Friday, July 31, 2009

हौसला रख चलते रहें, मिलेगा तरक्की का टर्निंग प्वाइंट




हर एक के जीवन काल में कभी न कभी अर्पाचुनिटी नामक अवसर आता अवश्य है, दरवाजा भी खटखटाता है, कभी-कभी बहुत धीमे से आवाज सुनाई पड़ती है, और हममें से बहुत लोग इस सुनहरे अवसर को भ्रम समझकर नजरअंदाज कर देते हैं। और जो लोग इसके संकेत को समझकर अपना लेते हैं, उनके जीवन को नई दिशा मिल जाती है, और यही बन जाता है जीवन का टर्निंग प्वाइंट।


आज का मनुष्य बिल्कुल मशीन हो गया है, वह सुबह से शाम तक मशीन की तरह कार्य करता है। सबकुछ पूरी तरह से सिस्टमैटिक हो गया है, सब की जीवन शैली अपनी जगह सेट हो गयी है। चाहे वह ९ से ५ तक काम करने वाला सरकारी कर्मचारी हो, सुबह ८ से रात १० बजे तक काम करने वाला व्यापारी हो या फिर असीमित समय में काम करने वाला कोई वर्किंग प्रोफेशनल हो, सभी लोग आज जीवन की इसी रस्साकशी में फं सते-जूझते हुए दिखाई दे रहे हैं। हमसब अपने जीवन में हमेशा एक बूम की तलाश में रहते हैं कि कोई मौका ऐसा मिल जाए कि नौकरी में प्रमोशन मिल जाए, कोई अवसर ऐसा हाथ लग जाए कि व्यापार में तरक्की हो जाए, कोई ऐसी परिस्थिति हो जाए कि बॉस की नजरों में भी अपना नाम हो जाए। इसी तरह के ख्यालात, सोच व सपने आजकल लगभग हर काम करने वालों के मन में हैं। हर कोई अपनी वर्तमान तरक्की से खुश व संतुष्ट नहीं है तथा हर एक व्यक्ति भविष्य में आगे बढऩा चाहता है, इसी कारण हर एक आदमी अवसर की खोज करता फिर रहा है। अब अहम बात यह है कि हमको यह अवसर मिलेगा कहां से? कौन इसे हमें देगा? इसका तरीका व रास्ता कौन सा होगा? कौन बतायेगा यह रास्ता? इन सब सवालों के जवाब हमें अपने काम से ही ढूंढऩे होंगे। हमें जो भी कार्य सौंपा गया है, अगर हम उस कार्य को पूरी एकाग्रता व ईमानदारी से करते रहें तो वहीं पर हमको उसके रास्ते का संकेत भी दिखेगा व वहां तक पहुंचने का तरीका भी। बस एक बात हमें पहले ध्यान में ले लेना जरूरी है कि हम अपने साथ पूरी ईमानदारी बरतें, अगर इसमें जरा सी भी लापरवाही या चूक हुई तो फिर आगे बहुत मुश्किल हो जायेगी, क्योंकि हमारे भविष्य का रास्ता हमारे वर्तमान से ही होकर गुजरता है। हम आज जो भी कर रहे हैं भविष्य में हमें उसी का गुणात्मक रूप में प्रतिफल मिलेगा। दूसरी बात यह कि हम अपने कार्य में अपना पूरा समर्पण व त्याग की भावना रखें तथा मेहनत करने से भी पीछे न हटें क्योंकि मेहनत किसी भी कार्य में किये गये इनपुट की तरह होती है और परिणाम उसका आउटपुट। हम अक्सर महसूस करते हैं कि अपने जीवन में एक ही काम को करते-करते ऊब सी होने लगती है। हमारा मन भी थकान का अनुभव करने लगता है क्योंकि हर रोज सुबह से लेकर शाम तक वही काम-एक ही काम। ऐसे में काम करने की ऊर्जा का क्षय होने लगता है, जिससे भविष्य में आगे बढऩा, प्रगति व उन्नति के मार्ग पर पहुंचना बड़ा मुश्किल भरा लगने लगता है। अब सोचिये कि हम जिस कार्य को कर रहे हैं तथा जिस रास्ते पर चल रहे हैं और उसी में ऊब महसूस करने लगेंगे तो आगे का सफर कैसे होगा? हम आगे कैसे पहुंचेंगे? इसको इस बात से समझने का प्रयास करें कि जैसे बचपन में अगर आपने साइकिल चलाई हो, और मान लो कि हमें साइकिल से किसी पुल या पहाड़ी पर चढऩा हो। हम अपनी मेहनत व ताकत से चढ़ाई तक पहुंचते-पहुंचते बहुत थकान का अनुभव करते हैं फिर ऐसा लगता है कि अब आगे साइकिल नहीं चढ़ेगी और ठीक चढ़ाई से पहले जब मुश्किल से चार या पांच पैडल ही लगाने दूर हों तो ऐसा लगता है कि बस अब साइकिल से उतर पड़ो। बस यही चार या पांच पैडल ही चढ़ाई में बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं। अगर थोड़ी और मेहनत करी, थोड़ी और ताकत दिखाई तब मिल जाता है हमें लाइफ का टर्निंग प्वाइंट। फिर पुल उतरने में मेहनत करने की कोई जरूरत नहीं पड़ती, आगे आराम है पूरा आनंद है। तब समय आ जाता