पूर्व आकलन करना बेहद आवश्यक हो जाता है क्योंकि हमारे कुछ भी कह देने से सब कुछ वैसा ही नहीं रहता बल्कि लोगों के हावभाव व व्यवहार हर एक में तुरंत से ही अचानक परिवर्तन देखा जाने लगता है। बोलने के बाद में सोचने से हम कुछ नहीं संभाल सकते हैं, तब तक बहुत कुछ बिगड़ चुका होता है। इसलिए जरूरी यह है कि हम किसी भी निष्कर्ष तक पहुंचने से पहले थोड़ा समय अपने आप में लें। साथ ही हमारी कही जाने वाली बात का असर व बाद में हाने वाली स्थिति को पहले ही अच्छी तरह से भांप कर किसी के बारे में अपना स्पष्टïीकरण देना उचित है। इस तरह से करने पर हमारा विचार व बात सार्थक हो पाएगी और इसका किसी के अपने जीवन में अमल करने पर लाभकारी हो सकता है। अक्सर हमारे जीवन में यह भी होता है कि अंतर्मन में किसी की एक इमेज कैद होकर रह जाती है, इस तरह से भविष्य के सारे निर्णय हम उसी के आधार पर किया करते हैं, जो कि न्याय संगत व उचित नहीं होता है। हम उसे हमेशा एक ही नजर से देखा करते हैं और उसके बारे में एक राय पहले से ही बना लेते हैं। हमें एक व्यक्ति को हर एक बार पूरी तरह से जज करना पड़ेगा, प्री-जज से काम नहीं चलेगा। यह एक तरह से बायस्ड फीलिंग की तरह से हो जाएगा। हमें इसे पूरी समझदारी से अच्छी तरह समझ कर किसी भी प्रकार की जल्दबाजी से बचते हुए न्यायपूर्ण तरीके से अपना पक्ष रखना है ताकि किसी के भी साथ न तो पक्षपात हो और न ही कोई हताहत ही हो। जीवन में कभी ऐसी भी स्थिति आती है कि हमको बोलने से पहले सोचने का तनिक भी समय नहीं मिल पाता है, परंतु हमारे बोलने के अनुकूल या प्रतिकूल परिणाम तुरंत देखे जाते है। जिस तरह से किसी परीक्षार्थी का किसी साक्षात्कार के दौरान पूछे गये प्रश्नों के उत्तर का एक-एक शब्द बहुत अर्थ व महत्व रखता है और उसका चयन भी उसके उत्तरों में ही होता है। जल्दबाजी या बिना सोचे समझे बोले गए उत्तरों का जवाब उसको उसी समय साक्षात्कार से बाहर भी कर सकता है। किसी के साथ वार्तालाप में भी अक्सर हम देखते हैं कि हम जो कुछ भी बोलते हैं, बोलने के बाद हम यह महसूस करते हैं कि अपनी वाकशैली को कैसे और प्रभावशाली बनाया जा सके। कभी-कभी हम जीवन की ऐसी उलझन में फंस जाते हैं कि हम अपने इष्टï मित्रों या सगे संबंधियों से राय-मशविरे की आवश्यकता आ पड़ती है या फिर कभी हमें दूसरों के लिए भी यही काम करना पड़ता है। दोनों ही स्थितियों में हर चीज का पूर्वानुमान लगाना व भली-भांति सोचना बहुत आवश्यक हो जाता है। बोलने के बाद की समस्या का समाधान है बोलने के पहले सोचा जाए। शुरुआत में तो कुछ अतिरिक्त समय अवश्य लगेगा, परंतु जैसे-जैसे इस पूरी प्रक्रिया में हमारा मस्तिष्क अभ्यस्त होता जाता है, फिर क्षण भर में ही हमारा दिमाग तेज और सही निष्कर्ष पर भी पहुंच जाता है। इससे हमारे बोलने से न ही किसी को ऐतराज ही होगा और न ही कोई प्रतिकूल असर पड़ेगा। इसलिए जरूरी यह है कि आवश्यक जांच-पड़ताल या बात की माप-तौल पहले ही कर ली जाये।

Friday, October 30, 2009

अपने अंदर ही है ध्यान प्रशिक्षण केंद्र

जिस प्रकार हम अपने दैनिक जीवन के काम-काज निपटाने के लिए समय निकाल लेते हैं उसी प्रकार लगातार इसको करते रहने से हमारे अंदर इसकी प्रवृति भी बन जायेगी। अच्छी शिक्षा किसी भी व्यक्ति को आभूषण से कहीं अधिक सुशोभित करती है। वहीं ध्यान की शिक्षा को पाकर कोई व्यक्ति अद्वितीय व्यक्तित्व का स्वामी व प्रेरणादायक स्रोत का भी जनक हो जाता है।

अच्छी शिक्षा का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। इसी से जीवन सुधरता है। शिक्षा से जहां हमारा मस्तिष्क तेज होता है वहीं अच्छे और बुरे का पाठ भी पढऩे को मिलता है। पढ़-लिख कर हम बड़े भी हो जाते हैं और अपने-अपने काम-धंधे व नौकरी-रोजगार में लग जाते हैं। लेकिन हमने एक बात का ध्यान बिल्कुल नहीं दिया कि दिमाग के साथ अंतरआत्मा की शिक्षा पाना भी बहुत आवश्यक है, इसके लिए किसी स्कूल, कॉलेज या विश्व विद्यालय में दाखिला लेने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अपने ही अंदर छिपा है पूरा ध्यान प्रशिक्षण केंद्र। अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाने का मतलब ही यही होता है कि बच्चा पढ़-लिखकर एक अच्छा इंसान बन सके और जिसके अंदर अच्छे और बुरे की समझ भी पैदा हो सके। अच्छी शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य ही यही है। यही सब हमारे साथ हुआ और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हम अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई अच्छे स्कूलों में कराते हैं। जैसा हमारे साथ हुआ, वैसे ही हमारे बच्चों के साथ भी हो रहा है। बस अंतर जरा आधुनिकता का हो गया। आज शिक्षा कंप्यूटरीकृत हो गई। स्कूल, कॉलेज सब हाईटेक हो गए। बच्चे पढऩा-लिखना अच्छी तरह से सीख कर प्रोफेशनल बन गये। देखने वाली बात है कि दिमाग से तो सभी शार्प माइंड हैं, परंतु आभास यह होता है कि मन और अंतरआत्मा के प्रति भावशून्य हैं। इसकी निश्चित ही यह वजह हो सकती है कि इस विषय की अब तक इनको जानकारी ही नहीं हो पाई है। इसको जानने का उनके पास कोई विषय ही नहीं रहा। इसकी किसी ने पढ़ाई ही नहीं की और न ही हमने इनको सिखाया ही। सबसे बड़ी बात यह भी है कि ध्यान हमारा भी कभी विषय नहीं रहा और न ही हमने कभी इसे अलग से पढऩे व सीखने की कोशिश की। जबकि स्वयं को जानने व अपनी अंतरआत्मा को पहचानने का ही विषय है ध्यान। अभी भी ज्यादा देर नहीं हुई है। जब जागो, तब सबेरा। आज हमारे जीवन की सबसे बड़ी प्राथमिकता यही होनी चाहिए कि सबसे पहले हम इस ध्यान के विषय को अपने जीवन में एक बार आजमाने के लिए ही अपनाना शुरू करें। इसके लिए हमें कहीं और जाने की कोई जरूरत नहीं, और न ही किसी स्कूल, कॉलेज में अलग से कोई कोर्स करने की आवश्यकता है। जरूरत है केवल इसे नियमित रूप से अपने जीवन में उतारने व ढालने की। सर्वप्रथम हम यह प्रयास करें। फिर धीरे-धीरे हम अपने बच्चों को भी ध्यान की ओर बढ़ाने व इसे पढ़ाने की दिशा दें। जिस तरह से मां-बाप ही अपने बच्चों को अच्छे संस्कार व सद्गुण सिखाने का काम करते हैं, उसी तरह ध्यान का नियमित अध्ययन व इसे सीखने का संस्कार भी शुरुआत से ही उनमे डालना प्रारंभ कर दें। ध्यान का नियमित पाठ पढऩे व सीखने से धीरे-धीरे पूरे मन में तथा अन्त:स्थल में एक प्रशिक्षण केन्द्र बनना आरंभ हो जाता है। इस समय हमारी आत्मा एक ध्यानस्थली की तरह बन जाती है, जिससे हर क्षण सुंदर व अच्छे विचार जन्म लेना शुरू कर देत हैं। आत्मीय शांति के साथ ही असीमित ऊर्जा और क्षमता का स्रोत भी यहीं से फूटता है जो हमें पूरे दिन स्फूर्तिवान बनाये रखने में सहायक होता है। इस समय हमारा पूरा शरीर साक्षी मात्र होकर सब कुछ महसूस करता रहता है। जिस प्रकार किसी कॉलेज के एक कमरे में क्लास चलती है और पूरी बिल्डिंग में स्कूली माहौल नजर आता है, उसी तरह हमारा पूरा शरीर ऊर्जावान होकर तरोताजा हो जाता है। ध्यान के नियमित अभ्यास से हमारे ारीर की सभी नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता रहता है और ध्यान से ही यही ऊर्जा बदल कर सकारात्मक में रूपांतरित हो जाती है। जीवन की नई से नई चुनौतियों का भी तुरंत हल ध्यान से ही मिलता है। कठिन से कठिन परिस्थितियों व नये लक्ष्यों को हासिल करने तथा इनमे सफलता प्राप्त करने का अदम्य साहस भी ध्यान के स्वयं के प्रशिक्षण केंद्र से ही प्राप्त होता है। आज जीवन की आपाधापी में जूझते फिरते किसी के पास ज्यादा अतिरिक्त समय नहीं रहा। फिर भी ध्यान को अपने जीवन में शामिल करने तरीका हमें किसी भी समय निकालना होगा और इसी नियमित अभ्यास की आदत हमें अपने बच्चों में अभी से डालनी होगी, जिससे हमारे अंदर ध्यान को सीखने की नींव जल्द से जन्द पड़ सके। जिस प्रकार हम अपने दैनिक जीवन के काम-काज निपटाने के लिए समय निकाल लेते हैं उसी प्रकार लगातार इसको करते रहने से हमारे अंदर इसकी प्रवृति भी बन जायेगी। अच्छी शिक्षा किसी भी व्यक्ति को आभूषण से कहीं अधिक सुशोभित करती है। वहीं ध्यान की शिक्षा को पाकर कोई व्यक्ति अद्वितीय व्यक्तित्व का स्वामी व प्रेरणादायक स्रोत का भी जनक हो जाता है। इसलिए आज समय की यही आवश्कता है कि हम अपने साथ बढ़ते हुए किशोर वर्ग व युवा पीढ़ी को भी ध्यान की धरोहर का स्वामी बना दें ताकि देश के बढऩे वाले हर एक बच्चे की हर मायनों में शिक्षा पूरी हो सके। इस प्रकार हर कोई बच्चा सुसंस्कारवान, सुशिक्षित व सच्चे अर्थों में सम्माननीय हो सकेगा।

Thursday, October 22, 2009

हीन भावना न रखें,तभी बदलेगी जिंदगी



हमारा पूरा व्यक्तित्व हमारी सोच से दिखाई पड़ता है। सोच और भावना में ज्यादा अंतर नहीं है क्योंकि किसी भी तरह की भावना का आधार हमारी सोच ही है। यहां जरूरी यह है कि हम अपने ऊपर कितना विश्वास रखते हैं अगर हमारे मन में विश्वास है और खुद पर पूरा भरोसा भी है तो निश्चित ही हमें किसी से भी डर नहीं लगेगा और विषम स्थिति का डट कर मुकाबला करेंगे।

