Friday, May 29, 2009

जिंदगी के सफर में परेशानियों से घबराएं नहीं



सभी लोग अलग-अलग तरह से अपनी-अपनी यात्राएं कर रहे हैं। यात्रा पूरी करने पर ही हमें अपनी-अपनी मंजिल मिलनी है। रास्ते व साधन सबके अलग परन्तु मंजिल सबकी एक ही है। कब किसको मिलती है ये अलग बात है। कभी-कभी जब हम कोई यात्रा पर होते हैं तो रास्ते तथा साधन आदि में कुछ तकलीफ या कष्ट भी मिल सकता है। यात्रा समाप्त होने के बाद ये कष्ट ज्यादा देर तक नहीं रहते।

मनुष्य अपने पूरे जीवन काल में तमाम तरह की यात्राएं करता रहता है। कभी अकेले तो कभी परिवार के साथ कभी बिजनेस टूर तो कभी घूमने देशाटन आदि के लिए। वैसे देखा जाये तो हमारी पूरी जिंदगी ही संपूर्ण यात्रा है। हमारी इस जीवन यात्रा का टूर ऑपरेटर ऊपर वाला है और उसने पहले से ही जीवन की सभी यात्राएं, उनकी तिथियां तथा उनके साधन सुनिश्चित कर दिये हंै। हम सबकी अलग-अलग यात्राएं तय कर दी हैं। बचपन से ले कर किशोरावस्था तक की यात्रा, शिक्षा की यात्रा, नौकरी रोजगार की यात्रा फिर परिवार भरण पोषण में मनुष्य लगा रहता है। सबके साधन मात्र अलग-अलग हैं। सभी लोग अलग-अलग तरह से अपनी-अपनी यात्राएं कर रहे हैं। यात्रा पूरी करने पर ही हमें अपनी-अपनी मंजिल मिलनी है। रास्ते व साधन सबके अलग हो सकते हंै परन्तु मंजिल सबकी एक ही है। कब किसको मिलती है ये अलग बात है। कभी-कभी जब हम कोई यात्रा पर होते हैं तो रास्ते तथा साधन आदि में कुछ तकलीफ या कष्ट भी मिल सकता है। यात्रा समाप्त होने के बाद ये कष्ट ज्यादा देर तक नहीं रहते। उसी प्रकार जीवन की इस यात्रा में कई प्रकार के दुख व कष्ट आदि का सामना हो सकता है। हमें इन्हें टाइम बीइंग मानकर ध्यान नहीं देना चाहिये।
इस पूरी यात्रा के दौरान हमको अन्य सह यात्री भी मिल जाते हैं लेकिन हमारी किसी दूसरे के साथ किसी भी तरह की कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होनी चाहिए, क्योंकि सबकी अपनी अलग यात्रा है। कोई हमारे साथ थोड़ी दूर तक चलता है और साथ छूट जाता है फिर नये मुसाफिर मिलते है, थोड़ा साथ निभाते हंै और चले जाते है। हम अपने ही पूरे परिवार के साथ होते हैं। परिवार में ही सब लोग अपनी अलग-अलग यात्रा पर होते हैं सबकी अपनी निजी यात्रा है। एक दूसरे से किसी का कोई लेना देना नहीं है। बचपन में पढ़ाई दौरान मित्रता, नौकरी रोजगार के समय की मित्रता, सब अलग-अलग साथी मिलते गये बिछुड़़ते गये परन्तु हम अपनी आगे की यात्रा में बढ़ते गये। कोई किसी तरह जीता है, कोई अलग तरीके से जीता है सबके जीने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं परन्तु लक्ष्य सबका एक ही है। सबको अपना जीवन जीना है। हमारा किसी के साथ कोई द्वन्द भी ठीक नहीं है। हम किसी पर अपनी सोच व जीने का तरीका लाद भी नहीं सकते। यह तो यूं था कि हमें जिन्दगी जीने के लिए रोजी रोटी का जुगाड़ व व्यवस्था करनी थी, रहने के लिए छत का इंतजाम करना था। हम इन्हीं दोनों की व्यवस्था करने में ही अपना सम्पूर्ण समय देने लगे। इसके बाद अपनी तिजोरियों को बढ़ाने लगे तथा अपनी कोठियां बनाने में लग गये तथा इन्हीं को अपना मूल उद्देश्य समझ बैठे।