है अपनी की गई मेहनत का लाभ उठाने का। हमारे जीवन में यह जरूरी हो जाता है कि हम अपने किसी भी कार्य को अपनी पूरी सामथ्र्य व सजगता के साथ करें। हम जब किसी भी कार्यक्षेत्र में प्रवेश करते हैं, वह एक बड़े दरवाजे की तरह होता है और जैसे-जैसे हम अपनी कर्तव्यनिष्ठा के साथ आगे बढ़ते जाते हैं तब हमें उस काम की बारीकियों को समझने का भी अवसर मिलता है, जो सफलता के छोटे-छोटे दरवाजे की तरह होते हैं। अब यह हमारे ऊपर है कि हम इनसे कितना सीखकर अपना रास्ता बना लेते हैं और अपनी तरक्की का टर्निंग प्वाइंट ढूंढ़ निकालते हैं। वैसे तो जिंदगी में अपने-अपने कार्यक्षेत्र में चलते-चलते बहुत से रास्ते दिखाई पड़ते हैं, जिनको एकसाथ देखने पर कभी-कभी भ्रम की भी स्थिति हो सकती है फिर मार्ग का सही चुनाव ही हमें अपने अपने लक्ष्य तक पहुंचाता है, नहीं तो बाकी की जिन्दगी अपना मूल रास्ता खोजने में ही लग जायेगी। जिस प्रकार कभी-कभी हम रास्ते की तलाश में चलते-चलते ऐसे रास्ते पर पहुंच जाते हैं जो आगे चलकर बंद हो जाता है, हमें जिसका डेड एन्ड मिल जाता है। ऐसी स्थिति में हम क्या करते हैं कि तुरन्त मार्ग बदलकर वापिस हो जाते हैं और वह भी बिना समय गंवाये। उसी प्रकार हमारी जिन्दगी में भी चलते-चलते कभी-कभी हमें कुछ समझ नहीं आता, आगे सब अन्धकार सा दिखाई देने लगता है और रास्ता खत्म सा मालूम पड़ता है। ऐसी स्थिति में परेशान नहीं होना है और न ही समय नष्ट करना है, बल्कि विवेक व अन्तर्मन से काम लेते हुए केवल 'यू टर्नÓ लेना होता है। टर्निंग प्वाइंट हमारे जीवन के सफर में मील के पत्थर की तरह हमें मिलता है क्योंकि यह हमारे कार्य व रास्ते की सही जानकारी भी देता है। हमें अपने अन्दर साहस व मेहनत की कोई कमी महसूस नहीं होनी चाहिए बल्कि हमेशा पहले से बेहतर इनपुट देने की कोशिश करनी चाहिए। वैसे हर मनुष्य के अन्दर काम करने की अपार क्षमता होती है, इसका उदाहरण है कि हम अपने हर कदम में अपने ही रिकॉर्ड तोड़कर नये बनाते रहते हैं, हम अपनी ताकत व मेहनत का मापदंड स्वयं ही बढ़ाते हैं। यह बिल्कुल इस तरह से है कि जैसे आप अपनी मुट्ठी भींचकर देखें, फिर आप से कहा जाए कि मुट्ठी में और कसाव दें, तो आप महसूस करेंगे कि आपकी हर कोशिश में मुट्ठी और भिंचती जाएगी। यह आपकी कोशिश का ही परिणाम होता है और आपको मिलता है अपनी मेहनत का एक नया टर्निंग प्वाइंट, जिससे हमें यह मालूम होता है कि हममें हर वक्त और ज्यादा मेहनत कर पाने की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। हम अपने रास्ते पर चलते-चलते थक जरूर सकते हैं, परन्तु जरूरत हमेशा इस बात की है कि आगे बढ़ते जाने की इच्छा प्रबल होनी चाहिए, न कि छोटी या बड़ी मुसीबतों के आगे अपने घुटने ही टेक दें। हमारी यही विल-पावर ही हमें सफलता के दरवाजे तक ले जाती है। हमारी व्यवसायिक जिन्दगी के साथ हमारे व्यक्तिगत जीवन में भी अक्सर कुछेक परिस्थितियों के बदलने मात्र से ही जीवन में एक बड़ा बदलाव देखा जा सकता है। पल भर में ही सबकुछ बदल जाता है। कभी अच्छे से बुरा और बुरा से अच्छा। स्थितियां बिल्कुल बदल जाती हैं और इसी टर्निंग प्वाइंट से हमारे जीवन में एक मोड़ आ जाता है। जीवन चलते रहने का ही नाम है, हमारी जिन्दगी के दो फेज़ एक साथ चलते है। एक व्यवसायिक व दूसरा निजी, यह हमारी ही जिम्मेदारी है कि हम इन दोनों को एकसाथ आगे बढ़ाए तथा एक बात और जरुरी है कि हम अपनी व्यवसायिक दुनियां में अपनी पारिवारिक व निजी जिन्दगी को कत्तई धुसनें न दें, बल्कि इन दोनों के बीच एक उचित फासला बनाकर चलें। वैसे भी ये दोनों समानान्तर रास्ते हैं। इनके आपस में मिल जानें से टकराव की स्थिति आ सकती है। इस प्रकार हमें हर वक्त सजग व सचेत रहकर आगे चलते जाना है, यही मानते हुए कि हमारी जिन्दगी की प्रगति का टर्निंग प्वाइंट बस आगे कुछ ही दूर पर है।