जैसी सोच होगी, वैसी ही हमारी भावना भी होगी। हम जिस तरह से सोचते जाते हैं ठीक उसी तरह से हमारी भावना भी होती जाती है। अक्सर हम दूसरों के बारे में अपने ख्याल रखते हैं, उनका अनुमान लगाते हैं। ऐसे ही अपने बारे में भी sochatee हैं और इसी तरह अपने लिए भी एक भावना का निर्माण करते जाते हैं। इनमें से ही एक है- उच्च भावना तथा दूसरी हो जाती है- हीन भावना। इसी जगह अगर हम स्वयं में विश्वास भी जागृत करने में सफल हुए तो निश्चित ही अच्छी भावना के साथ आत्म विश्वास का भी विकास शुरू हो जाता है। हमारी सोच के ही दो पहलू हैं- उच्च व हीन भावना। अगर हम अपने जीवन में सकारात्मक हैं तथा आत्मविश्वास से भरे हुए हैं तो निश्चित ही हमारी भावना भी अपने बारे में उच्च की ही होगी। यदि हमारी सोच या भावना कमजोर हुई या फिर आत्मविश्वास की कमी हो,तो हम हीन भावना शिकार हो जाते हैं। आज जीवन के हर क्षेत्र में प्रतियोगिता चलती है और सभी प्रतिभागियों को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना होता है। ऐसे में एक दूसरे की तुलना लाजिमी हो जाती है। मुकाबला तब और गंभीर हो जाता है जब एक व्यक्ति खुद अपनी बराबरी सामने वाले से करने लगता है। उदाहरण के तौर पर एक जगह दौड़ प्रतियोगिता शुरू होने वाली है। सभी प्रतिभागी स्टार्ट लाइन पर खड़े हुए हैं और सब अच्छे धावक भी हैं। सभी को विश्वास भी है कि वे प्रतियोगिता जीतेंगे। इसी बीच, एक अन्य प्रतियोगी आता है। वह आते ही अपनी लाइन पर खड़ा होकर तमाम तरीकों से एक्सरसाइज तथा अपनी बॉडी- लैंग्वेज व एक्साइटमेंट से अपना अति आत्मविश्वास दिखाने लगता है। यह सब देखकर अन्य प्रतिभागियों का आत्मविश्वास डगमगा जाता है तथा परिणामस्वरूप अन्य सभी प्रतियोगी उसके विश्वास के आगे स्वयं में हीन भावना का शिकार हो जाते हैं। यहां पर स्थिति यह होती है कि अपने आपको अन्य दूसरे के मुकाबले में छोटा व हीन समझने लगते हैं। ऐसे में खास बात यह होती है कि जहां आत्मविश्वास कमजोर पडऩे लगता है वहीं स्वयं का मन भी आत्मकुंठित होने लग जाता है, तत्पश्चात हीन भावना का असर हमारे पूरे व्यक्तित्व में दिखना शुरू हो जाता है। हमारा पूरा व्यक्तित्व हमारी सोच से दिखाई पड़ता है। सोच और भावना मे ज्यादा अंतर नहीं है क्योंकि किसी भी तरह की भावना का आधार हमारी सोच ही है। अगर हमारे मन में विश्वास है और खुद पर पूरा भरोसा भी है तो निश्चित ही हमें किसी से भी डर नहीं लगेगा तथा हम किसी भी विषम परिस्थिति से भी डट कर मुकाबला करने व उससे जीत जाने का हौसला हमेशा बनाये रखते हैं। फिर हमारी बराबरी चाहे किसी भी व्यक्ति से हो या चुनौती किसी भी स्थिति से, सबसे आगे निकल जाने व सफल होनें की पूरी गारंटी बन जाती है। सामने कोई भी हो अब किसी से कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि अपने आप में हमारी सोच मजबूत हो जाती है और आगे बढऩे का सामथ्र्य व साहस भी बन जाता है। यह सच है कि जब किसी व्यक्ति के मन में उच्च भावना व स्वयं में विश्वास जन्मने लग जाता है तब अंदर ही अंदर वह मजबूत इरादों वाला व्यक्ति दिखाई पडऩे लगता है। क्योंकि एक स्थिति तब आती है जब उसके करीबी मित्र, रिश्तेदार, सहकर्मी व जीवन की सभी स्थितियां उस पर भरोसा करने लगती हैं। धीरे-धीरे सभी लोग मेहरबान होना शुरू हो जाते हैं। और यहां तक कि इस व्यक्ति पर ईश्वर की असीम अनुकंपा भी होने लगती है, क्योंकि ईश्वर भी केवल उसी व्यक्ति पर भरोसा करता है जिस व्यक्ति का स्वयं पर भरोसा हो। किसी व्यक्ति की प्रगति व उन्नति का मार्ग भी उसकी सोच ही प्रशस्त करती है। आत्मविश्वासी व्यक्ति अपने कार्यक्षेत्र में निरंतर सफलता प्राप्त करते हुए आगे बढ़ता रहता है। किसी भी कार्य में सफल होने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि हम अपने आपको मजबूत स्थिति में रखें। हम अपनी सोच व भावना को ऊपर उठायें व उसको इतनी ऊंचाई दें कि उससे अच्छे व सुंदर विचार जन्म लेना शुरू हो जाए। ऐसा होने पर हमारी सोच व भावना का हीन भावना से हर तरह का संपर्क टूट जायेगा। फिर ऐसी कोई भी स्थिति न होगी, जिससे हम हीन भावना का शिकार व इससे ग्रस्त हो सकें। एक बात और है कि किसी भी व्यक्ति की अन्य व्यक्ति से तुलना उसके बाहरी आकर्षण, महंगे कपड़े व बंगला-गाड़ी आदि से करने का कोई अर्थ नहीं है। यह तुलना तब सार्थक हो सकती है जब हम अपने विचारों, सोच व भावना के आधार पर करें। यह महत्वपूर्ण बात है कि हम अपने आपको कहीं से भी न तो हीन समझें और न ही हीन भावना रखें। यह बात हमें प्रारंभ से ही अपने अंतर्मन में ढालनी शुरू करनी है। हमें अपने मन को इतना मजबूत बिंदु बनाना है कि हर स्थिति में बड़ी सोच का जन्म हो। जिससे ही अच्छी व सुदृढ़ भावना का अवतरण तथा विकास संभव होगा। अच्छी सोच होने पर ही कुंठा भी नहीं होगी और न ही मन आत्मकुंठा का शिकार हो पायेगा। हमारी जिंदगी में सर्वप्रधान भावना ही है। इसके प्रबल होने से हम अपने जीवन के हर क्षेत्र में आसानी से सफल हो सकते हैं।

Wednesday, October 21, 2009

एक साथ मिलकर दिल से मनाएं दिवाली



आज के इस प्रयोगधर्मी दौर में पारिवारिक एकता को बनाये रखना हम सबके लिए बड़ी मांग है। हम सबकी जिम्मेदारी भी है कि आपसी सामंजस्य को हर हाल में बनाये रखें तथा हर दिल में प्रेम का दिया जलाने का प्रयास करें। तब निश्चित ही सभी लोग एक साथ मिलकर प्रेम भरे दिल से दिवाली मनाएंगे।

१४ साल वनवास काटने तथा रावण को मार विजय श्री प्राप्त करने के बाद भगवान श्री राम के अयोध्या आगमन पर नगरवासियों ने अपने राजा रामचन्द्र जी का पूरे दिल से स्वागत किया। श्री राम की अयोध्या वापसी पर पूरा नगर दीपमालाओं व चमचमाते प्रकाश से जगमगा उठा था। हर ओर खुशहाली व चहल-पहल थी। हर एक के दिल में अपार खुशियां थीं। लोगों ने इस दिन को एक त्योहार के रूप में मनाया। आज पूरे भारत वर्ष में यह दिन दीपावली के महापर्व के रूप में मनाया जाता है। इस प्रकार यह दिन अपार खुशियां, समृद्धि व पारिवारिक एकता का प्रतीक भी है।
रामायण व रामचरित मानस के अनुसार इस दिन के ठीक १४ साल पूर्व अयोध्या के राजा दशरथ की पत्नी कैकेर्ई के मांगे एक वरदान के कारण मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम को राज महल छोड़कर वनवास जाना पड़ा था। जिस दिन श्री राम ने अयोध्या छोड़ी, उस दिन पूरी अयोध्या में मातम छाया हुआ था। हर तरफ शोकाकुल माहौल, रोते-बिलखते लोग, आंखों मेंं आंसुओं का सैलाब तथा असहनीय पीड़ा लिए हुए लोगों ने श्री राम को न चाहते हुए भी अयोध्या से विदा किया। यह बहुत ही मर्मस्पर्शी घटना थी। पूरे अयोध्यावासी उस समय असहनीय पीड़ा से गुजरे थे। वहां के लोग श्री राम के बिछुडऩे से इतने दुखी व स्तब्ध थे कि बीमार पडऩे लगे। इसी तरह के असहनीय शोक के कारण राजा दशरथ का कुछ ही दिनों में ही निधन हो गया। अपना वनवास पूरा करने के बाद श्री राम जब १४ साल बाद अयोध्या लौटे तब पूरी अयोध्या में खुशियों की लहर दौड़ पड़ी। लोगों में अति उत्साह था। एक तरफ जहां श्री राम ने चौदह साल इधर-उधर जंगलों में काटे, वहीं पूरे चौदह साल अयोध्यावासियों के दिल में भी गम के बादल छाये रहे। अब मौका था- खुशियां मनाने का, आनंद व मस्ती का। सभी लोगों ने अपने-अपने घरों को खूब सजाया संवारा, सफाई, रंगाई-पुताई व नये-नये कपड़े पहन घरों में दीपमाला जलाकर पूरी अयोध्या को श्रीराम के स्वागत में जगमग कर दिया।
इसीलिए दीपावली का यह पर्व हम सब अपने पूरे परिवार के साथ मनाते हैं। यह त्योहार पारिवारिक एकता का भी सूचक है। एक परिवार के कई लोग अलग-अलग जगह व शहरों में रहते हैं, और इस दिन दूर-दराज स्थानों में रहने वाले सभी लोग एक जगह पूरे कुटुंब के साथ मिलकर बड़े हर्षोल्लास के साथ इस त्योहार का आनंद उठाते हैं। दीपावली का त्योहार पूरे परिवार के एक साथ मिल जुल कर खुशियां मनाने का है। हिंदू संस्कृति में इससे बड़ा दूसरा पर्व और कोई नहीं हैं जो एक साथ इतने उत्साह से मनाया जाता है। देखने वाली बात यह भी है कि अपने देश में बड़े-बड़े कुटुंबों में एक साथ किसी पर्व या अवसर को मनाने की परंपरा मात्र औपचारिकता बनती जा रही है। इसका प्रमुख कारण शायद परिवार का विघटन या टूटते-बिखरते परिवारों की स्थिति है। आज बड़े परिवार कई छोटे-छोटे परिवार में विभाजित हो रहे हैं। देखा यह भी जा रहा है कि ऐसे कुछ खास अवसरों पर भी लोग दिल से मिलकर एक साथ नहीं हो पाते। पहले संयुक्त परिवार की परंपरा को सभी लोग मिलकर एकसाथ निभाते थे, फिर संयुक्त परिवार से एकल परिवार का चलन प्रारंभ हुआ, तत्पश्चात इसके भी हिस्से होना शुरू हो गये। किसी संयुक्त परिवार की संरचना में सबसे बड़ी रुकावट आती है रहन-सहन को अच्छी तरह समझ पाने की कमी। यह हमारी ही कमी है कि हम इसके मतलब को अच्छी तरह नहीं समझ पाये हैं। इस पर गांधी जी ने भी कहा है कि परिवार के सदस्यों की एकजुटता से परिवार मजबूत होता है, परिवार के मजबूत होने से समाज मजबूत होता है और समाज के मजबूत होने से ही देश मजबूत होगा। इसीलिए हर एक परिवार का मजबूत होना अति आवश्यक है। दीपावली का यह पावन पर्व पारिवारिक एकता की इस तरह मिसाल भी है कि जब श्री राम की दूसरी मां कैकेई के पुत्र भरत को राजगद्दी व श्री राम को वनवास मिला था। जब श्री राम ने अयोध्या छोड़ी, उस समय भरत नगर में नहीं थे। वापस आने पर जब उन्हें श्री राम के वनवास जाने का समाचार मिला तो वह बहुत दुखी हुए तथा उन्होंने राज-पाठ नहीं स्वीकारा और वे उसी समय श्री राम को वापस लाने महल से निकल पड़े। वह श्री राम को वापस महल लाने में तो सफल नहीं हुए परंतु उनकी अनुपस्थिति में राज सिंहासन पर उनकी खड़ाऊ को रखकर राज्य का कार्यभार देखा। यह दोनों भाइयों के बीच आपसी प्रेम व एकता की अनूठी मिसाल थी। वहीं श्रीराम की अयोध्या वापसी पर पूरा नगर आज फिर एकजुट था। आज के इस प्रयोगधर्मी दौर में पारिवारिक एकता को बनाये रखना हम सबके लिए बड़ी मांग है। हम सबकी जिम्मेदारी भी है कि आपसी सामंजस्य को हर हाल में बनाये रखें तथा हर दिल में प्रेम का दिया जलाने का प्रयास करें। तब निश्चित ही सभी लोग एक साथ मिलकर प्रेम भरे दिल से दिवाली मनाएंगे।