जिस प्रकार भगवान श्री कृष्ण जी ने श्रीमद्भगवत गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुये कहा कि तुम अपने साथ क्या लाये थे और अपने साथ क्या ले जाओगे? यह बहुत सार पूर्ण बात हमारे सम्मुख है हमें इस बात पर कोई संदेह नहीं और न ही कोई सवाल है फिर भी हम सब लोग दुकान, मकान, जमीन व जायदाद के चक्कर में फंसे हुये हैं। जब कोई दो बच्चे आपस किसी खिलौने के लिए लड़ते हैं, रोते हंै तथा शोर मचाते हैं तो हम उनसे कहते हैं कि क्या बच्चों की तरह खिलौने के लिए रो रहे हो, आपस में झगड़ रहे हो। हम यह जानते हैं तथा मानते हंै कि हम अपने साथ कुछ नहींं ले जाएंगे फिर भी व्यर्थ परेशान हो रहे हैं। ये इस प्रकार से हो रहा है कि जैसे ट्रेन में सफर के दौरान जब किन्हीं दो यात्रियों के बीच सीट को लेकर विवाद हो जाता है। वह भी इतनी कि नौबत मारपीट की भी आ जाती है। जबकि दोनों को अच्छी तरह मालूम है कि यात्रा समाप्त होने पर दोनों में से कोई भी अपने साथ सीट उखाड़ कर नहीं ले जायेगा, फिर भी हम लड़े जा रहे हंै। झगड़ा कर रहे हंै। वस्तुत: हम अपनी यात्रा के मजे को खराब कर रहे हैं। हम समझौता नहीं करते। हम इसको अपनी बपौती मानकर अपने आप को इसका मालिक बना बैठे हैं। हम सब अपनी यात्राएं अपने मजे के लिए तथा चित्त के आन्नद के लिए करते हंै परन्तु इस अमूल्य जीवन यात्रा का सच्चा स्वाद नहीं चख पा रहे हंै। हम भूल जाते हंै ंकि यह हमारी इंडिविजुवल यात्रा है। हमारी किसी के साथ कोई हिस्सेदारी नहीं और कोई बंटवारा भी नहीं है। कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यक्ति का जीवन न तो बांट सकता है और न ही अपना जीवन किसी के साथ बंटा सकता है सबके पास अपना निजी जीवन है, जिसके पास जितना है उतना उसे जीना है तो क्यों न हम इस हंस कर जिएं और उल्लास मनाएं। यहां पर एक बात यह गड़बड़ हो गई की मनुष्य ने जीवन मिलने के बाद अपने अलग उद्देश्य बना लिए तथा अपने दूसरे लक्ष्य निर्धारित कर लिये उसका आध्यात्मिक दिशा से रुझान भी खत्म हो गया है। ऐसा भी नहीं कि उसे ईश्वर पर विश्वास न हो, परन्तु वह इतना महत्वाकांक्षी हो गया कि वह अपने मौलिक जीवन का उद्देश्य ही भुला बैठा।आज वह मानव इस भौतिकवाद के भ्रामक जाल में फंसता जा रहा है। अपने जीवन के अमूल्य क्षणों का सौदा करता जा रहा है। आज का मनुष्य बहुत बड़ा व्यवसायी हो गया है। एक क्षण में बहुत बड़े-बड़े सौदे व बिजनेस डील होती जा रही है लेकिन साथ ही साथ एक सबसे बड़ी भूल भी हो रही है कि आज व अभी का जो समय, क्षण, मिनट, सेकेंड व तारीख गुजर रही है वह हमको दोबारा इस जीवन में नहीं मिल पायेगी। यह अमूल्य समय हमारे जीवन में से ही कम होता जा रहा है और हम निरन्तर समाप्ति को ओर ही बढ़ रहे हैं। क्योंकि जिसका प्रारम्भ हो चुका है उसकी अन्त की प्रक्रिया भी शुरू हो जाती है। इसलिए हम जीवन का रस पान करने का कोई भी अवसर न चूकें बल्कि जीवन में ज्यादा से ज्यादा मौके खोजें जिनमें हम उन्मुक्त रूप से मस्त होकर अपनी पूरी निजता के साथ जी सकें। हमसे ऐसी कोई भूल भी नहीं होनी चाहिये कि बाद में हमे कुछ पछतावा या निराशा हो क्योंकि यह जीवन बहुत छोटा है और काम बहुत ज्यादा। कहीं कुछ जरूरी काम छूट न जाये। जिस प्रकार कुछ लोग यात्रा के दौरान हेड फोन या ईयर फोन लगाकर गाना सुनते हुये यात्रा का पूरा आन्नद लेते हंै उसी प्रकार हम भी जीवन यात्रा के समय ईश्वर का गुणगान, स्तुति तथा आध्यात्मिक बात भी करते चलें।