Thursday, July 23, 2009

स्कूली कोर्स में शामिल होना चाहिए योग और ध्यान


स्कूलों में शरीर को तंदुरुस्त रखने के लिए खेलकूद कराया जाता है तथा पीटी फिजिकल टे्रनिंग भी औपचारिक विषय की तरह प्रायोगिक रूप से दी जाती है। इसमें अधिकतर बच्चों की रुचि नहीं होती। योग और ध्यान को एक विषय की तरह पढ़ाने से जहां एक तरफ तन तंदुरुस्त व फिट रहेगा वहीं नियमित रूप से मेडिटेशन करने से बच्चों में अपने ही बारे मे रोमांचक जानकारी मिलेगी।

बच्चे ही हमारे देश का भविष्य है और हमारे देश के उज्जवल भविष्य के लिये हर एक बच्चे का शिक्षित होना बहुत आवश्यक है, जिसके लिये हमारी सरकारें विभिन्न तरह की योजनाएं चलाती हैं ताकि कोई भी बच्चा अनपढ़ न रह जाय। आज के बदलते हुये परिवेश में बच्चों के पाठ्यक्रम में गणित, विज्ञान व कम्प्यूटर के साथ योग व ध्यान को भी कोर्स में शामिल कर दिया जाय तो बच्चों के व्यक्तित्व व प्रतिभा में बहुआयामी निखार देखा जा सकता है। बच्चों के पाठ्यकम में नये विषयों के जोडऩे का अर्थ बच्चों को आज की पूरी जानकारी से लगातार अपडेट करते रहना ही होता है जिससे उनको ज्ञान के विकास के साथ ही अनुभव भी प्राप्त होता जाता है। बच्चों को जानकारी देने की इसी कड़ी में ही अभी सेक्स एजूकेशन को पाठ्यक्रम में शामिल करने की खूब जोर वकालत हो रही है। हम गणित के फार्मूले सीखते-सीखते और आधुनिक तकनीक को इस्तेमाल करते-करते जीवन की वास्तविक तकनीक को सीखना व सिखाना भूल गये। मूलत: हमने अभी तक योग व ध्यान को अपने जीवन में इतनी गम्भीरता से शामिल नहीं किया। इसकी वास्तविकता यह भी हो सकती है कि हमने अपने जीवन में उसी को अपनाया व बढ़ावा दिया जिसको हमने पढ़ा या जाना है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अभी तक हमें इसे एक विषय की तरह नहीं पढ़ाया गया, क्योंकि अभी तक केवल उन्हीं विषय का विस्तार हो पाया है जिनको हमने नियमित रुप से पाठ्यक्रम के रूप में पढ़ा हो, जिसके गणित, विज्ञान व कम्प्यूटर शिक्षा का विस्तारित रूप आज उदाहरण के तौर पर हम सबके सामने हंै। आज जरूरत इस बात की है कि योग और ध्यान को बच्चों की शुरुआती शिक्षा से ही पाठ्यक्रम में शामिल करवाने की पुरजोर कोशिश की जाय ताकि सभी बच्चों को एक साथ छोटी उम्र से ही ध्यान व योग के पाठ को नियमित रूप से पढ़ाया जा सके। अभी तक स्कूलों में शरीर को तंदुरुस्त रखने के लिए खेलकूद कराया जाता है तथा पीटी फिजिकल टे्रनिंग भी औपचारिक तौर पर दी जाती है। इसमें अधिकतर बच्चों की रुचि भी नहीं होती है बल्कि आज के समय में यह एक ऊबाउ विषय की तरह है। योग और ध्यान को एक विषय की तरह पढ़ाने से जहां एक तरफ तन तंदुरुस्त व फिट रहेगा वहीं नियमित रूप से मेडिटेशन करने से बच्चों में अपने ही बारे में रोमांचक जानकारी मिलेगी। स्कूलों में टाइम टेबल के हिसाब से योग व ध्यान के बिषय का भी एक थ्योरी व प्रैक्टिकल पीरियड रखने से मन व दिमाग दोनों को नई स्फूर्ति मिलेगी। इस विषय को रुचिकर बनाना होगा क्योंकि बच्चे जो पढ़ते है, उन्हीं विषयों को जानने व समझने की उनमें अत्यधिक उत्सुकता व जिज्ञासा होती है।
आज योग के चमत्कार को कौन नहीं जानता तथा ध्यान की चेतना से कौन अनजान है? अगर हम कुछ सब जान रहे हैं तो बच्चों को उनकी प्राथमिक शिक्षा से ही उनको इस दिशा में अग्रसर कर दिया जाय ताकि उनकी अच्छी पढ़ाई-लिखाई के साथ बच्चा सदैव तन व मन से फिट व तंदुरस्त रह सके। सच्चाई यह है कि पढ़ाई लिखाई के इतने व्यस्ततम माहौल में बच्चों की सुबह से शाम तक पूरी दिनचर्या इतनी टाइट हो चुकी है कि उनके पास खाली समय बिल्कुल नहीं रहा। कोई बच्चा औसत से अत्यधिक मोटा, तो कोई अत्यधिक दुबला हो रहा है। इस प्रकार से बच्चों की सेहत का अनुपात कम होता जा रहा है। इनकी छोटी उम्र में ही अनेक प्रकार की बड़ी ब बीमारियों के लक्षण अभी से दिखाई पडऩे शुरू हो जाते हं। इसमे बच्चों की कोई गलती नहीं है, गलती हमारी है कि हमने उन्हें नहीं पढ़ाया। कोई बच्चा आज गणित के नये-नये फार्मूले, विज्ञान की नई तकनीक व अविष्कार को नौटंकी क्यों नहीं कहता, बल्कि उसके बारे में अधिक से अधिक जानना चाहता है। बच्चों के पास अभी समय है, अगर अभी से योग व ध्यान को इनकी शिक्षा व पाठ्यक्रम में जोड़ दिया जाय तो तुरन्त से ही इसके अभूतपूर्व परिणाम हमारे सामने आने शुरू हो जाएंगे। ध्यान की अद्भुत कला शुरुआत से ही बच्चों में विकसित की जानी चाहिए। इस प्रकार वे जो कुछ भी पढेंग़े-लिखेंगे, सब कुछ उनके दिमाग में चला जायेगा।
योग व ध्यान को बच्चों के जीवन में पढ़ाई के साथ और विषयों की तरह अपनाने से बच्चों के अन्दर सकारात्मक विचार व ऊर्जा उत्पन्न होने लगेगी। धीरे-धीरे बच्चा आत्मनिश्चयी व द्रढ़संकल्पी होकर अपने हर कार्य को सृजनात्मक व रचनात्मक कला के जौहर से करता है तथा जिन्दगी की हर बाजी जीतता हुआ दिखाई देता है। जहां स्कूल में पाठ्यक्रम के अन्य विषयों को पढऩे से बच्चे के अन्दर बौद्धिक क्षमता बढ़ती है, वहीं ध्यान को पढऩे से वह दूसरे व्यक्ति को भी आत्मीय रूप से अच्छी तरह समझ सकता है। सही मायनों में इस तरह से योग और ध्यान को स्कूल कोर्स में शामिल करके ही बच्चों की शिक्षा सम्पूर्ण की जा सकती है।