Thursday, October 8, 2009

परम सुख की उपलब्धि का तरीका है ध्यान



जब हम ध्यान में होते हैं तो वस्तुत: हम शरीर रूप से होते ही नहीं हैं। जब हमारा ध्यान और मन इस शरीर से अलग हो जाता है, या यूं कहा जाय कि जब हम अपना वजूद पूरी तरह से मिटा देते है तब ध्यान की सच्ची उपलब्धि होती है। ऐसी स्थिति में पूरे अन्त:करण में एक अलग सुख की अनुभूति होती है। हम अपने अंदर एक विशेष धुन का अनुभव करते हैं।

आज विज्ञान और गणित में कई विधियां हैं, सब कुछ फार्मूलों पर ही आधारित है। अगर ऐसा हुआ तो यह होगा, अगर नहीं हो पाया तो फेल। सबकी अपनी पद्धति है, काम करने का अलग तरीका है। इसी प्रकार जीवन में भी सुख प्राप्त करने व इसे परम सुख बनाने के विशिष्ट तरीके को ही हम ध्यान कहते हंै। ध्यान के नियमित अभ्यास से ही हमें मन वांछित सफलता, धैर्य व साहस के साथ परम सुख की भी उपलब्धि हो सकती है।
वैसे, हम सबको अपने दैनिक जीवन में रोजमर्रा के घर से बाहर तक के काम-काज निपटानें के लिए ऊर्जा शक्ति की परम आवश्यकता होती है। इसी ऊर्जा शक्ति की कमी की वजह से कोई व्यक्ति कभी-कभी बोझिल भी दिखाई पड़ता है, जबकि नियमित रूप से ऊर्जा शक्ति का संचयन व वर्धन करने से ही व्यक्ति सुंदर, मजबूत व हमेशा तरोताजा दिखाई पड़ता है। ये सब अंदरुनी बातें हैं। जिनका इलाज केवल दवाओं व फल-मेवा आदि खाने से नहीं बल्कि हमारे शरीर के अंदर की मशीनरी के साथ अन्त:करण को शुद्ध, तंदुरस्त व चुस्त रखने वाली पद्धति का नाम है-ध्यान। घरेलू काम करते समय परम सुख की अनुभूति तथा बाजार आदि में काम में रहते हुए हमेशा परम सुख का अनुभव कैसे किया जा सकता है? इन सभी प्रश्नों का संतोष जनक उत्तर हमें नियमित रुप से ध्यान करने से अपने आप मिल जाता है। किसी व्यक्ति के अच्छी जगह पर रहने या अच्छा खाना खाने से खुशी हो सकती है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि वह व्यक्ति सुखी भी हो। सुख का मतलब ही यही है कि व्यक्ति के ह्रदय व मन स्थल में किसी भी प्रकार की कोई पीड़ा न हो। यह भी अक्सर देखा गया है कि एक गरीब व्यक्ति के पास मकान का सुख नहीं है, गाड़ी नहीं है व पहनने को अच्छे कपड़े नहीं हैं। उनके पास कोई भौतिक संपदा भी नहीं है और न ही कोई सुख समृ़िद्ध का साधन, लेकिन फिर भी सुखी हो सकते है। वहीं दूसरी ओर अमीर व्यक्ति के पास घर, बंगला, गाड़ी व वैभव के सभी साधन मौजूद है, और फिर भी यह जरूरी नहीं कि वह अपने जीवन में पूरी तरह से सुख का अनुभव कर रहा हो।
जब हम ध्यान में होते हैं तो वस्तुत: हम शरीर रूप से होते ही नहीं हैं। जब हमारा ध्यान और मन इस शरीर से अलग हो जाता है, या यूं कहा जाय कि जब हम अपना वजूद पूरी तरह से मिटा देते है तब ध्यान की सच्ची उपलब्धि होती है। ऐसी स्थिति में पूरे अन्त:करण में एक अलग सुख की अनुभूति होती है। हम अपने अंदर एक विशेष धुन का अनुभव करते हैं। ठीक इसी प्रकार की अनुभूति व सुख का अनुभव अपने काम या व्यवसाय में भी किया जा सकता है। जब हम पूरे मन से अपने कार्य में लिप्त होते हैं और हमें किसी और चीज का जरा भी ख्याल नहीं रह जाता। बस काम के प्रति ही अपना पूर्ण समर्पण करते हैं, चाहे वह पढ़ाई लिखाई हो या फिर नौकरी रोजगार। ऐसे समय में हम अगर अनुभव करें तो देखेंगे कि हम वर्तमान में इतना डूब जाते हैं कि दूसरों के प्रति तथा अपना भी तनिक होश नहीं रह जाता। इस समय हमारे शरीर के अंदर ही अंदर एक विशेष धुन चल रही होती है तथा पूरा मन आनंदमय व असीम सुख का अनुभव करता है। परिणाम स्वरूप जब इसी सुख की आवृत्ति बढ़ जाती है और इस आवृत्ति की पुनरावृत्ति लगातार होती रहती है तब इससे प्राप्त होने वाला सुख परम सुख बन जाता है।
आज का मानव अपने जीवन में सुखी रहने के लिए कितना प्रयत्नशील है। घर बनवाता है, गाड़ी खरीदता है और तमाम ऐशो आराम के साधन भी इकट्ठा करता है। परंतु इन सबसे मिलने वाला सुख वस्तुत: यर्थाथ सुख नहीं बल्कि बनावटी है। जबकि असली सुख हमारे अंदर है, और हमें इसे ध्यान के जरिए बाहर निकालना है। इतने समय तक इसके ऊपर इतनी गंदगी व विचार रूपी कूड़ा-करकट डाल कर दबा दिया गया है कि जब तक इसके ऊपर पड़ी परतें नहीं हटायी जाएंगी तब तक अंदर की अनुभूति जल्दी नहीं हो सकती। एक जगह कोई मूर्तिकार रहता था, उसके घर के पास ही एक बड़ा पत्थर कई दिनों से पड़ा था। वह अक्सर उस पत्थर को देखा करता था। एक दिन मूर्तिकार ने उस पत्थर पर एक मूर्ति बनानी शुरू की। कुछ दिनों के बाद जब मूर्ति बनकर तैयार हुई तो जो कोई भी उधर से निकलता, उस मूर्ति की बहुत तारीफ करता। मूर्ति वाकई बहुत खूबसूरत बनी थी। ऐसे में एक व्यक्ति ने मूर्तिकार से पूछा कि आपने इस बेकार पड़े पत्थर से इतनी आकर्षक व खूबसूरत मूर्ति कैसे बना दी। इस पर मूर्तिकार ने कहा कि मूर्ति तो इस पत्थर के अंदर पहले से ही थी, मैने तो केवल इसके ऊपर के बेकार पत्थर को तराश दिया और वही खूबसूरत मूर्ति बाहर आ गई। इसी प्रकार हमें भी करना है कि हमारे अंदर विद्यमान वास्तविक सुख के उऊपर पड़े कूड़ा-करकट को ध्यान में ही बैठकर हटाना है। ध्यान के नियमित अभ्यास से सुख की संवेदनशीलता व अनुभूति बढ़ जाती है।

Monday, October 5, 2009

अमूल्य है गांधी जी का जीवन दर्शन



गांधी जी ने अपने जीवन में सभी धर्मों को बराबरी से सम्मान दिया क्योंकि वह भारत को सर्व धार्मिक राष्ट्र बनाने का सपना देखते थे। इसी के साथ उन्होंने सारे जीवन केवल सत्य का मार्ग अपनाया।
दे दी हमे आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल। गांधी का मतलब- महान व्यक्ति, एक विचार धारा व सत्य-अहिंसा का पुजारी। एक साधारण से दिखने वाले पुरुष में अनेक असाधारण प्रतिभाओं का समिश्रण ही है- मोहनदास करमचन्द गांधी। जो आगे चलकर शांति के मसीहा के रूप में विख्यात हुए तथा अपनी जान की आहूति देकर भारत की आजादी का अपना लक्ष्य पा लिया। हिंदुस्तान की आजादी का सपना देखने वाले मोहनदास करमचन्द गांधी जी का जन्म पोरबंदर में 2 अक्टूबर 1869 को हुआ था। बनिया परिवार में जन्म लेने वाले इस बालक की आगे चलकर क्या हस्ती होगी, इस बात का किसी को तनिक भी अंदाजा नहीं था। गांधी जी अपने बाल्यकाल में बेहद शर्मीले व अन्तर्मुखी स्वभाव के थे। उनके असली संगी-साथी उनकी किताबें ही थीं। मात्र 13 वर्ष की आयु में ही गांधी जी का बाल-विवाह कस्तूरबाई के साथ हो गया था। उनकी पत्नी पढ़ी-लिखी नहीं थीं। स्कूल के दिनों में जिमनास्टिक विषय में रुचि न होने के कारण उस समय वह अपने बीमार पिता की सेवा करना ज्यादा पसंद करते थे। एक बार उन्हें जिमनास्टिक पीरियड में गैरहाजिर रहने के कारण दो आना का जुर्माना भी भरना पड़ा। अपनी सुलेख व हैंड राइटिंग से वह बहुत असंतुष्ट व शर्मिंदा रहते थे क्योंकि वह सुलेख को अच्छी शिक्षा का हिस्सा मानते थे। गांधी जी को अपने बचपन के मित्रों द्वारा मांसाहारी भोजन के लिए प्ररित किये जाते थे। उनके एक मित्र ने उनको बताया कि हम लोग मांसाहारी भोजन न करने के कारण ही कमजोर हैं, और अंग्रेज लोग मांसाहारी होते हैं। इसीलिए वे हम पर अपना शासन चलाने के लिए योग्य व सक्षम होते हैं। इन सब बातों से गांधी जी को बहुत पीड़ा पहुंचती थी। गांधी जी का परिवार वैश्णव था। उन्हें सच से बेहद लगाव था तथा इस बात का डर था कि उनके मांसाहारी होने की बात पता चलने पर परिवारजनों को बहुत आघात लगेगा। जबकि वह चाहते थे कि सभी लोग मजबूत व साहसी हो, जिससे कि अंगे्रजों को हराकर भारत को स्वतंत्र कराया जा सके। जब वह 16 साल के थे तभी उनके पिता का देहान्त हो गया। उन्हें इस बात का अत्यंत दु:ख व आघात लगा तथा अपने आप में शर्मिंदा भी थे कि अपने पिता के अन्तिम क्षणों में उनके पास क्यों नहीं रह पाये? 1887 में गांधी जी के मेट्रीकुलेशन पास करने के बाद इंग्लैंड रवानगी से पहले उन्हें शराब, मांस और औरत से दूर रहने की कसम दिलाई गई। उस समय अंग्रेजी भाषा में ज्यादा अभ्यस्त न होने के कारण वह अंग्रेजों की बातों का मुश्किल से जवाब दे पाते थे। कुछ समय बाद गांधी जी इंग्लैंड की एक्जीक्यूटिव कमेटी ऑफ वेजिटेरियन में चुन लिये गये। इंग्लैंड से वापस आने पर गांधी जी को मां की मृत्यु का समाचार मिला। इस समय उन्हें पिता की मृत्यु से भी ज्यादा आघात पहुंचा। बंबई आकर उन्होंने अपनी वकालत शुरू की, लेकिन उनका मन वकालत करने में नहीं लगा तथा कुछ ही समय में बंबई छोड़कर राजकोट में अपना ऑफिस बनाया। जहां पर उन्होंने लोगों के लिए एप्लीकेशन व लेटर आदि ड्राफ्ट करने का काम शुरू किया। एक दिन एक ब्रिटिश अधिकारी, एक पॉलिटिकल एजेन्ट, जो साहिब कहे जाते थे के द्वारा अपमान तथा चपरासी द्वारा बाहर निकालने की घटना ने उनको हिला कर रख दिया। इसी बीच गांधी जी को पोरबंदर से एक कम्पनी का प्रस्ताव आया। जिसमें गांधी जी को साउथ अफ्रीका की कोर्ट में कम्पनी के एक केस के तहत वकीलों को सलाह देने के लिए लगभग एक वर्ष के पूरे खर्चे के साथ 105 पौंड देने की पेशकश की गई। गांधी जी इस प्रस्ताव से बिल्कुल संतुष्ट नहीं थे, परंतु देश छोडऩे व नये अनुभव के लिए साउथ अफ्रीका रवाना हुए। गांधी जी का सामाजिक व राजनैतिक जीवन-विदेशों मे रहते हुए गांधी जी को वहां पर रहने वाले हिंदुस्तानियों के बारे में बहुत हमदर्दी थी। गांधी जी ने प्रेटोरिया में रहने वाले भारतीयों के बारे में जानना चाहा तथा उन्होंने सभी भारतीय नागरिकों को अपने काम में सच्चाई को पहचानने की पहली मीटिंग करी। वहां पर काम करने वाले भारतीय व्यापारियों को पूरी सच्चाई के साथ अपने कर्तव्यों के प्रति हमेशा सजग रहने के लिए प्रेरित किया। अपने तीन साल के साउथ अफ्रीका दौरे के दौरान गांधी जी ने विभिन्न धर्म, सम्प्रदायों एवं जातियों का तुलनात्मक रूप से गहन अध्ययन किया, और हर धर्म व जाति के प्रति उनमें विशेष आस्था बनी। गांधी जी ने अपने जीवन में सभी धर्मों को बराबरी से सम्मान दिया क्योंकि वह भारत को सर्व धार्मिक राष्ट्र बनाने का सपना देखते थे। इसी के साथ उन्होंने सारे जीवन केवल सत्य का मार्ग अपनाया तथा सभी से सत्य का अनुपालन करने का आह्वान भी किया। गांधी जी ने सत्य को कभी नहीं छोड़ा। गांधी जी कहते थे कि सत्य का मार्ग बहुत कठिन है। उस पर आसानी से नहीं चला जा सकता, चलने में अनेक दिक्कतें भी आती हैं, परन्तु अन्त में जीत सच की ही होती है। भारत की आजादी तथा हिंदुस्तान का भाग्य विधाता कोई राजा महाराजा, रण क्षेत्र का योद्धा, या साधू संत नहीं बल्कि दुबला-पतला एक बूढ़ा आदमी था। इस व्यक्ति का नाम मोहनदास करमचन्द गांधी था। आजादी के इस रचयिता के पास अंगे्रजों से मुकाबला करने के लिए न कोई हथियार था, और न ही अपने बचाव के लिए कोई ढाल। गांधी जी के पास था केवल सत्य का साथ व अदम्य साहस। वैसे गांधी जी के पास अपने आप को भोजन से वंचित रखने का अर्थात अनशन पर बैठने का ऐसा ब्रम्हास्त्र था, जो बड़े-बड़े ब्रितानियों को उनके आगे घुटने टेकने पर मजबूर कर देता था। गांधी जी इतने सादगी पसंद व्यक्ति थे कि वह अपनी बात को कहने के लिए हाथ से लिखकर पत्र व्यवहार करते थे। उनमें इतना चुम्बकीय आकर्षण था कि जो कोई भी उन्हें निकट से जानता, उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। किंग मार्टिन लूथर गांधी जी से बहुत प्रभावित रहा। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गांधी जी बहुत पसंद किये जाते रहे तथा हिंदुस्तान की इस हस्ती ने पूरे विश्व में अपना डंका बजाया। गांधी जी लोगों के बीच में शांति व न्याय प्रिय मसीहा के रूप में पहचाने गये। गांधी जी ने देश को आजादी दिलाई परंतु एक बड़ा डर भी उनको सताता था। और वह था, धार्मिक आधार पर आजाद हिंदुस्तान का बंटवारा। अंगे्रज शासक भी भारत छोडऩे से पहले हिंदुस्तान को बांट देना चाहते थे। जब कि गांधी जी ने बार-बार कहा था कि भारत के टुकड़े करने से पहले मेरे शरीर के टुकड़े करने होंगे। गांधी जी का अंतिम जीवन-गांधी जी जीवन की अंतिम अवस्था में निरंतर अनशन पर बैठने से शारीरिक रूप से काफी कमजोर हो गये थे। इस समय गांधी जी को बुरी तरह खांसी भी होने लगी थी। गांधी जी की शिष्या मनु गांधी जी के कमजोर व हांफते हुए शरीर को देखकर दुख से भर गईं। गांधी जी से खांसी की गोली खानेे को कहने से मनु डर भी रही थीं। परंतु उनकी हालत को देखकर उससे न रहा गया और मनु ने गोली खिलाने की बात कही। गांधी जी ने उत्तर दिया कि तुम्हें राम पर भरोसा नहीं रह गया है? खांसते हुए उन्होंने कहा कि यदि मैं किसी बीमारी से मर जाऊं, तो तुम्हारा कर्तव्य होगा कि सारी दुनिया से कहो कि मैं ढोंगी महात्मा था। अगर कोई मुझे गोली मार दे, और मैं गोली खाने के बाद आह किये बिना, होठों पर बस राम का नाम लिये हुए परलोक चला जाऊं, तब तुम कहना कि मैं सच्चा महात्मा था। शायद गांधी जी को अपने अंतिम समय का आभास हो गया था, इसीलिए उन्होंने मनु से वही प्रार्थना गीत गाने को कहा- न थको न हारो, आगे बढऩा स्वीकारो। रुकने का नही काम, बढ़ते जाओ प्यारों।
दे