अपनी इस जीवन यात्रा की शुरूआत तो हमारे जन्म से ही शुरू हो गयी थी। शुरूआत तो हमें पता है लेकिन इसका अन्त कहां है इस बात का किसी को भी पता नहीं। बस हम सबको चलते जाना है अपनी इस पूरी यात्रा के दौरान हमें सजग व चैतन्य भी रहना है क्योंकि हमें किसी को भी नहीं मालूम कि हमारा आखिरी स्टेशन कब और कौन सा है? इसलिए पूरी तैयारी पहले ही कर ली जाये, सब काम निपटा कर बिल्कुल निश्चिंत होकर रहना है। कब आवाज आ जाये और छोड़ दें अपनी गाड़ी।

Sunday, May 24, 2009

बचपन का विस्तार है हमारा जीवन





बचपन में हमने जो खेल खेले, किताबें पढ़ीं, जितना भी अपनी संस्कृति के बारे में जाना, आज सब कुछ उसी का विस्तार ही है। हमने उसी में विकास किया है। हमारे बचपन काल के १२ साल बहुत सेंसबिल हैं। बचपन में बच्चे जो कुछ भी देखते हैं, पढ़ते हैं या किसी को करते हुए देखते हैं, तो वह उनके भीतर बहुत गहरे से जुड़ जाता है अक्सर किसी को पता ही नहीं चलता कि अंदर ही अंदर सब कुछ रिकॉर्ड हो रहा है।
हमारा आज का जीवन हमारे बचपन से कहीं न कहीं से जुड़ा हुआ है बहुत गहराई में जाने पर ही इसका पूरा रहस्य समझा जा सकता है। हम आज जो भी कर रहे हैं वह सब यूं ही नहीं हो रहा है, उसका संबंध हमारे बचपन से ही है। बचपन में हमने जो खेल खेले, किताबें पढ़ीं, जितना भी अपनी संस्कृति के बारे में जाना, आज सब कुछ उसी का विस्तार ही है। हमने उसी में विकास किया है। हमारे बचपन काल के १२ साल बहुत सेंसबिल हैं, हम जो कुछ भी देखते हैं, पढ़ते हैं या किसी को करते हुए देखते हैं, तो वह हमारे भीतर बहुत गहरे से जुड़ जाता है अक्सर किसी को पता ही नहीं चलता कि अंदर ही अंदर सब कुछ रिकॉर्ड हो रहा है।
अनजाने में ही हम बड़े होते-होते उसी की एक कॉपी की तरह बन जाते हैं। हमें किसी भी तरह का आभास नहीं होता कि हमने अपने बचपन में इसी का हिस्सा सीखा होता है। हम अब उसी को आगे बढ़ाये चले जा रहे हैं। इस संबंध में हुए कई शोधों में भी यही निष्कर्ष निकला कि कोई भी व्यक्ति जो भी कार्य करता है उसका उसके बचपन से गहरा संबंध होता है। फ्रायड ने भी इसी तरह का एक शोध किया, जिसमें उन्होंने कई बच्चों को अलग-अलग ग्रुप में रखा। किसी को डॉक्टर का परिवेश दिया तो किसी को इंजीनियर और किसी को क्रमिनल का। कुछ समय बाद देखा कि उन बच्चों में उसी तरह का रुझान था। बचपन में बच्चे जो कुछ भी देखते हैं उनके दिमाग में उसका सीधा असर पड़ता है। इसीलिए देखा जा सकता है कि प्राय: हम बच्चों के सामने कुछेक बातें नहीं करते, कुछ काम नहीं करते। हमें भी मालूम है कि कहीं अमुक बात या काम का बच्चे पर