Thursday, July 16, 2009

अपना स्वभाव बदलें, किसी से अपेक्षा न रखें



आज लगभग हर मनुष्य इंसानी रिश्तों में प्यार ढूंढता नजर आ रहा है। आज के इस प्रयोगवादी माहौल में हर इंसान रिश्तों में किसी न किसी तरह की कमी महसूस कर रहा है। चाहे हमारा पारिवारिक व घरेलू रिश्ता हो या फिर दोस्त, व्यवहारी अथवा पड़ोसी आदि का। कहीं न कहीं हम गलतफहमी के शिकार हो रहे हैं। आज रिश्तों के बीच से मधुरता, आपसी सामंजस्य व मेलजोल कहीं खो सा गया है। इसका कारण शायद दूसरों से आवश्यकता से अधिक अपेक्षा रखना भी हो सकता है।


हमारा जीवन अकेले नहीं चल सकता। हमें अपने पूरे जीवन काल में चाहे वह शुरुआती दौर की पढ़ाई लिखाई का मसला हो, नौकरी रोजगार या फिर अपने रिश्तेदार पड़ोसियों का। जीवन के दौर में किसी न किसी किस्म का अपने जान पहचान वालों से हमें सहयोग लेना पड़ता है। जो हमारा भरोसा भी होता है कि जरूरत के समय या किसी आकस्मिक तौर पर कुछ लोग हमारे साथ खड़े होंगे। वस्तुत: किसी भी व्यक्ति से किसी भी प्रकार का सहयोग लेना या देना हमारे जीवन में एक डील की तरह होती है जो 'गिव एंड टेकÓ सिद्धांत पर निर्भर करती है। इस पॉलिसी की ही तरह जीवन के भी कुछ नियम हंै कि सबसे पहले आप किसी से अपेक्षा न रखें कि फलां व्यक्ति आपके काम आयेगा, वह आपकी सहायता करेगा। इसको इस उदाहरण से समझें कि अगर हम किसी गरीब को पैसे देतेे हैं या किसी भूखे को खाना खिलाते हैं तो प्रत्यक्ष रूप से वह हमारी कोई मदद नहीं करता लेकिन जब हम कभी भी किसी तरह की मुसीबत में होते हैं तो ईश्वर किसी न किसी व्यक्ति को हमारे पास भेज देता है। इसलिये यह जरूरी नहीं कि हम जिसकी मदद कर रहे हंै वही हमारी सहायता करेगा। हमारा कत्र्तव्य यह होना चाहिए कि हम अपना काम पूरी निष्पक्षता व बिना किसी अपेक्षा के करते जाएं। एक बात तय है कि अगर हमें अपने जीवन में लगातार अपने मित्रों, पड़ोसियों व रिश्तेदारों से सहयोग मिलता है तो यह समझें कि आप दूसरों के मददगार हैं, और अगर नहीं, तो जरूरत है आपको पहल करने की। पहले दो, बाद में लो।
इसका सिद्धांत ही बिल्कुल अलग है। हमें बिना किसी अपेक्षा के वह काम करते जाना है, हमें वो सब चीजें देनी हंै जिनकी हमें अपने जीवन में आवश्यकता हो। जो हमारे लिये बहुत जरूरी हो, वह सब हम पहले दे। मान लें कि हम अपने किसी रिश्ते में प्यार की कमी महसूस कर रहे हों और हमें प्यार की जरूरत हो, तो हमें इधर उधर नहीं ढूंढना है, हमें पहले वह चीज अपने अन्दर डेवलप करनी होगी। अपने आपको प्यार से भरना पड़ेगा। हम अपने आपको प्यार से इतना भर दें कि जैसे किसी बर्तन में उसकी क्षमता से ज्यादा किसी चीज को भर देना, फिर वह पदार्थ इधर-उधर बिखरने सा लगेगा। फिर हमें अपने चारों तरफ प्यार की सुगंध की अनोखी अनुभूति होनी शुरू हो