Tuesday, September 29, 2009

रक्तदान को महादान बनाने के लिए जन जागरुकता जरूरी


कुछ प्रोफेशनल ब्लड डोनर्स ब्लड बैंक के वर्किग स्टाफ के साथ साठ-गांठ से हर महीने या दस-पंद्रह दिन में अपना खून बेचकर रुपए कमाते हैं। इन्हें लोगों की जान की कोई परवाह नहीं, ये सरकारी नियमों का माखौल उड़ाते हैं तथा खून का गंदा खेल कर रहे हैं।

रक्त-दान महादान कहा जाता है। रक्तदान करने वाला महान हो जाता है और रक्त पाने वाले को नया जीवन मिल जाता है। २२ सितंबर स्वैच्छिक रक्त दान दिवस के रूप में मनाया जाता है। देखा जाता है कि इस दिन अनेक समाजसेवी संस्थाएं या ब्लड बैंक स्वैच्छिक रक्त दान व जागरुकता शिविर का आयोजन करते हैं। इनका उद्ïदेश्य लोगों को रक्त दान के प्रति जागरूक करना और जरूरत मंद लोगों के लिए रक्त उपलब्ध कराना होता है। परंतु, कहीं न कहीं रक्त दान करनें से कमजोरी या किसी प्रकार की बीमारी हो जाने की गलतफहमी व भ्रांति अभी भी लोगों की सोच पर हावी है। इसके चलते अभी भी गरीब व किसी जटिल बीमारी से ग्रस्त मरीज को समय पर ब्लड सुलभ तरीके से उपलब्ध नहीे हो पाता।
जब कोई बीमार अस्पताल में रक्त की आवश्यकता व कमी से जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा होता है तब उसका परिवार रक्त की व्यवस्था के लिए दर-दर भटकता फिरता है। ऐसे मौकों पर खास रिश्तेदार, करीबी, दोस्त और जिम्मेदार पड़ोसी भी मुंह फेरने लगते हैं। इस समय तीमारदार परिवार के लिए व्यक्ति की बीमारी से ज्यादा बड़ी समस्या हो जाती है कि किस तरह मरीज के लिए खून की तुरंत व्यवस्था की जाय? सरकारी या गैर सरकारी ब्लड बैंक भी ब्लड एक्सचेंज करके ही खून मुहैया कराते हैं। अत: किसी भी ब्लड बैंक से खून लेने के लिये ब्लड डोनर की आवश्यकता होती है। ऐसे समय में आसानी से कोई भी ब्लड देने के लिये तैयार नहीं होता है। एक-दो यूनिट ब्लड तो किसी भी तरह बिना किसी ब्लड डोनर के खरीदा भी जा सकता है, क्योंकि बगैर एक्सचेंज के एक यूनिट ब्लड की कीमत बहुत ज्यादा होती है। किसी भी जटिल बीमारी या स्थिति में जब ज्यादा ब्लड की आवश्यकता होती है तब डायरेक्ट खरीदना भी साधारण व्यक्ति या किसी पीडि़त परिवार के लिये आसान नहीं होता है। अब सवाल यह है कि इस समय अपने रिश्तेदार, मित्र या पड़ोसी खून देने से आखिर क्यों कतराते हैं? यह कैसी भ्रांति है कि हम किसी को खून देने से कमजोर या बीमार पड़ सकते हैं? जब कि हम यह अच्छी तरह जानते हैं तथा भली-भांति सहमत भी हैं और मेडिकल साइंस की रिपोर्ट भी यही कहती है कि एक स्वस्थ शरीर से एक यूनिट खून निकलने या किसी जरूरतमंद को दान करने से रक्तदाता के शरीर पर किसी भी तरह का दुष्प्रभाव नहीं देखा जाता बल्कि यह हमारे शरीर के तमाम पोषक तत्वों को और तंदुरुस्त करता है तथा शरीर पर किसी भी तरह की कमजोरी भी नहीं होती व कुछ ही दिनों में शरीर में रक्त फिर से तैयार हो जाता है। वही ब्लड डोनर तीन महीने के बाद अपनें शरीर से दुबारा ब्लड निकलवाने या डोनेट करने के योग्य व सक्षम हो जाता है।
स्वैच्छिक रक्तदान व जागरुकता अभियान के लिए सरकार करोड़ों रुपये हर साल खर्च करती है, परंतु इसका व्यापक रूप से प्रचार नहीं हो पा रहा है। शायद इसीलिए लोगों में रक्तदान के प्रति जागरुकता की विशेष कमी देखी जा रही है। आखिर गड़बड़ी कहां पर हो रही है यह भी देखने व समझने की बात है। रक्तदान से होने वाली किसी भी प्रकार की कमजोरी या बीमारी की भ्रामक भ्रांति को दूर करने के लिए स्वैच्छिक रक्तदान शिविर से अधिक रक्तदान जागरुकता पर जोर देना चाहिए तथा लोगों को रक्तदान से शरीर पर होने वाले लाभों को अच्छी तरह से समझाने का भी प्रयास चाहिए। इसी जागरुकता की कमी के कारण ही लोग स्वैच्छिक रूप से रक्त देने के लिए तैयार नहीं हो पा रहे हैं, जिसके कारण सरकारी या गैर सरकारी ब्लड बैंक में पर्याप्त मात्रा में रक्त का स्टाक नहीं हो पाता है। शायद इसीलिए ब्लड बैंक से मिलने वाले खून की कीमत बहुत ज्यादा होती है। किसी आकस्मिक घटना के समय गरीब व सामान्य आदमी के लिए खून की व्यवस्था कर पाना सहज नहीं है, क्योंकि कोई भी ब्लड बैंक बिना किसी ब्लड डोनर के खून नहीं देता है। रक्तदान जागरुकता की कमी के साथ कुछ प्रोफेशनल ब्लड डोनर्स ने अपने शरीर से खून निकलवाने का धंधा बना लिया है, ये लोग ब्लड बैंक के वर्किग स्टाफ के साथ साठ-गांठ से हर महीने या दस-पंद्रह दिन में अपना खून बेचकर रुपए कमाते हैं। इन स्टाफ को भी खून व रक्तदाता के किसी भी मानक व नियम-कानून की कोई चिंता नहीं होती। कई जगहों पर पाया गया है कि इन्हें लोगों की जान की कोई परवाह नहीं, ये सरकारी नियमों का माखौल उड़ाते हैं तथा खून का गंदा खेल कर रहे हैं। लोगों की जिंदगी से खेलकर गंदे व्यापार से ढेरों रुपया कमाना ही इनके जीवन का उद्देश्य बन गया है। आधारभूत बात यह है कि मुख्यत: कमी खून की नहीं बल्कि लोगों में जागरुकता की है। सरकार, समाजसेवी संस्थाएं व ब्लड बैेंक सभी लोग एकसाथ मिलकर रक्तदान जागरुकता अभियान व्यापक तरीके से करें। लोगों में रक्तदान में प्रति जागरुकता व उत्सुकता ही देश में होने वाली रक्त की अनुप्लब्धता को दूर कर सकती है, जब लोग खुद अपनी मर्जी व अर्जी से रक्तदान करने लगे व रक्त के दान का असली पुण्य समझे तब जाकर ही रक्तदान महादान कहलाएगा। -

Saturday, September 19, 2009

मस्ती की पाठशाला है पूरा मानव जीवन



जिंदगी हर एक बात पर हमें कुछ ना कुछ सिखाती है तथा आने वाला हर एक पल हमारे लिए एक नया अनुभव बन जाता है। आज के इस अर्थयुग में पैसा कमाने के लिये हमें अपने नौकरी-रोजगार में कई तरह की मुश्किलों आदि का सामना करना पड़ता है। व्यवसायिक प्रतियोगिता व प्रतिद्वंद्विता के दौर में अपनी क्षमता का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने का दबाव भी हम पर बना होता है, जिससे ही हम अपनी पहचान बना सकते हैं।