गलत असर न पड़े। इसीलिए पूर्वकाल में इस बात का पूरा ध्यान दिया जाता था। बच्चों को बचपन से ही अच्छे संस्कार के साथ संस्कृति की भी सीख दी जाती थी और बच्चा बड़े होने के साथ-साथ सुसंस्कारवान तथा सुसंस्कृत होता जाता था। वह पूर्वकालिक योग व ध्यान के प्रति भी अनजान न था, बल्कि बहुत गंभीर होता था। समय के साथ-साथ सब कुछ विस्तृत होता चला गया। एक चीज हमको मिली हुई थी, केवल उसे फैलाव देना होता था।
परन्तु आज के इस तकनीकी युग में बहुत कुछ बदल चुका है, यहां तक कि बच्चों के खेल खेलने के तरीके भी बदल गये। पहले के समय में कई बच्चे एक साथ कोई खेल खेला करते थे, जिससे उनके शरीर और दिमाग का विकास होता था तथा आपसी मेल-जोल भी बढ़ता था, परन्तु आज कम्प्यूटर, इंटरनेट से गेम खेलकर यह बच्चे अपना चिड़चिड़ापन बढ़ा रहे हैं। इससे उनका अकेलापन भी बढ़ रहा है। ये सब एक बीमारी की तरफ बढ़ रहे हैं। बच्चों में प्रारम्भ से ही ऊर्जा का विकास होना शुरू हो जाता है। जैसे-जैसे इसकी प्रक्रिया गहरी होती जाती है, मन में स्थिरता आती जाती है। बच्चों का चंचल मन अब सुदृढ़ व स्थिर होने लगता है। जैसे-जैसे बच्चे की उम्र बढ़ती जाती है इससे मिलने वाले परिणाम व लाभ भी गुणात्मक दिशा में बढ़ते जाते हैं।
अभी तक हमने देखा है कि अपना देश पूरे विश्व में आध्यात्मिक दिशा व उपलब्धियों के बारे में जाना जाता रहा है, योग, ध्यान संस्कृति हमारे देश की धरोहर की तरह है। यह अपने देश का सम्मान है पश्चिमी देशों ने यह कला हमारे यहां से ही सीखी है। वे पूरे विश्वास के साथ अपनाकर आध्यात्मिक क्षेत्र में भी अपना विकास कर रहे हैं। हमारे साथ यह विडम्बना नहीं होनी चाहिए कि हम ही इस पर विश्वास न करें। बच्चों का स्वर्णिम विकास एवं भविष्य आज हमारे ऊपर ही निर्भर है। पहले हमें इस बात पर विश्वास करके अपने आंगन में पल-बढ़ रहे बच्चों की रूचि भी इस तरफ बढ़ानी होगी उनके टैलेन्ट व ग्रैस्पिंग पावर को अनदेखा भी नहीं करनी चाहिए। हम यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हम लोग आज जो भी कर रहे हैं वह सब हमने अपने बचपन में ही सीखा है तो आज बच्चों के बचपन के साथ कतई खिलवाड़ न करें। उनको उपयुक्त अवसर व साधन उपलब्ध कराकर उनके स्वर्णिम भविष्य की ओर भेजें क्योंकि किसी भी व्यक्ति का विकास उसके बचपन से जुड़ा है। समाज व्यक्तियों से और कई विकसित समाज के आपस में जुडऩे से ही देश का विकास होता है। बचपन एक कोरे कागज की तरह ही होता है उसमें कुछ भी लिखना बहुत आसान होता है, समय निकल जाने के बाद सब कुछ बहुत मुश्किल हो जाता है। जिस प्रकार एक कुम्हार कच्ची मिट्टी से जो भी चाहे वह बर्तन बहुत आसानी से बना लेता है वहीं एक बर्तन से दूसरा बर्तन बनाने के लिए उसे बहुत जटिल व उल्टी प्रक्रिया करनी पड़ेगी। उसी तरह बच्चों को कच्ची मिट्टïी समझें और उनका सही मायने में विकास होने दें।

Friday, May 15, 2009

जीवन के हर पल का मजा लीजिए