जाएगी। ऐसी स्थिति में हम सामने वाले की विचार व प्रकृति को बिल्कुल ध्यान न दें, क्योंकि उसका स्वभाव दूसरा हो सकता है। हमें अपना स्वभाव बनाना है। साथ ही दूसरे व्यक्ति की किसी भी मनोदशा को अपने मस्तिष्क में न कैद करें, क्योंकि इससे हमारा मन किसी पूर्वाग्रह का भी शिकार हो सकता है जिससे कि निगेटिव परसेप्शन की अधिक संभावना हो जाती है। अगर हमें किसी से सम्मान पाना है तो यह किसी से जबर्दस्ती हासिल नहीं किया जा सकता। हमें दूसरों की नजरों में सम्मान पैदा करने के लिए पहले उन्हें सम्मान देना होगा। हमें यह बात अच्छी तरह समझनी चाहिए कि हम जो कुछ भी करते हैं उसके परिणाम हमें उसी तरह मिलते हैं अगर हमने किसी को प्यार दिया तो प्यार मिला, अगर हमने किसी को मुस्कुराहट दी तो हमारी जिन्दगी में भी मुस्कुराहट आएंगी। सवाल दूसरा है कि हम अपने काम के प्रति कितना कमिटेड हंै। एक कहानी है, एक साधु नदी में स्नान कर रहे थे। उन्होंने देखा कि एक बिच्छू नदी में पड़ा तड़प रहा है। साधु ने सोचा कि इस बिच्छू को पानी से बाहर निकालकर फेंक दंू तो इसकी जान बच जाएगी। साधु ने बिच्छू को हाथ से पकड़कर जैसे ही पानी से बाहर फेंकना चाहा, बिच्छू ने हाथ में डंक मार दिया और झटका लगने के कारण बिच्छू फिर पानी में गिरकर तड़पने लगा। साधु ने फिर उसे उठाना चाहा, बिच्छू ने फिर डंक मारा। साधु ने अपना स्वभाव फिर भी नहीं बदला तथा अपनी कोशिश करते रहे। साधु के साथ ही नहा रहा एक दूसरा व्यक्ति सब देख रहा था। उसने साधु से कहा- कि हे महात्मा जी, जब यह बिच्छू आपको बार-बार काट रहा है फिर भी आप इसकी जान बचाना चाह रहे हैं! साधु ने जवाब दिया कि जब यह बिच्छू अपना स्वभाव नहीं बदल रहा तो फिर मैं अपना स्वभाव कैसे बदलूं? यह उन साधु महात्मा का स्वभाव था तथा यह प्रक्रिया उनके स्वभाव की वास्तविक प्रकृति बन गई थी। बात यही है, एक तो हम सामने वाले की एक इमेज अपने मस्तिष्क में बना लेते हैं कि वह कैसा आदमी है और उसी इमेज के आधार पर ही पूरे कैलकुलेशन कर लेते हैं। कभी-कभी हमारे अपने रिश्तों में सुख की अभिलाषा इतनी अधिक बढ़ जाती है कि हम लोगों से कोरी अपेक्षाएं करने लग जाते हंै। हम उनको कितना सुख दे पा रहे हंै इस बात पर हमारा कोई ध्यान नहीं होता, सिर्फ रुझान होता है कि हमें क्या मिल रहा है। वस्तुत: उल्टा यहीं पर हो रहा है। हम फसल पहले काटना चाहते हैं जबकि बोया वैसा है ही नहीं। तो हमें पहले बोने पर ध्यान देना है। अगर बीज हमने अच्छी तरह बो दिये तो निश्चित फसल भी अच्छी ही होगी। तब सही मायनों में खुशहाली होगी, फिर किसी से अपेक्षा रखने की भी कोई आवश्यकता न होगी। इस तरह से हमें अपने जीवन में जो कुछ भी चाहिए, वह सब कुछ पहले हमें दूसरों पर न्योछावर करना होगा फिर सब कुछ मिलना शुरू हो जायेगा।