अपने स्कूल के दिनों में तो मौज-मस्ती सभी ने की होगी। उस समय न कोई चिंता और न कोई फिकर। उन दिनों न कोई भूतकाल होता है, और न ही कोई भविष्य। बस जो भी चल रहा होता है वही बच्चे जाते हैं। प्रत्येक बच्चा हर एक पल व हर एक क्षण को पूरी मस्ती के साथ जीता है। स्कूल में तो क ख ग का ज्ञान किताब से मिलता है, परंतु जिंदगी का क ख ग सीखने के लिये हमे जिंदगी की पाठशाला से रू ब रू होना पड़ता है। यह हमारे जीवन की ऐसी पाठशाला है जो कभी खत्म नहीं होती। इसमें हमें नित्य नये अध्याय सीखने को मिलते हैं। हम सब यहां स्टूडेंट की तरह होते हैं। आवश्यकता यहां पर भी वही है कि हम इस पाठशाला में भी पूरा मस्त होकर सीखें तो हमारी जिंदगी पूरी मस्ती की पाठशााला से कम नहीं लगेगी। हम सभी नेे स्कूल में मौज-मस्ती के साथ पढ़ाई की, फिर नौकरी-रोजगार की बात हो या घर-गृहस्थी का कोई भी पड़ाव, जिंदगी के हर कदम पर एक अलग तरह की मौज है तथा अनोखी मस्ती। अब सब कुछ हम पर निर्भर करता है कि हम इस जिंदगी की पाठशाला से कितना सीखकर उसका आनंद उठा पाते हैं। अगर हम अपने बचपन की ही बात करें तो आज भी हम अपने बचपन को याद कर प्रसन्न हो जाते हैं। उस जीवन में किसी भी तरह की कोई टेंशन नहीं और किसी भी बात का कोई झंझट नहीं दिखता था। यह शुरुआती फेज़ कितना आनंदमयी होता है, जिसमें हम सब बच्चे पूरी मस्ती में होकर अपने बचपन का लुत्फ उठाते हैं। स्कूली जीवन की पढ़ाई-लिखाई छूटने के बाद में हम नौकरी-पेशे आदि में आ जाते हैं। स्कूल के किताबी पाठ के बाद में अब हमें जिंदगी के वास्तविक व यर्थाथ अध्याय पढऩे पड़ते हैं। अभी तक हमने स्कूल में पढऩा-लिखना, लोक व्यवहार व नैतिकता आदि जो कुछ भी सीखा, वह सब कुछ हमें अपने जीवन में उतारना व ढालना होता है। एक तरह से देखा जाय तो स्कूल के बाद का हमारा यह जीवन बिल्कुल एक प्रायोगिक शिक्षा की तरह से है। जिस प्रकार कोई छात्र या छात्रा जब किसी प्रोफेशनल कोर्स की पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद उसे कुछ समय इन्टर्नशिप करनी होती है। अगर हम ध्यान से अपने जीवन को देखें व जियें तो हमारे जीवन का यह पड़ाव भी पूरी मौज-मस्ती में जिया जा सकता है तथा बिना एक पल भी गंवाये हम इसका पूरा आनंद ले सकते हैं। जिंदगी हर एक बात पर हमें कुछ ना कुछ सिखाती है तथा आने वाला हर एक पल हमारे लिए एक नया अनुभव बन जाता है। आज के इस अर्थयुग में पैसा कमाने के लिये हमें अपने नौकरी-रोजगार में कई तरह की मुश्किलों आदि का सामना करना पड़ता है। व्यवसायिक प्रतियोगिता व प्रतिद्वंद्विता के दौर में अपनी क्षमता का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने का दबाव भी हम पर बना होता है, जिससे ही हम अपनी पहचान बना सकते हैं। ऐसे में एक बात का ध्यान रखना बहुत आवश्यक हो जाता है कि हम किसी भी काम को तनाव में रहकर नहीं कर सकते हैं। नौकरी व्यापार में कई तरह का दबाव, वर्क लोड व बॉस का प्रेशर इतना सब होने के बावजूद हमें खुद अपने काम में सौ प्रतिशत परिणाम की अपेक्षा होती है, क्योंकि अब सवाल हमारी परफॉर्मेन्स का बन जाता है। ऐसे में केवल एक ही रास्ता दिखाई देता है कि हम अपने काम में ही एन्जॉयमेंट ढूढ़े। आनंदमग्न होकर अपने काम में तल्लीन हो जाना ही सफलता की गारंटी बन जाता है। इसको इस उदाहरण से समझें कि कि अगर हम किसी तनाव में हैं या किसी समस्या से ग्रस्त हैं, और हम उससे निकलनें का हल खोज रहे हैं। परिणाम यह होता है कि अक्सर हल तो मिलता नहीं और इसके विपरीत हम अपना तनाव और बढ़ा लेते हैं। इसी समस्या पर किसी दूसरे व्यक्ति से राय या सलाह लेनें पर वह व्यक्ति हमको इसका हल तुरंत बता देता है, क्योंकि उसका दिमाग उस वक्त किसी तनाव में नही रहता। इसका अर्थ यही है कि जब हम कहीं पर उलझे हुए होते हैं तो हमारा दिमाग भी इसी भटकाव में धूमता रहता है तथा किसी भी स्थिति का बारीकी से विश्लेषण व आकलन नहीं कर पाता है। अगर हम भी ऐसी किसी स्थिति में किसी भी प्रकार का तनाव व दबाव का अनुभव न करें तो हम भी इसका हल व तरीका ढूढऩें में समर्थ व सफल हो सकेंगे। वैसे हमारी जिंदगी के भी कई रूप है क्योंकि हमारी जिंदगी कई स्टेप्स में चलती है बचपन से किशोरावस्था, युवावस्था व फिर वृद्धावस्था। इन सभी स्टेज में क्रमश: बहुत बदलाव देखा जाता है। देखते ही देखते कल का बच्चा युवा हो जाता है और फिर प्रबुद्ध व्यक्ति बन जाता है। जिंदगी के बीच रहकर तथा उसके बीच हॅसखेल कर हम सब कुछ सीखते चले जाते है। जीवन के हर दौर में अगर हम नाचते-गाते चलें तो फिर हमें जिंदगी का सही अर्थ मिल जाता है। बच्चों की पढ़ाई- लिखाई हो या घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी, ऑफिस का काम हो या फिर नौकरी-रोजगार में परेशानी। सब कुछ केवल पार्ट ऑफ दि लाइफ है। यह सब केवल हिस्सा मात्र है, यही सब कुछ नहीं हो जाता है। परंतु हम अपनी समझ से इन्हीं को सबकुछ मानकर बेवजह ही परेशान हुआ करते हैं। जब कि यह हमने भी देखा है कि कोई भी परेशानी हमेशा नहीं रहती, कोई झंझट सदैव नहीं चलता। चलता है तो बस जीवन। हम किसी भी चीज को अपने सिर पर बोझ की तरह न लें। अगर हम इसे बोझ मान बैठे तो फिर जल्द ही थकने की संभावना हो जायेगी। जीवन यात्रा का रस कम हो सकता है। हम ऐसा समझें की यह सब ऐसी जिम्मेंदारियां है कि बस हमसे बन पड़ रही है, और हम करते जा रहे है। जो कुछ किया उसका कोई गुमान नहीं, जो भी नहीं कर पाये उसका भी कोई क्षोभ नहीं। फिकर केवल एक बात की होनी चाहिए कि हम अपनें जीवन के हर पड़ाव में कितना ज्यादा मस्त हो सकते हैं। जिस प्रकार बचपन की प्रारंभिक शिक्षा की बात करें तो आजकल बच्चों को पढ़ाई के तनाव से बचानें के लिये स्कूलों में प्ले ग्रुप सेशन होता है। जिसमें बच्चों में खेल की मस्ती के साथ पढऩे-लिखने की आदत डाली जाती है जिससे कि बच्चा पढ़ाई में एन्जॉय करे, बोझ समझ कर बोर न हो जाय। हमें चाहिए कि बाकी की जिंदगी को भी हम इसी तरह से जियें, जिंदगी की हर खुशी को हम सब साथ मिलकर सेलेबे्रट करें। जीवन को एक आनंद के उत्सव के रूप में समझे व जिंदगी के हर सबक को एन्जाय के साथ सीखते चलें।
ईश्वर नें हमें जो जीवन दिया है वह मस्त होकर जीने के लिये ही दिया है। उसमें झूम जाने व डूब जाने के लिये दिया है। अगर हम मस्त होकर जियें तो उसकी हर एक बात, जिंदगी के हर पल व रिश्ते का सही अर्थ आसानी से समझ सकते हैं। उसकी दी हुई हर सॉस में उसका अनुभव कर सकते हैं। फिर हमारा पूरा जीवन आनंद की मौजों से भरा-पूरा लगने लगता है। चाहे वह हमारा परिवार हो, रिश्ते हों या लोक व्यवहार सभी में हमें आनंद दिखेगा व असीम रस की फुहार भी दिखाई देंगी।

Thursday, September 10, 2009

देश-दुनिया में हर जगह पहचान हैं बेटियां


बेटे की जगह जन्म लेती है बेटियां।
कोमल, सहज व सहृदय होती हैं बेटियां॥
अब बेटे से कहीं कम नहीं है बेटियां।
हर घर का सम्मान है बेटियां॥
देश दुनिया में हर जगह पहचान है बेटियां।
स्वर्णिम दिशा में उडऩे का अरमान है बेटियां॥
न रोके इन्हें कोई, न लगाएं इनपे बेडिय़ां।
क्योंकि अब देश का स्वाभिमान हैं बेटियां॥