जीवन का हर क्षण तथा कण-कण सुन्दर है, अनेक महापुरुषों तथा मनीषियों ने समझा है, जाना है तथा उन्होंने हर पल जिया भी है किसी भी पल को खराब नहीं किया, इसी प्रकार हमें भी अपने जीवन का दर्शन बदलना होगा, अपनी सोच को बदलकर जीवन को देखें तो हमें दिखेगा कि ईश्वर का बनाया हुआ तथा प्रकृति का दिया हुआ हर कण-कण सुन्दर है।

ओशो ने कहा है कि जीवन एक उत्सव है। यह सच है कि हमें अपने जीवन को किसी उत्सव से कम नहीं समझना चाहिए। जिस तरह हम किसी और उत्सव में पूरी मस्ती में रहते हैं, पूरा समय आनन्द में जीते हैं और वह समय कब निकल जाता है हमें पता ही नहीं चलता है। उसी प्रकार अगर हम जीवन के हर पल को एक उत्सव के रूप में मनाएं, हम भरपूर जिएं, मस्ती की कोई कमी न हो, जीवन में कोई झिझक, कोई अवरोध भी न हो, फिर कोई भी स्थिति ऐसी न बचेगी, जिसमें हमारा तन और मन पूरे आनन्द में न जी सके।
मानव जीवन बड़ा दुर्लभ है और हमें बड़ी मुश्किल से मिला है हमें इस जीवन का कोई भी हिस्सा यूं ही नहीं गंवाना चाहिए। आज अभी और अब जो भी हो रहा है उसमें हम केवल एक पात्र की तरह है और पात्र का कार्य है केवल जीना। किसी फिल्म अभिनेता से एक पत्रकार ने पूछा कि अभिनय और जीवन में क्या अंतर है? तो उत्तर आया कि हमें अपने अभिनय में जीना होता है अपने पात्र को जीवन देना होता है, और जीवन में इसका ठीक उल्टा होता है हमें अभिनय करना पड़ता है, सच भी है कि पूरे जीवन में हर मनुष्य के पास कई तरह के पात्रों को जीना पड़ता है, पहले स्वयं का फिर लड़के का, पति का, पिता का फिर अन्त में दादा, नाना। इन सभी के साथ उसे पूरी तरह का न्याय भी देना होता है कि कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाये, जीवन को जीना है मस्ती में, मौज में न ही कोई चिंता और ही कोइ फिक्र हर कोई कहता है कि कल किसने देखा? जब कल का कोई भरोसा ही नहीं, कोई गारंटी भी नहीं कि कल क्या हो तो हम आज का बहुमूल्य समय कल की व्यर्थ चिंता में क्यों गंवा दें, बस केवल एक काम कि पूरे मन से हर्षोल्लास से अपने जीवन को जिएं। कल की चिंता नहीं सतानी चाहिए क्योंकि यह आज का मजा खराब कर सकती है, हमें आज में जीना है, कल का काम ईश्वर का है, आज उसने अच्छा दिया, कल भी अच्छा देगा, इसी आशा और विश्वास के साथ हम आज का समय हंसी-खुशी निकालें न कि कल की चिंता के साथ। हमें अपने आप को इस जीवन के सागर में छोड़ देना है जिस तरह सागर की लहरें आती हैं, जाती हैं अपने साथ क्या-क्या बहा ले आती हैं और क्या-क्या बहा भी ले जाती हैं उसी तरह अपने आपको लहरों के हवाले कर दें क्योंकि लहरों के विपरीत चला भी नहीं जा सकता। समर्पण में ही आराम है, आपको पता भी नहीं चलेगा जहां भी ले जाना होगा हम वहां पहुंच जाएंगे। इस तरह कोई विरोध नहीं सब कुछ स्वीकार्य हो ऐसी स्वीकार्य की भावना हो जिसमें कुछ भी तिरस्कृत न हो, सुख और दु:ख हमारे जीवन का हिस्सा मात्र है ये जीवन नहीं बन जाते परन्तु हमने ऐसा मान रखा है कि सुख ही जीवन है। हम सुख के क्षणों को ही केवल भोगना चाहते हैं दु:ख के नाम से मन डरने लगता है। जीवन की यात्रा में हम किसी भी स्थिति को बोझ की तरह न लें, यह मानें कि यह अमुक क्षण आया और चला जाएगा, अपने