Thursday, July 9, 2009

जिंदगी को बांटना संभव नहीं आदमी के लिए


अर्थयुग के आते और भौतिकवाद के चलते हमने अपने ही बीच अंतर खड़े करने शुरू कर दिये। जिनके पास पैसे थे, वह अमीर कहलाए जाने लगे और जिनके पास पैसे नहीं थे, वह गरीब कहलाए। अमीरों की कोठियां व बंगलों के इलाके अलग से पहचाने जाने लगे। गरीबों की अलग बस्तियां होने लगीं। सब कुछ बंट गया, दोनों वर्ग अलग-अलग बंट गये।

हम सबको ईश्वर ने एक समान जीवन दिया है। साथ ही प्रकृति ने भी हमसे कोई भेदभाव नहीं किया। सूरज की रोशनी हो या फिर चन्द्रमा की शीतलता व चांदनी, सभी अमीर गरीब, छोटे बड़े-सभी लोगों के लिए एक बराबर, किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं। शुरू में सब कुछ ठीक था। परन्तु अर्थयुग के आते और भौतिकवाद के चलते हमने अपने ही बीच अंतर खड़े करने शुरू कर दिये। जिनके पास पैसे थे, वह अमीर कहलाए जाने लगे और जिनके पास पैसे नहीं थे, वह गरीब कहलाए। अमीर और गरीब की पहचान अलग की जाने लगी। अमीरों की कोठियां व बंगलों के इलाके अलग से पहचाने जाने लगे। गरीबों की अलग बस्तियां होने लगीं। सब कुछ बंट गया, दोनों वर्ग अलग-अलग बंट गये। दोनों की जीवन शैली भी अलग हो गई और धीरे-धीरे यह अंतर खाईं के रूप में बढ़ता गया।
आज किसी बच्चे के जन्म के साथ ही यह अंतर बनना शुरू हो जाता है। किसी अमीर व्यक्ति का बच्चा शहर के किसी बड़े अस्पताल में जन्म लेता है। वहीं गरीब परिवार का कोई बच्चा किसी छोटे या सरकारी अस्पताल या घर पर ही अपनी आंख खोलता है। बड़े घर के लड़के के पास खेलने के लिए महंगे व विदेशी खिलौने होते हंै पर गरीब बाप मुश्किल से खिलौने जुटा पाता हैै। अमीर व्यक्ति अच्छी शिक्षा-दीक्षा के लिए अपने बच्चों का एडमिशन शहर के किसी कान्वेन्ट स्कूल में कराता है जिससे बच्चे को अच्छे स्तर की शिक्षा प्राप्त हो। गरीब व छोटा आदमी अपने बच्चे को पढ़ाई के लिए पास के ही किसी स्कूल में दाखिला दिला देता है ताकि उसका बच्चा अनपढ़ न रहे और कभी-कभी किसी परिवार में यह भी नहीं हो पाता है। बड़ा होकर कोई कार या हवाई जहाज से चलता है तो कोई रिक्शा चलाता है। दोनों की लाइफ स्टाइल में बहुत अंतर हो गया है। अमीर आदमी के खाने के लिए होटल व रेस्टोरेन्ट अलग हो गये। ये लोग महंगे व पांच सितारा होटल में खाते व रहते हैं और गरीब आदमी सस्ती जगह ठहरते व खाते हैैं।
अमीर व गरीब वर्ग में बहुत फर्क हो गया है। दोनों के घूमने-फिरने, मौज करने के तरीके अलग हैं। किसी के महंगे शौक हैं तो कोई ऐसे ही काम चला लेता है। आज ये दो लोग अपना-अपना जीवन अलग तरह से जी रहे हंै। शुरूआत से लेकर आखिर तक, दोनों के पैदा होने के अस्पताल अलग, एक का महंगा और दूसरे का सस्ता, दोनों का स्कूल अलग, एक का पब्लिक कांवेन्ट और दूसरे का छोटा या प्राथमिक सरकारी विद्यालय और कहीं तो वह भी नहीं। दोनों के घूमने फिरने में बहुत अंतर, अमीर आदमी के पांच सितारा होटल का खर्च और गरीब आदमी के सस्ते होटल का खर्च। पूरी जिन्दगी दोनों के बीच एक बहुत बड़ी दूरी। जहां गरीब आदमी जाता, वहां अमीर आदमी कभी जाना नहीं पसंद करता। अमीरों के लिये अलग जगह बनाई गई और गरीब आदमियों के लिये अलग जगह। सभी अपनी जगह सीमित हो गये। यह तो जिन्दगी की एक बात हुई कि हम जिन्दगी को अपने-अपने स्तर से जीने लगे, क्योंकि अमीर व गरीब दोनों के जीवन जीने का स्तर अलग हो गया। हममें से ही एक अमीर टाइप हो गया और दूसरा गरीब टाइप। यह केवल जिन्दगी और मौत के बीच का आप्शन था, जो हमारी च्वॉइस बन गई। जो भी कुछ हमें अच्छा लगता हम उसे ही करते, लेकिन हमारी जिन्दगी की असलियत हमें नहीं मालूम। हम चाहे जितने अस्पताल अलग कर लें, स्कूल अलग कर लें, होटल अलग कर लें तथा अपनी बस्तियां अलग कर लें। जीते जी तो हमने सब कुछ अलग कर दिया परन्तु मरने के बाद का स्थान श्मशान घाट हम अलग नहीं कर पाए। हम सबके लिये यह स्थान एक समान बना हुआ है और न ही हमने इसमें अपनी दिलचस्पी दिखाई।