ज हर जगह नारी सशक्तिकरण की बात हो रही है। महिलाओं को आगे लाने व उनको बढ़ावा देने की योजनाओं पर काम किया जा रहा है। हो भी क्यों न, क्योंकि देश की आजादी के समय से ही कितने ही आंदोलनों व स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं ने अपनी जान की परवाह न करते हुए पुरुषों के साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर संघर्ष किया। आज के इस कॉरपोरेट युग में भी महिलाओं की हिस्सेदारी व भागीदारी कम नहीं आंकी जा सकती। देश के विकास में इनके सराहनीय योगदान की अपेक्षा करना बेमानी होगी। देश की तरक्की के लिए हर एक महिला का जागरूक होना बहुत आवश्यक हो गया है। हमें भी देश के भविष्य के लिए महिलाओं की तस्वीर को और मजबूती से पेश करना होगा।
अब महिलाएं केवल घर के कामकाज तक सीमित नहीं रहीं। ये महिलाएं अब अपने घरों से निकल कर बड़े-बड़े ऑफिस संभाल रही हंै। प्रशासनिक स्तर से लेकर खेल, व्यापार, नौकरी, अंतरिक्ष, मीडिया तथा देश-विदेश हर जगह महिला, नारी व बेटियां अपने दम पर अपनी व देश की अमिट छाप छोडऩे में सफल रहीं। साधारण व घरेलू महिलाओं के लिए ऐसी समर्पित महिलाएं सदैव प्रेरणास्रोत व मार्ग प्रशस्ति का भी कार्य करती हैं। साधारण महिलाएं या छात्रा इनसे सबक लेकर अपनी जिंदगी में कुछ बनकर देश के लिए कुछ कर दिखाने का हौसला भी रखती हैं। महिलाएं आज भारतीय राजनीति का एक अहम व सशक्त हिस्सा बनती जा रही हैं। इसका एक उदाहरण हमारे सामने श्रीमती प्रतिभा पाटिल हैं जो आज भारत की राजनीति के सर्वोच्च शिखर पर देश की प्रथम महिला राष्ट्रपति के रूप में हैं। महिलाओं की राजनीति में भागीदारी बढ़ाने तथा उन्हें आगे लाने के लिए अभी केंद्र सरकार के केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एक महत्वपूर्ण फैसला लिया, जिसमेंं महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए पंचायती चुनाव में ५० फीसदी आरक्षण की व्यवस्था कर दी। इससे महिलाओं को राजनीति में आने के ज्यादा से ज्यादा अवसर मिल सकेंगे तथा महिलाओं की दावेदारी तथा समग्र विकास और सशक्त तरीके से हो सकेगा।
इतना सब होने के बावजूद कहीं न कहीं कन्या भ्रूण हत्या देश के गौरव व स्वाभिमान को कलंकित सा करता जा रहा है। एक तरफ हम महिलाओं के योगदान से अभिभूत होकर गौरांवित महसूस करते हैैं, वहीं दूसरी ओर गर्भ कन्या को उसके जन्म लेने से पहले ही एक नारी की कोख में मारे दे रहे हैं। यह कितनी विडम्बना है कि एक नारी ही अपनी ही कुल के साथ कैसी दुश्मनी निकाल रही है? इतना ही नहीं एक पुरुष, जिसको एक नारी ने ही जन्म दिया है, केवल एक पुत्र की चाहत में उसी नारी के कन्या भ्रूण की हत्या उसके जन्म लेने से पहले कर दे रहे हंै। केवल एक बेटे की ललक आज समाज को देश के विकास में अपनी भागीदारी निभाने वाली बेटी का हत्यारा बना रही है। सच यह भी है कि आज की बेटी किसी बेटे से कम नहीं है। इसका मुख्य कारण वैचारिक संकीर्णता कहा जाए या फिर इसके पीछे और कोई खास वजह? इन सबके पीछे क्या कारण हैं? ये हमें देखने होंगे। यह हमारी सबकी सामाजिक जिम्मेदारी बन जाती है कि हम इस समस्या की मूल वजह को तलाशें व इसका हल खोजें। आज यह कन्या भ्रूण हत्या समाज में इतना संवेदनशील व वीभत्स रूप ले चुका है कि इसे संगीन अपराध की धाराओं में गिना जा रहा है। आज मनुष्य किसी कन्या को जन्म देने से इतना क्यों घबरा रहा है? क्यों इतना सहमा हुआ है? उसका डर समाज में बढ़ती हुई लड़कियों व महिलाओं के प्रति सामाजिक असुरक्षा की भावना से भी हो सकता है। क्योंकि आये दिन महिलाओं के साथ छेड़छाड़, शारीरिक शोषण, मार-पीट व बलात्कार जैसे क्रूर व जघन्य अपराध आम होते जा रहे हैं। कन्या भ्रूण हत्या का दूसरा बड़ा कारण लड़कियों के विवाह में दिए जाने वाले दान-दहेज की सामाजिक कुप्रथा भी कुछ कम जिम्मेदार नहीं है। समाज में उपजे इस वर्ग विशेष के बीच के अंतर की खाई, आपसी प्रतिद्वंद्विता तथा हीन भावना के डर से बचने के लिए भी मनुष्य ऐसे कठोर फैसले लेने पर कभी-कभी मजबूर हो जाता है।
ऐसा लगता है कि शायद अभी तक हमारी सरकारें ऐसे माता व पिता को अपने विश्वास में नहीं ले पाई हैं। उनको सामाजिक सुरक्षा व अधिकार का भरोसा नहीं दिला पाई हैं जिसके ही परिणामस्वरूप लोग सांसत में रहकर अभी तक अपनी धारणाओं में परिवर्तन लाने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं। जब तक हमारे समाज में व्याप्त इन बुराइयों का खात्मा नहीं होगा, लोग आश्वस्त नहीं होंगे। महिला सशक्तिकरण के बुनियादी पहलू पर हमारा प्रयास और मजबूत तब हो सकता है, जब हम महिलाओं को उन पर होने वाले किसी भी तरह के सामाजिक व घरेलू अत्याचार से मुक्त करवा दें। किसी भी नारी का जीवन एक बेटी से ही आरंभ होता है, इसलिए हर एक बेटी को जन्म लेने दें, उसे पलने दें तथा उसे आगे बढऩे से न रोकें। कहा गया है कि नारी दुर्गा का ही रूप है। नारी के कई रूप हैं। नारी के रूप में ही मॉ है, बहन है, पत्नी है व बेटी है। इनके रहने से ही हमारे घर का सम्मान है तथा इनकी उन्नति, प्रगति व सशक्त उपस्थिति हमारे देश का स्वाभिमान है।
बेटे की जगह जन्म लेती हं बेटियां।
कोमल, सहज व सहृदय होती हैं बेटियां॥
अब बेटे से कहीं कम नहीं है बेटियां।
हर घर का सम्मान है बेटियां॥
देश दुनिया में हर जगह पहचान है बेटियां।
स्वर्णिम दिशा में उडऩे का अरमान है बेटियां॥
न रोके इन्हें कोई, न लगाएं इनपे बेडिय़ां।
क्योंकि अब देश का स्वाभिमान हैं बेटियां॥

Saturday, September 5, 2009

अनमोल जीवन का समझें मोल


वेद-पुराण भी कहते हैं कि 36 करोड़ योनियों के बाद हमें मनुष्य का जीवन मिलता है। दुनिया में कितने ही छोटे-छोटे जीव जंतु, पशु-पक्षी सभी सांस लेते हैं। हमारे चारों ओर अनेक प्रकार का जीवन देखने को मिलता है। ईश्वर की बसाई गई इस दुनिया में कई तरह के प्राणियों का वास है। अगर हम बारीकी से इन सबका विश्लेषण व आकलन करें तो हम पाएंगे क्यों मानव जीवन को ही अनमोल व सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। अगर हम प्रकृति को देखें तो हमें सुंदर-सुंदर हरियाली दिखाई पड़ती है।

ईश्वर की विश्वव्यापी संरचना में सबसे सशक्त जीवन केवल मनुष्य को ही मिला है। वैसे तो जीवन सभी के पास है जीव-जंतु, पशु-पक्षी सभी श्वास लेते हैं। मनुष्य भी श्वास लेता है। परन्तु मनुष्य के पास अपनी बात व्यक्त करने के लिए सबसे मजबूत माध्यम है, उसकी बोलचाल की भाषा। वह बातचीत कर अपने विचार व्यक्त कर सकता है। यह विशेष योग्यता व क्षमता किसी दूसरे जीव-जंतु या पेड़-पौधे के पास नहीं है। इन सबसे अलग मनुष्य को एक और चीज बड़ी अद्भुत मिली और वह है विचारशील मस्तिष्क। मनुष्य किसी भी चीज को महसूस व समझने के अतिरिक्त सोच व विचार भी कर सकता है। उसका चिंतन सबसे महत्वपूर्ण है, जो मनुष्य को अन्य किसी भी जीवन से बहुत भिन्न व अद्वितीय कर देता है।
वेद-पुराण भी कहते हैं कि 36 करोड़ योनियों के बाद हमें मनुष्य का जीवन मिलता है। दुनिया में कितने ही छोटे-छोटे जीव जंतु, पशु-पक्षी सभी सांस लेते हैं। हमारे चारों ओर अनेक प्रकार का जीवन देखने को मिलता है। ईश्वर की बसाई गई इस दुनिया में कई तरह के प्राणियों का वास है। अगर हम बारीकी से इन सबका विश्लेषण व आकलन करें तो हम पाएंगे क्यों मानव जीवन को ही अनमोल व सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। अगर हम प्रकृति को देखे तो हमें सुंदर-सुंदर हरियाली दिखाई पड़ती है, बड़े-बड़े पेड़ दिखाई देते हैं जो तेज हवा के झोंकों के साथ झूमते हुए हमसे अपनी भाषा में कुछ कहते नजर आते हैं। खुशबूदार बेल व फूलदार पौधे भी रंग-बिरंगे फूलों व अपनी महक से हम सबको अपनी ओर आकर्षित कर मन मोह लेते हैं। इसी से ही ये अपनी प्रकृति व स्वभाव को अभिव्यक्त करते हैं। उनमें अलग तरह का जीवन दिखाई पड़ता है। उनकी भाषा केवल उनकी खुशबू है। वे अपनी महक से ही हमसे बातचीत करते हैं। हम भी अपने घर-आंगन में फूलदार पौधों को लगाते हैं। खुशबूदार बेल रोपते हैं। फूल खिलने पर उनकी सुगंध चारों ओर फैलती है तो मन बहुत प्रसन्न हो उठता है तथा एक अलग तरह की शांति की अनुभूति होती है। ये सब फूल खूबसूरत दिखने के साथ अपनी मौन भाषा के साथ प्रेम व शांति का संदेश देते हैं क्योंकि फूल को प्रेम व शांति का प्रतीक भी कहा गया है।
पेड़-पौधे व फूलों में महसूस करने की अद्भुत क्षमता होती है। लगभग हमारी ही तरह, लेकिन उनकी अभिव्यक्ति का तरीका बहुत अलग है। जो जल्दी हर एक की समझ में नहीं आ सकता है। बिल्कुल उसी तरह जैसे कि किसी व्यक्ति को फूल व उसकी सुगंध का कोई असर नही पड़ता, जबकि दूसरा आदमी रंग-बिरंगे फूलों को देखकर व महक से अभिभूत होकर अपने को रोक नहीं पाता और पौधे के पास जाकर बैठ जाता है। पशु-पक्षी अपनी सांकेतिक भाषा से आपस में बातचीत कर लेते हैं, हमारे लिए यह केवल आवाज है लेकिन यह इनकी अपनी भाषा है। एक पक्षी या कोई चिडिय़ा अपनी आवाज से सैकड़ों चिडिय़ा अपने पास बुला लेती है, गाय या कोई जानवर अपने बच्चे को अपनी आवाज से अपने पास बुला लेती है। उनकी हर आवाज कुछ न कुछ कहती है। सभी पशु-पक्षियों की अपनी अलग आवाज है। ये आपस में बात करने के लिए इसी भाषा का प्रयोग करते हैं। यह बिल्कुल ऐसा ही है कि जैसे हम किसी ऐसी जगह जाते हैं, जहां की भाषा व बोली से हम अंजान है। वहां पर न हम बोल पाते हैं और न ही वहां की भाषा को समझ ही पाते हैं, लेकिन वहां के लोग अपनी भाषा में बातचीत करते हैं। हमें उनकी बातें समझ में नहीं आती केवल आवाज ही सुनाई पड़ती है। पशु-पक्षियों में महसूस करने की भी क्षमता होती है, वह हमारी तरह बीमार भी पड़ते हैं तथा इनको भी हमारी तरह दवा व मरहम की जरूरत पड़ती है। मनुष्य को मिली इस बड़ी सौगात की सबसे बड़ी बात यह है कि उसकी सोच व विचारशील दिमाग दोनों एक दूसरे को बढ़ाने का भी काम करता है।
अगर किसी व्यक्ति की सोच अच्छी, बड़ी व सकारात्मक हुई तो उसका दिमाग भी इसी तरह से बढ़ता जाता है फिर उसकी बु़िद्ध उसका और विस्तार कर देती है, धीरे-धीरे यह एक प्रक्रिया की तरह काम करने लगती है। मनुष्य इस मिले दुर्लभ जीवन के अवसर का लाभ उठा सकता है क्योंकि उसके पास समझने की शक्ति व समझदारी भी है, जो अन्य किसी भी जीवन को नहीं मिली। इसको अपना कर वह अपना जीवन महत्वपूर्ण बना सकता है क्योंकि व्यक्ति अपनी अनुभूति व अभिव्यक्ति से बहुत बलवान है। वैसे तो जीवन में बहुत झंझट हैं, लेकिन यह भी शाश्वत सच है कि यह मानव जीवन भी करोड़ों साल व असंख्य जीवन के झंझटों के बाद मिला है। हमारा जीवन दूसरे किसी भी जीवन से बहुत अलग व महान है क्योंकि हमारे पास दृष्टि, जीभ, विवेक, सोच, समझ व सहनशीलता सब कुछ है। अब सब कुछ हम पर निर्भर है कि हम ईश्वर के इस उपहार स्वरूप जीवन को कितना संभाल पाते हैं तथा अपनी बुद्धि, समझ व सहनशीलता को अपने जीवन में कितना उतार पाते हैं, जिससे कि हमारा यह अमूल्य जीवन तथा इस जीवन की कोई भी घड़ी व्यर्थ व निरर्थक न होने पाये। मानव जीवन देखा जाए तो कठिन भी है क्योंकि अपने इस जीवन में अपने साथ पारिवारिक जिम्मेदारी भी निभानी होती है, साथ ही कहीं से आपसी सामंजस्य भी न टूटने पाये यह भी देखना होता है। पशु-पक्षी व जीव-जंतु दूसरों की भावनाओं को नहीं समझ सकते, हमारे अंदर वह शक्ति है कि हम समझ सकते हैं तथा दूसरों की भावनाएं भी न आहत हो, यह भी ध्यान रखना पड़ता है। जिंदगी की तमाम जिम्मेदारियां कभी-कभी मुिश्कलें व झंझावात भी पैदा कर देते हैं। यह हमारे लिए बोझ नहीं बल्कि हमारा परीक्षण करती हैं और यथार्थ यही है कि जो इन सबको हंसते-मुस्कराते पार कर जाता है, वह अपने जीवन में सफल हो जाता है और उसका जीवन सार्थक हो जाता है। आज जितने भी लोग महान हुए, उनका जीवन भी बिल्कुल आसान नहीं रहा या उनके पास कोई झंझट या समस्या नहीं रही। भारत ऋ षियों व मुनियों का देश कहा जाता है। इन सभी ने मानव जीवन की श्रेष्ठता को जाना तथा इसके मूल्य को अच्छी तरह समझ कर अपने जीवन को सफल किया। इस धरती पर जन्मे कितने ही लोगों ने इस सबक को सीखा, वे जिंदगी की मुश्किलों से तनिक भी नहीं डरे बल्कि उन्होंने इन सबका सामना किया तथा अपने इस महत्वपूर्ण जन्म को कभी विफल नहीं होने दिया और अपने महानतम कार्यों से इस जीवन को और मूल्यवान कर दिया।