सिर पर कोई भार या झंझट न रखें । जब और सब कुछ छोड़ ही दिया है तो बिल्कुल खाली हो जाएं, स्वतन्त्र हो जाएं, सब कुछ उस पर अर्थात ईश्वर पर छोड़ दें। एक राहगीर चिलचिलाती गर्मी की दोपहर की धूप में स्टेशन जानें के लिए सड़क के किनारे किसी बस या गाड़ी के इंतजार में खड़ा था, उसके पास एक बड़ा संदूक भी था। काफी देर हो जाने के बाद भी जब उसे कोई भी साधन न मिला तो वह संदूक अपने सिर पर रखकर स्टेशन की ओर पैदल ही चल पड़ा, कुछ दूर चलने पर पीछे से एक जीप आकर उसके पास रुकी, जीप में एक परिवार के लोग बैठे थे, तथा वे लोग भी स्टेशन जा रहे थे। उन्होंने राहगीर से पूछा तथा गाड़ी में आकर बैठने को कहा। राहगीर जीप में बैठ तो गया परंतु अपना संदूक उसने अपने सिर से नहीं उतारा तब जीप में बैठे एक व्यक्ति ने कहा कि अरे भाई अपनी संदूक को तो अब नीचे उतार लो उस राहगीर ने झिझकते हुए कहा कि अरे भइया आपने मुझे जीप में बिठाकर इतना एहसान किया है अब सन्दूक का भी मैं जीप में रख दूं यह मुझे अच्छा नहीं लगेगा इसे ऐसे ही रहने दो। यही हमारे जीवन में भी हो रहा है। एक तरफ तो हम मान रहे हैं कि हमारे जीवन में जो भी हो रहा है वह सब कुछ ईश्वर ही कर रहा है, सबकी बागडोर ऊपर वाले के हाथ में ही है, हम तो बस कठपुतली मात्र हैं फिर भी जीवन के उतार-चढ़ाव को हम अपना तनाव बनाए हुए हैं। हम सबका अपने हिसाब से हल निकालना चाहते हैं तथा इन सबको अपने सिर पर बोझ बनाये हुए हैं, हम दो बातें एक साथ कर रहे हैं एक तरफ तो हम कहते हैं कि जिंदगी उसकी दी हुई है वही सब कुछ करेगा, अच्छा करे तो ठीक, बुरा करे तो वह भी ठीक। एक तो वह कभी बुरा करता नहीं अन्तर यह है कि हमारी महत्वाकांक्षा इतनी अधिक हो जाती है कि हमें अच्छा नहीं लगता। हमनें अपने जीवन में केवल सुख की ही अपेक्षाएं पाल रखी हैं। जरा सा दु:ख आने पर हम इतने दु:खी हो जाते हैं कि अपने आपको तथा अपनी किस्मत को ही कोसने लग जाते हैं। मुख्य बात तो यह है कि दु:ख कहीं हैं नहीं यह केवल सुख की अत्याधिक चाहत व इच्छा ही है, यह इस तरह से भी है कि सु:ख मीठे की तरह है और दु:ख कड़वे स्वाद की तरह। अगर हम जीवन भर केवल सु:ख अर्थात मीठा ही खाते रहें तो एक दिन मीठे की ही पहचान न रह जाएगी क्योंकि इसकी पहचान तभी है जब दु:ख भी है मतलब कड़वा भी है। हम इसको हटा भी नहीं सकते यह दोनों जीवन के दो पहलू है एक तरफ सुख है तो दूसरी तरफ दु:ख। और यह दोनों चालायमान है यह दोनों कभी स्थिर नहीं रह सकते हम इसका एक हिस्सा पकड़कर भी नहीं रख सकते। हमें केवल इतना करना है कि अपने मन की सुई को सु:ख की चाहत से हटानी होगी, फिर जो भी हो हमें उसका स्वागत करना होगा, केवल अपने आपको साक्षी मानकर किसी भी स्थिति को हृदय से अपनाना होगा ऐसा करने से दु:ख की घडिय़ों में भी हमें दु:ख की अनुभूति नहीं होगी। जीवन का हर क्षण तथा कण-कण सुन्दर है, अनेक महापुरुषों तथा मनीषियों ने समझा है, जाना है तथा उन्होंने हर पल जिया भी है किसी भी पल को खराब नहीं किया, इसी प्रकार हमें भी अपने जीवन का दर्शन बदलना होगा, अपनी सोच को बदलकर