श्मशान घाट पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि व्यक्ति अमीर हो चाहे गरीब, छोटा हो या बड़ा, घाट सबके लिए एक है। चिता सबकी एक ही जगह जलती है, कब्रिस्तान वही है। जिन्दगी में भले ही हमने अपना मकान अमीरों की बस्ती में बनाया हो, खाने में हमने जो कुछ खाया हो व हम कहीं भी घूमे हो। परन्तु, हम सबको पूरी दुनिया घूमकर भी आकर उसी श्मशान घाट की चिता पर लेटना होता है या कब्र में दफन होते हैं, जहां अमीर गरीब, छोटे-बड़े सब लेटते हैं। यहां पर कोई भेदभाव नहीं चलता, यहां पर किसी की काई फितरत काम नहीं करती। अब प्रश्न यह है कि जिसके लिये पूरी जिन्दगी हमने अमीरी गरीबी की दीवार बनाई और इसीलिए अमीर आदमी गरीब परिवार से ज्यादा सम्पर्क व सम्बन्ध नहीं बनाते तथा उनसे दूरी बनाये रखने में ही विश्वास रखते हैैं। उनका स्टेटस दूसरा होता है, दोनों के बीच स्टेटस का बहुत बड़ा फर्क है। इसी स्टेटस के चलते और दूरी बढ़ती जाती हैै, क्योंकि दोनों के रास्ते व साधन अलग हो जाते हंै। परन्तु अन्त में प्राकृतिक व ईश्वरीय रूप से दोनों का स्टेटस एक समान हो जाता है। एक ही घाट पर अमीर व गरीब दोनों की चिता, एक ही कब्रिस्तान में छोटा या बड़ा, दोनों आदमी एक साथ दफन किये जाते हैं। पूरी जिंदगी हम झंझट में जीते हंै। अमीर तथा बड़े लोग छोटे व गरीब लोगों के साथ उठना-बैठना पसन्द नहीं करते है तथा एक दूरी बनाकर चलते है, वही दूरी अन्तिम समय में खत्म हो जाती है। श्मशान घाट का एक ही पंडा अमीर व गरीब दोनों का अंतिम संस्कार एक ही स्थान पर कराता है। वहां पर हम कोई भेदभाव नहीं देखते। उम्र भर हम जिस झूठ के पुलिंदे को अपनी पीठ पर लादे रहते हैं फिर अन्तिम स्थान पर सब कुछ खत्म हो जाता है। सब एक समान हो जाता है तथा किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं होता। यहां पर सब एक ही तराजू में तौले जाते हैं, चाहे जो कोई कितना बड़ा व्यापारी, अधिकारी व प्रतिष्ठित व्यक्ति हो या कोई जन साधारण अथवा गरीब तबके का छोटा आदमी, सभी एक ही जगह पर लिटाये जाते हैं। हम जिन्दगी भर अपने आपको अलग करके रखते हैं कि हम बहुत बड़े आदमी हंै। यह भेद हमारा बनाया हुआ है फिर अन्तिम यात्रा के आखिरी स्थल पर सबके भेद खुल जाते हंै। इसी स्थान पर सबको जीवन के सच का दर्शन होता है। क्योंकि यही जिन्दगी का शाश्वत सच भी है। इस सच के आगे जीवन में बनाये गये अनेक प्रकार के स्टैंडर्ड झूठे, बेईमान व बौने साबित होते जाते हंै। हमने जिन्दगी भर जितना कुछ कमाया खाया, घूमा फिरा, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि यहां पर व्यक्ति नहीं उसका मृत शरीर आता है। फिर जिन्दगी के आखिर में, अन्तिम सच के आगे, यह सब जिन्दगी का ढकोसला सा लगता है क्योंकि जिसको हमने सारी उम्र भर मेन्टेन किया, वह सब आखिरी समय पर बराबर हो जाता है। फिर भी आज मनुष्य की फितरत व मनोदशा बन चुकी है कि वह जिन्दगी को इसी चश्मे से देखता है और उसके देखने में बहुत बड़ा अंतर बना दिया गया इसी सोच की वजह से ही व्यक्ति दोनों वर्गों के बीच एक गैप बनाकर चलना चाहता है। इस प्रकार हम सबके सामने सबसे बड़ी बात यह है कि हम भी अच्छी तरह जान रहे हंै व मानते हैं कि यह हमारी पूरी जिन्दगी झूठ के पुलिंदे से कम नहीं फिर भी हम इस जीवन की सच्चाई को गले नहीं लगा पा रहे हैं। जीवन के आखिरी सच के आगे जिन्दगी भर अमीर गरीब, छोटे बड़े की संकीर्ण मानसिकता में ही हम सब अभी तक फंसे हुये हैं, आखिर क्यों?