Friday, August 28, 2009

सब कुछ बयां कर देती हैं आंखें


आंखें हमारे जीवन में एक बड़ी दौलत की तरह हैं। इन्हीं आंखों से हमें अपने जीवन में कोई प्यारा लगने लगता है तो कोई दुश्मन नजर आता है। कोई अच्छा लगता है तो कोई बुरा। प्रेम, पीड़ा, कष्ट, संयोग-वियोग, शृंगार, वीररस सभी तरह के उद्गार आंखों से ही कभी अश्रु बन कर तो कभी चमक बनकर सब कुछ बयां कर देते हैं।

अंधता या अंधापन, देख न सकने की दशा का नाम है। दृष्टिहीनता भी इसी का नाम है। प्रकाश का अनुभव ना कर सकने से लेकर जो कार्य देखे बिना नहीं किए जा सकते, उसे अंधता कहा जाता है। इसीलिए मरने से पहले अपनी आंख दान करने से आप किसी दूसरे की जिंदगी में रोशनी फैला सकते हैं।
आंखें हर किसी के जीवन की शोभा हैं। हम पैदा होते ही सबसे पहले अपनी आंखों से ही इस दुनिया को देखना शुरू करते हैं। हम अपने माता-पिता, भाई-बहनों व अन्य रिश्तों को भी अपनी नवजात अवस्था से ही इन्हीं आंखों से पहचानना शुरू कर देते हैं। रंगों की पहचान भी आंखों से ही करते हैं। हमारे जीवन में आंखों का बहुत ही महत्व है। हमारे शरीर की सुंदरता में भी आंखों का बहुत योगदान होता है। खासकर नारी की सुंदरता को कवि अपनी कलात्मक शैली के द्वारा वर्णन करते हैं जिसमें भिन्न-भिन्न प्रकार की आंखें नारी की सुंदरता को अलग-अलग तरीके से वर्णित व सुशोभित करती हं।
हमारा पूरा का पूरा व्यक्तित्व हमारी आंखों से दिखाई दे जाता है। हम अगर कभी कुछ छिपाना भी चाहें तो हमारी आंखें सब कुछ बयां कर देती हैं। हमारा आत्मविश्वास भी इन्हीं आंखों से ही झलकता हुआ दिखाई दे जाता है। अगर हम किसी दूसरे व्यक्ति पर अपना विश्वास जमाना चाहते हैं या उस पर अपना असर छोडऩा चाहते हैं तो हम उसकी आंखों में आंखें डालकर बात करते हैं, कमजोर व झूठा आदमी ऐसा नहीं कर सकता हैं। इसी प्रकार किसी भी प्रकार की खुशी या कोई गम हो, सब कुछ आंखों से ही प्रकट हो पड़ता है। जहां क्रोध के समय आंखें आग की तरह लाल हो जाती हैं, वहीं खुशी के समय आंखों में एक चमक देखी जाती है। हिंदी भाषा में कितने ही मुहावरे इन्हीं आंखों पर लिखे गये हैं। आंखों में शर्म आ जाना, आंखों द्वारा अपने क्रोध व प्यार को दर्शाना, गुस्से में अपनी आंखें लाल-पीली कर लेना, आंखें निकालना, आंखों में डर लाना, आंखों से किसी को डराना, आंखों को बन्द कर लेना, आंखें फेर लेना, आंखों में बिठाना, आंखों का तारा, आंखों में खटकना, आंखें सेंकना, आंखें चार हो जाना, आंखों में तस्वीर बसाना, आंखें चुराना न जाने कितनी ही तरह से हम अपनी भावनाओं को आंखों से व्यक्त करते हैं। जिस प्रकार से किसी व्यक्ति की आंखें उसके बारे में हमें बताती हैं, उसी प्रकार हमारी आंखें भी उसको पढऩे का काम करती हैंं। जिससे ही हम उसके बारे में सही-सही पता लगा सकते हैं क्योंकि किसी का अवलोकन व सूक्ष्म निरीक्षण भी हम अपनी इन्हीं आंखों से ही करते हैं। अब हम अपनी आंखों से ही व्यक्तियों की पहचान करने लगते हैं। अच्छे और बुरे का पता भी इन्हीं आंखों से करते हैं। कभी-कभी किसी से बात करने के लिये आंखों की मौन भाषा का प्रयोग किया जाता है। नयनों की इसी मौन भाषा से कितने ही वार्तालाप हो जाते हैं। किसी प्रेमी और प्रेमिका के जीवन में इसका कितना प्रयोग है, यह वह ही जानते हैं। आंखों की भाषा से ही मौन प्रेषण, मौन स्वीकृति तथा मौन सहमति भी हो जाती है, यहां पर बातें सिर्फ आंखें ही करती हैं। बाकी सब कुछ मौन रहते हुये एक दर्शक की ही भांति चश्मदीद गवाह बन कर रह जाता है। जिंदगी में आगे बढऩे का सपना भी सबसे पहले हमारी आंखें ही देखती हैं। हमारे आस-पास विभिन्न आकृतियों की आंखों वाले व्यक्ति रहते हैं। किसी की छोटी आंखें, किसी की बड़ी आंखें, किसी की काली आंखें, और किसी की भूरी आंखें। इन्हीं आंखों से ही कोई व्यक्ति मासूम, कोई निर्दयी और कोई धूर्त भी नजर आता हैं। जहां बच्चों की आंखों से उनका भोलापन झलकता है, किसी नवयुवक की आंखों में ऊर्जा व आगे बढऩे का सपना दिखाई पड़ता है। किसी बुजुर्ग की आंखों से उनकी जिंदगी के अनुभव का अहसास होता है। सबकी आंखें कुछ न कुछ कहती हैं। बॉडी लैंग्वेज के जानकार दूसरों की आंखों की बनावट के आधार पर उनके पूरे व्यक्तित्व का वर्णन कर देते हैं। यही आंखें हमारे मुख के आभामंडल को बढ़ाने का भी काम करती हैं। इन्हीं आंखों की बनावट से ही कोई व्यक्ति सुंदर कहा जाता है तो कोई कुरूप हो जाता है। नयनों की अलग-अलग बनावटों को ही अलग नाम दिये गये। जिसमें हिरनों जैसी आंखों वाली, कमल जैसी आंखों वाली, सागर की तरह आंखों वाली, नीली आंखों वाली, नशीली आंखों वाली तथा नशे की प्याली जैसी आंखें नारी के अपरिमित सौंदर्य के आकर्षण की साक्षी बनती हैं।
फिल्मी दुनिया में भी इन्हीं आंखों पर कई गीत लिखे गये। फिल्मी सुंदरियों के सौंदर्य को उनकी आंखों की सुंदरता से आंका गया। कई फिल्मों के टाइटल भी 'आंखें रखा गया। सरहद पर तैनात फौजी भी २४ घंटे सीमा की चौकसी के लिये हर वक्त अपनी आंखें चौकस व चौकन्ना रखते हैं। अदालतें भी किसी भी घटना में चश्मदीद गवाह की गवाही को अति महत्वपूर्ण मानती हैं। हममें से बहुत लोग अपनी मृत्यु के बाद अपनी आंखों को दान कर जाते हैं ताकि जिनके पास आंखें नहीं हैं वे लोग भी अब उनकी आंखों से इस दुनिया को देख सकें। इस धरती की प्राकृतिक सुंदरता को देखने व महसूस करने के लिये हम आंखों से ही काम लेते हैं। जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव को हम जीवन की आंख मिचौली भी कहते है। हमारी आंखों के ठीक बीच में माथे पर का स्थान त्रिनेत्र का स्थान कहा गया है। भगवान शिव ने जब अपना तीसरा नेत्र खोला तो दुनिया में प्रलय ही आ गई। इसी स्थान पर आज्ञा चक्र भी होता है। कुंडलिनी ध्यान में हम इसी स्थान को जाग्रत करते हैं तथा मस्तक के इसी स्थान पर हम टीका व रोचना आदि लगाते है जो माथे को तो सुशोभित करता ही है तथा इससे ऊर्जा भी मिलती है। आज्ञा चक्र सक्रिय होने तथा ज्ञान चक्षु खुल जाने से ही हमें अपने पूरे जीवन का वास्तविक दर्शन भी समझ में आने लगता है। इस प्रकार हम आत्मा और परमात्मा के बीच सेतु बनाने में भी सफल होते हैं। महाभारत काल में भी जहां धृतराष्ट्र की आंखों में रोशनी नहीं थी, वहीं उनकी पत्नी गंधारी भी सारे जीवन अपनी आंखों में पट्टी बांधे रही। इस तरह उन्होंने भी अपना सारा जीवन अंधत्व में ही जिया। अपने अंधेपन के कारण ही धृतराष्ट्र महाभारत के युद्ध मैदान कुरुक्षेत्र न जा सके और फिर युद्ध का आंखों देखा हाल संजय ने अपनी दिव्य दृष्टि से सुनाया। आज जो कुछ भी हम महाभारत के बारे में जानते है वह सब संजय की अलौकिक दिव्य दृष्टि की ही बदौलत है। आंखें हमारे जीवन में एक बड़ी दौलत की तरह हैं। इन्हीं आंखों से हमें अपने जीवन में कोई प्यारा लगने लगता है तो कोई दुश्मन नजर आता है। कोई अच्छा लगता है तो कोई बुरा। प्रेम, पीड़ा, कष्ट, संयोग-वियोग, श्रंगार, वीररस सभी तरह के उद्गार आंखों से ही कभी अश्रु बन कर तो कभी चमक बनकर सब कुछ बयां कर देते हैं। खुली आंखों से तो हम सब कुछ देखते हैं, हर एक व्यक्ति के बारे में और हर एक स्थान के बारे में जान लेते हैं, वहीं आंखों को बंद कर ध्यान में बैठने से हमें अपने बारे में सब कुछ मालूम हो जाता है।

Friday, August 21, 2009

सच का कबूलनामा आखिर किसके हित में?



ऐसा लगता है कि इस गेम शो की पूरी पृष्ठभूमि केवल सेक्सुअल रिश्तों पर ही आधारित है। हो सकता है कि कभी जाने-अनजाने अगर किसी से गलती हुई हो, उसके परिवार वालों को इसकी जानकारी भी हो और उसे माफ भी कर दिया हो या स्वयं उसने पाश्चाताप कर लिया हो, फिर यह सच गुजरी जिंदगी का सच नहीं बल्कि गड़े मुर्दे उखाडऩे जैसा हुआ।