जीवन को देखें तो हमें दिखेगा कि ईश्वर का बनाया हुआ तथा प्रकृति का दिया हुआ हर कण-कण सुन्दर है। हरी-हरी घास की हरियाली, ऊंचा नीला आसमान, सागर की लहरें तथा बहती हुई ठंडी हवाएं, यह सब कितना अच्छा लगता है, इनको कोई शिकायत भी नहीं क्योंकि यह सब अपना मूल जीवन जी रही हैं, इनमें किसी भी तरह की कोई पीड़ा या कष्ट नहीं अगर हम भी अपने जीवन से मांग हटा दें अर्थात सु:ख की आकांक्षा छोड़ दें तो जो कुछ भी बचेगा। नि:सन्देह उसमें दु:ख की कोई भी जगह न होगी। हमें भी अपना जीवन हर पल, हर क्षण, प्यारा लगने लगेगा, हर एक पल को जी लेने का हमारा मन भी करेगा।

Tuesday, May 12, 2009

मैं कौन हूं? जानिये अपने आपको

आज की भागती दौड़ती जिंदगी में हमें सभी चीजों की जानकारी है, सभी का ख्याल है, बस नहीं जानते तो अपने आप को

सभी का सपना होता है कि बड़े होकर हम क्या बनेंगे? डॉक्टर, इंजीनियर या फिर कलेक्टर। शुरुआती शिक्षा से लेकर किशोरावस्था तक आते-आते हर एक का कैरियर लगभग तय हो जाता है कि बड़ा होकर बच्चा किस क्षेत्र में अपना भविष्य बनाएगा, बड़े होकर हममें से ही कोई डॉक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर, व्यापारी या फिर कोई सरकारी अधिकारी बन जाता है परन्तु जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं अपने आपको इस भीड़ में खोते चले जाते हैं। हम रोजी-रोटी कमाने के लिए किये गये काम व ओहदे में इस तरह तेजी से फंसते जा रहे हैं, कि हमें अपने आपकी कोई सुध ही नहीं हो पा रही है। हम सब इस व्यवसायिकता और प्रतिद्वंद्विता भरी जिंदगी में हर पल कुछ न कुछ हासिल करना चाहते हैं, लेकिन साथ ही साथ हम अपनी इंडिविजुएल्टी तथा आइडेंटिटी को भूलते जा रहे हैं।
एक आदमी पूरी दुनिया पर राज करना चाहता है। दूसरा आदमी दुनिया के बारे में सब कुछ पता लगाना चाहता है। उसे पूरी-पूरी तथा सही-सही जानकारी चाहिए, आज तकनीकी के इस युग में किसी के बारे में कुछ भी पता लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं रहा। हम अपना सारा वक्त दूसरे को जानने में लगाए रहते हैं, कभी अखबार या पत्रिकाओं से जानकारी ढूंढ़ते हैं तो कभी कम्प्यूटर या इंटरनेट से। कोई हमसे कहीं पर भी मिला हम उससे उसके बारे में सबकुछ पूछते हैं कि वह कहां रहता है? क्या करता है? सब कुछ जानने में हमारी बहुत दिलचस्पी है। अपने आपको मिटाकर हम सबकुछ बनाने की कोशिश में हैं। अपने आपकी अनदेखी कर पूरे संसार को देखने का सपना देखते हैं। हमारा पूरा ध्यान तथा पूरा फोकस बाहर की ओर है, अपने बारे में हम अनजान बने हुए हैं और कुछ जानना भी नहीं चाह रहे हैं। हमारी ओरिजनल पर्सनैल्टी धीरे-धीरे खत्म सी होती जा रही है। हमारा पूरा इन्टेन्शन व अटेन्शन बाहरी जानकारी व सूचना को एकत्र करना है, जिससे कि हम दूसरों पर अपना रौब जमा सकें, हम बाहरी ज्ञान की ओर भागे जा रहे हैं। अनुभव की ओर हमारा कोई ध्यान नहीं है। ज्ञान और अनुभव एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अभी तक हमने ज्ञान का एक पहलू देखा और इससे ही चिपक कर रह गये, अगर