कहा गया है कि सत्य महान है, हमें सच बोलना चाहिए क्योंकि सत्य की ही जीत होती है, परन्तु आजकल टेलीविजन के एक चैनल पर अलग तरह का एक बिंदास गेम शो 'सच का सामना प्रसारित किया जा रहा है। यह गेम शो अमेरिका में प्रसारित 'मोमेन्ट ऑफ ट्रुथ पर आधारित है। इस गेम शो का एक सच यह भी है कि इसका कंटेन्ट काफी विवादास्पद है, जिससे कार्यक्रम के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में दो याचिकाएं भी दाखिल की गईं,परंतु कोर्ट ने इसकी सामाजिक, नैतिक जिम्मेदारी व पहरेदारी करने से इंकार कर दिया।
इस गेम शो की खास बात यह है कि इसमें प्रतिभागियों को एक करोड़ रुपये जीतने के लालच में अपने जीवन से जुड़े २१ प्रश्नों के उत्तर देने होते हैं। इस कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्ता राजीव खंडेलवाल के अनुसार प्रतिभागियों को एक पॉलिग्राफिक टेस्ट से गुजरना पड़ता है, जिसमें प्रतिभागियों द्वारा दिए गए उत्तर के सच और झूठ का फैसला पॉलिग्राफिक टेस्ट में प्रतिभागियों के रिकॉर्ड किये गये ब्लड प्रेशर, हार्ट बीट, पल्स रेट तथा शरीर में होने वाली उथल-पुथल के आधार पर किया जाता है। इस दौरान प्रतिभागियों से ५० प्रश्न पूछे जाते हैं जिसमें से २१ प्रश्नों का सामना मुख्य गेम शो में करना होता है। अब देखने वाली बात यह है कि प्रतियोगिता के दौरान पूछे जाने वाले प्रश्न काफी हद तक प्रतिभागी के बेहद निजी जीवन से जुड़े होते हैं। जिसमें प्रतिभागी को सच का सामना करने की क्षमता, साहस व निर्भीकता का परिचय देना होता है। इस दौरान ज्यादातर सवाल सेक्सुअल रिलेशनशिप व शारीरिक संबंधों पर आधारित होते हैं। प्रतिभागियों को बन्द कमरे के सच का खुलासा इस गेम शो के माध्यम से अपने परिवार, सगे- सम्बंधियों के सामने करना होता है। जैसे-जैसे कार्यक्रम आगे बढ़ता है, प्रश्नों का स्तर भी सिमटकर काफी संवेदनशील होता जाता है।
ऐसा लगता है कि इस गेम शो की पूरी पृष्ठभूमि केवल सेक्सुअल रिश्तों पर ही आधारित है, जिंदगी का सच केवल एक ही पहलू पर समेट दिया गया है लेकिन सच यह भी है कि जिंदगी का केवल एक ही पहलू नहीं है। हो सकता है कि कभी जाने-अनजाने अगर किसी से गलती हुई हो, उसके परिवार वालों को इसकी जानकारी भी हो और उसे माफ भी कर दिया हो या स्वयं उसने पाश्चाताप कर लिया हो, फिर यह सच गुजरी जिंदगी का सच नहीं बल्कि गड़े मुर्दे उखाडऩे जैसा हुआ। कुल मिलाकर यह पूरा गेम शो जिंदगी के ऐसे सच का खुलासा करवाने तथा अपनी इज्जत की खुली नुमाइश का आमंत्रण है जो अत्यंत व्यक्तिगत होते हुये सार्वजनिक कर दिये जाते हंै, क्योंकि प्रतिभागी के साथ उसी के सगे-संबंधी, मित्र या रिश्तेदार ही होते हैं तथा टीवी पर व्यक्तिगत जिंदगी का पर्दाफाश करना पूरे परिवार की एकता व सामंजस्य के लिये बेहद खतरनाक है। शायद इसीलिए इस गेम शो को अन्य देशों में प्रतिबंधित कर दिया गया है। कार्यक्रम देखने वाले दर्शकों के परिवार के सदस्यों के बीच अक्सर ऐेसे सच के सामने की बात पर नोक-झोंक हो जाना कोई बड़ी बात नहीं। गंभीर सच खुलने से परिवार में कोई बड़ी घटना हो जाय तो भी कोई आश्चर्य नहीं। पिछले हफ्ते नोएडा में रहने वाले एक सिक्योरिटी गार्ड की जिंदगी पर इस रियलिटी गेम शो का इतना असर हुआ कि वह फांसी लगाकर आत्महत्या करने पर मजबूर हो गया। हुआ यूं कि उक्त सिक्योरिटी गार्ड अपनी पत्नी के साथ सच का सामना कार्यक्रम टीवी पर देख रहा था। कार्यक्रम के बाद उसने पत्नी से शादी के पहले का सच जानना चाहा, पहले तो उसकी पत्नी ने इंकार कर दिया, परंतु जब पति ने कसम देकर उस पर दबाव बनाया और उसे कुछ भी न कहने का आश्वासन दिया। इस पर उसकी पत्नी ने ऐसा सच कबूला कि गार्ड ने आत्महत्या करना ही मुनासिब समझा।
सच का सामना ऐसा गेम शो है जो अमेरिकी सोच व संस्कृति पर आधारित है जो कहीं से हमारी संस्कृति के साथ मेल नहीं खाता, क्योंकि गेम शो में पूछे जाने वाले प्रश्न वहां के वातावरण व कल्चर के आधार पर बनाये गये हैं जो यहां के परिवेश से मेल नहीं खाते। हम सब यहां पर पारिवारिक परिवेश में रहते हैं, भारत में जिंदगी का ऐसा खुलापन संयुक्त परिवार की धज्जियां उड़ा सकता है। इस प्रतियोगिता में होने वाले सभी प्रतिभागी जिंदगी के सच का सामना करने के लिये अपने परिवार के बड़े-बुजुर्ग तथा बड़े हो चुके बेटे-बेटियों के साथ एक करोड़ रुपये जीतने के लालच मे जाते हैं लेकिन लौटते वक्त इनामी राशि को तो छोड़ दीजिए, उनके परिवार का भी बिखराव हो जाय, इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं होगा। ऐसे कार्यक्रमों का निर्माण निश्चित रूप से ज्यादा से ज्यादा दर्शकों को अपनी ओर खींचना, ढेरों विज्ञापन बटोरना महज चैनल की टीआरपी बढ़ाने से ज्यादा नहीं है। इस तरह के कार्यक्रम पेश करना दर्शकों के किस तरह से हित में है पता नहीं।

Sunday, August 16, 2009

...तब हर तरफ हिन्द की जय और जय भारत होगा


हम सभी देश के सच्चे सपूत व अच्छे नागरिक होने की जिम्मेदारी अपने आप समझते हुये देश के अंदर रहकर ही अन्य कई तरीकों से देश की सेवा कर सकते हैं। हम सब मिलकर एक साथ रहें तथा एक-दूसरे के काम आ सकें, किसी भी असहज स्थिति में भी हममें से कोई भी अपना संयम व धैर्य न खोये बल्कि भारत की एकता व अखंडता को हरदम मजबूत करें तथा देश की तरक्की के लिये अपना बहुमूल्य योगदान दें। सही मायनों में तब हर तरफ हिन्द की जय होगी और जय भारत होगा।

देश की आजादी के लिए कितने ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अपनी जान की परवाह न करते हुये देश की बलिवेदी पर कुर्बान हो गये। उनके दिमाग में केवल देश की आजादी का ही जुऩून था और देश के लिये कुछ कर गुरजने का जज्बा। स्वतंत्रता दिवस के दिन जब पूरे भारत वर्ष में तिरंगा लहरता है, तब पूरा देश उन देशभक्त सेनानियों व सैनिकों के जज्बे को सलाम करता है। मुकाबला चाहे मुगलों से रहा हो या अंग्रेजों से हुआ हो, चाहे सियाचिन का युद्ध हो या फिर कारगिल की कहानी। जब कभी भी देशभक्ति गीतों या फिल्मों में हम अपने सैनिकों को देश के दुश्मनों से लड़ते हुये देखते हैं तो हर हिन्दुस्तानी का खून खौलने सा लगता है, नसें तन जाती हैं, मुठ्ठियां भिंच जाती हैं। तब शहीदों के बलिदान को याद कर दिल यही कहता है कि काश! हमें भी सरहद पर कुछ करने का मौका मिला होता तो हम भी किसी से पीछे नहीं रहते।
देश की रक्षा के लिये तैनात सैनिकों की तरह अपनी माटी पर मर मिटने वालों की कोई कमी नहीं है। फौजियों व सैनिकों का दायित्व है कि देश के हर नागरिक की रक्षा व सुरक्षा मुहैया कराना। ऐसे में हर भारतीय नागरिक का कत्र्तव्य बन जाता है कि हम सब देश के अन्दर की जिम्मेदारी संभालें। अगर हम सैनिक नहीं बन पाये, सरहद पर नहीं पहुंच पाये तो भी जरूरी यह नहीं कि देश की सेवा सरहद पर केवल सैनिक बनकर ही की जा सकती है। अगर हमारे अन्दर देश सेवा की ललक है तो हम अपना काम करते हुये भी देश के सच्चे सेवक बन सकते है। हमारे देश का किसान खेती कर अन्न उगाकर अपनी एक अलग तरह से जिम्मेदारी का निर्वहन करता है। हम उसी का पैदा किया हुआ अन्न खाकर ही पलते व बढ़ते हैं। देश की रक्षा के लिए सरहद पर तैनात फौजियों के लिए भी अनाज किसान की बदौलत ही पहुंचता है। इस तरह किसान भी फसल उगाकर देश की सेवा करता है। अगर एक किसान के कन्धे पर बन्दूक न सही पर वह अपने कन्धे पर हल रखकर अपने देश सेवा के जज्बे को पूरा करता है। देश की प्रगति के दो मजबूत आधार है एक हैं-हमारे देश के जवान यानी कि सैनिक और दूसरा है किसान। इसीलिए हमारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान-जय किसान का नारा भी दिया। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए एक और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई जी ने भी इसी नारे के आगे जय विज्ञान भी जोड़ दिया। क्योंकि विज्ञान की प्रगति के बिना आज किसी भी देश की उन्नति की कल्पना नहीं की जा सकती। इन्हीं वैज्ञानिकों व इंजीनियरों की सोच से ही आज हमारे पास एक से एक नये आधुनिक तकनीक के हथियार व मशीनें हैं। इनके ही द्वारा ईजाद किये हुए नये-नये स्वचलित हथियार सैनिकों के पास हैं, जिनसे वे देश की सरहद पर दुश्मनों से मोर्चा लेने तथा उन पर फतह कर सकने में सफल होते हैं। अगर ये इंजीनियर या वैज्ञानिक सैनिक नहीं बने तो क्या हुआ! ये सब अपने तरीके से देश की सेवा में हमेशा प्रयत्नशील हैं।
देश सेवा में हमारे देश का प्रेस व मीडिया तथा इससे जुड़े पत्रकार बन्धु भी अपनी संवेदनशील जिम्मेदारी के निर्वहन में कभी पीछे नहीं रहते। इन सबकी २४ घंटे की अबाधित सेवा से ही हमें दूर-दराज तथा देश-विदेश की ताजा खबरें टीवी, रेडियो व समाचार पत्रों के माध्यम से हमें मिलती हैं। लोक हित व देश हित के लिए किसी भी संदेश व घटना के बारे में लोगों को अवगत कराना इनके दायित्व में आता है। ये सब देश-प्रेम की भावना से ओत-प्रोत होते हुये अपना काम बखूबी करते जाते हैं। इनको भी सैनिक न बन पाने का दिल में कोई मलाल नहीं, क्योंकि सीमा पर फौजी का हथियार बंदूक है तो देश के अंदर इनका हथियार इनकी कलम, इनका अखबार या इनकी आवाज है। ये देश सेवा के अपने जज्बे को पूरा करते हैं। हमारे देश का लेखक भी सीमा पर डटकर मुकाबला करने वाले सैनिकों से पीछे नहीं रहना चाहता। इसीलिए वह अपनी कलम से देशभक्ति गीत, वीर रस की कविताएं, प्रेरणादायक लेख व रचनाएं लिखता है। जिनको पढ़कर हम अपना सर्वस्व बलिदान करने में पीछे नहीं देखते। इस तरह एक लेखक, पत्रकार, कवि व रचनाकार भी अपनी कलम से देश सेवा में लगा रहता है।
किसी भी संदेश या घटना को हमारे देश में फिल्मों या फिल्मी गीतों के माध्यम से भी अभिव्यक्त किया जाता है। कितने फिल्म निर्माताओं ने देश की एकता व अखंडता के लिये देशभक्ति फिल्मों का निर्माण किया, जिनमें से कुछ को तो देश के अच्छे व सच्चे सपूत का लेबल भी मिला। इसका उदाहरण है कि फिल्म अभिनेता मनोज कुमार को आज भारत कुमार के नाम से जाना जाता है। इस तरह से देश प्रेम के अपने जज्बे को अभिनय से भी दिखाया जा सकता है। हमारे देश के अन्दर काम करनें वाले कई समाजसेवी संगठन ऐसे हैं, जो लोग देश सेवा की सच्ची भावना से ही गरीबों, बेसहारा बच्चों के पोषण, शिक्षा, चिकित्सा व सामूहिक विवाह जैसे कामों में अपना उल्लेखनीय योगदान करके अपने राष्ट्रसेवा के जज्बे को पूरा करते हैं।
हमारे देश के खिलाड़ी भी पूरे विश्व पटल पर अपने खेल से भारतीय परचम को फहराने में पीछे नही हैं। हम सब भारत के नागरिक हैं, हम सबके अन्दर अगर देश सेवा की ललक है तो यह जरूरी नहीं कि इसके लिए केवल सैनिक ही बना जाय, फौजी वाली वर्दी ही पहनी जाय, सरहद पर ही जाया जाय और दुश्मन से ही दो-दो हाथ किये जाए।
हम सभी देश के सच्चे सपूत व अच्छे नागरिक होने की जिम्मेदारी अपने आप समझते हुये देश के अंदर रहकर ही अन्य कई तरीकों से देश की सेवा कर सकते हैं। हम सब मिलकर एक साथ रहें तथा एक-दूसरे के काम आ सकें, किसी भी असहज स्थिति में भी हममें से कोई भी अपना संयम व धैर्य न खोये बल्कि भारत की एकता व अखंडता को हरदम मजबूत करें तथा देश की तरक्की के लिये अपना बहुमूल्य योगदान दें। सही मायनों में तब हर तरफ हिन्द की जय होगी और जय भारत होगा।