हम इसे उलट दें तो हमें इसका दूसरा पहलू भी दिखाई दे जाएगा और वह है अनुभव का। ज्ञान जरूरी है, लेकिन इसमें अपना कुछ भी नहीं है। यह दूसरों पर ही आधारित है। अनुभव अपना है वह अपनी निजी संपत्ति है। इसका हम जैसे चाहें प्रयोग कर सकते हैं, इसमें सुख भी है। हम दूसरों के काम का, दूसरे व्यक्ति का पूरा निरीक्षण करते हैं लेकिन स्वयं का निरीक्षण करने से डरते हैं। दूसरों के बारे में हमसे कोई गलती नहीं होती है, हम सूक्ष्म से सूक्ष्म निरीक्षण व परीक्षण करने में पूरी तरह से दक्ष व योग्य हैं लेकिन जहां पर अपनी बात आती है तब हम अनजान बन जाते हैं। जबकि हमारे अंदर ही ज्ञान का अद्भुत व असीम खजाना भरा हुआ है, लेकिन उसके बारे में पूरी जानकारी नहीं है। बाहर तो हमें अच्छी तरह से मालूम है कि तेल, खनिज, सोना, चांदी कहां-कहां पाया जाता है परंतु अंदर के असली खजाने का हम पता नहीं लगा पा रहे हैं।
यही बात हमारे आपके साथ भी हो रही है। हमें अपने बारे में ही पूरी जानकारी नहीं है, कि हम क्या हैं। हमारे अन्दर क्या-क्या छिपा है? कितनी असीम शक्तियों, अपार सम्पदा तथा वैभव के मालिक हैं? इसका अंदाजा हम नहीं लगा पा रहे हैं। हम अपनी खोज ही नहीं कर रहे हैं। हमने अपने आपको इतना व्यस्त कर रखा है और हमारी दिनचर्या इतनी टाइट हो चुकी है कि हम अपने आपको एक मिनट भी फालतू नहीं रखते। अगर कभी हम खाली भी हुए तो हम टीवी या कम्प्यूटर गेम में उलझ गये। मोबाइल मिलाकर मित्रों या रिश्तेदारों से बतियाने लग गये या फिर इनटरनेट पर चैटिंग करने में जुट गये। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमें ईश्वर की असीम अनुकम्पा से यह दुर्लभ जीवन तो मिल गया परन्तु हम इस भौतिकवाद में उलझकर रह गये। बढ़ती व्यवसायिकता तथा नौकरी रोजगार में व्याप्त प्रतिद्वंद्विता के दौर में हम भागते जा रहे हैं और हमें अपने मूल मार्ग की याद ही नहीं आ पा रही है। हम अपना पूरा जीवन सारा समय अपने व्यवसाय व नौकरी रोजगार को दे रहे हैं। फिर भी हम वांछित सफलता के लिए परेशान से दिख रहे हैं। हम नकली खजाने को पकडऩा चाहते हैं। असली खजाना छोड़े जा रहे हैं, जबकि यह खजाना हमारे आपके पास ही है। बस केवल हमें इसके बारे में सही जानकारी जुटानी है। इसके लिए हमें अपने व्यस्ततम् लाइफ स्टाइल से कुछ समय नियमित रूप से निकाल कर स्वयं को देना होगा। स्वयं का चिंतन-मनन करना होगा। अपने आपको समय देने से हमें अपने बारे में सम्पूर्ण जानकारी मिल जाएगी। दिन का केवल आधा घंटा खाली निकालने से, ध्यान में बैठने से चमत्कारिक ऊर्जा शक्ति का सृजन होगा। स्मरण-शक्ति तथा मन की शक्ति को बल मिलेगा, जिससे हमारी अंतरात्मा की आवाज भी बुलंद होती जाती है, हमारा मन दृढ़ निश्चय करने लग जाता है। इस तरह से अपने आपमें विश्वास पनपने लगता है अगर हमें किसी को जीतना है चाहे वह युद्ध ही क्यों न हो, हम विरोधी की ताकत के आकलन के साथ ही अपनी ताकत का पहले आकलन करते हैं, ताकि किसी तरह की हार का सामना न करना पड़े। इसलिए सबसे पहले हमें अपने आपको जानना होगा। अपनी पहचान ढूंढऩी होगी।