Friday, July 3, 2009

तनाव से बचें, चिंता नहीं चिंतन करें


आज की इस भागमभाग लाइफस्टाइल में सब कुछ बहुत तेजी से हो रहा है। हर कोई भागता जा रहा है। हर एक के पास अपना लक्ष्य है, उसे पूरा करने के लिए और वहां तक पहुंचने के लिए किसी को कोई गुरेज नहीं, बस मंजिल तक पहुंचना भर है। इसी आपाधापी में वहां तक पहुंचते-पहुंचते हम अपने अंदर बहुत से बदलाव भी महसूस करते हैं और इसी के साथ बहुत से व्यक्ति चिंताग्रस्त होकर तनाव का भी शिकार हो रहे हैं। इनसे कई प्रकार की बीमारियां जैसे अवसाद, चिड़चिड़ापन, एकाकीपन तथा स्वभाव में अचानक परिवर्तन आदि मुख्य रूप से दिखाई पड़ रहे हैं।

आज हमारे सब के सामने रोजी-रोटी कमाने व खाने की इतनी बड़ी समस्या नहीं है, जितनी बड़ी समस्या हमने अपने जीवन के दिखावे को दे दी है। हम कर कुछ और रहे हैंं और दिखाना कुछ और चाहते हैं। इन्हीं सब के चलते अक्सर जिंदगी की कुछ स्थितियां हम पर भारी पड़ जाती हैं। एक तो नौकरी रोजगार में तथा व्यापार में अपने टारगेट को अचीव करने में आशातीत सफलता न मिल पाना तनाव का स्वाभाविक कारण बन जाता है, फिर हम जिंदगी में आये परिणामों से चिंताग्रस्त हो जाते हैं। इस अवस्था में आ जाने पर हमारा मानसिक तनाव और भी बढ़ जाता है कि हमारा जीवन तनाव का ढेर बन जाता है। इस प्रकार तनाव से चिंता और चिंता से और अधिक तनाव। इस तरह से ये दोनों चीजें रेसीप्रोकेटली बढ़ती जाती हैं। स्थिति ये हो जाती है कि ये दोनों हमें आगे से घसीटती हुई ले जाती हैं। जैसे-जैसे चिंता और तनाव बढ़ते जाते हैं, हम इसके आगे कमजोर होते जाते हैं। मुख्यतय: चिंता करना किसी भी समस्या से निकलने का रास्ता नहीं होता, केवल चिंता करने से कि यह काम क्यों नहीं हो रहा? यह व्यक्ति मेरी बात क्यों नहीं मान रहा? मेरे साथ यह सब क्या हो रहा है? केवल इसी एंगल से सोचने पर इसका कोई हल नहीं निकलता। इससे तो हम इसी के जाल में और फंसते चले जाएंगे, फिर निकलना बहुत दूभर हो जाएगा। जिंदगी आसान नहीं बोझ बन जाएगी। जो लोग केवल समस्या पर फोकस करते रहते हैं, वे इसी तरह बेबुनियादी चिंता के भंवर जाल में फंसते जाते हैं और धीरे-धीरे अपने अमूल्य जीवन के हर पल को चिंता की खाई में स्वयं ढकेलते जाते हैं और इस तरह से उनका जीवन समाप्ति की ओर बहुत तेजी से अग्रसर होता जाता है। वस्तुत: ये लोग 'चिंता चिता हैÓ कहावत को चरित्रार्थ करते हैं।
समस्या और हल ये दोनों अलग पहलू हैंं, क्वाइनसाइड्स हैं, एक तरफ समस्या, उसके दूसरी तरफ हल। केवल हमें अपना फोकस बदलना है, अपना ध्यान समस्या से हटाना है। किसी भी काम में आये परिणाम से हमें परेशान व उद्वेलित नहीं होना है बल्कि इसके कारणों का विश्लेषण करना होगा। किया गया प्रयास व जानकारी की व्याख्या का सूक्ष्म अवलोकन करना होगा। अब दूसरे व्यक्ति की मनोदशा का भी ज्ञान होना आवश्यक हो जाता है। इस तरह से हम अगर अपना फोकस बदलकर हर चीज को बहुत बारीकी से विश्लेषित करें कि फलां व्यक्ति मेरी बात क्यों नहीं मान रहा इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं? इसकी एक सूची बनायें, फिर सबको क्रमवार रखें, सबका उपयुक्त पक्ष रखें फिर उचित साक्ष्य ढूंढऩे की कोशिश करें कि आपके व उसके बीच की कौन सी दूरी है जो नहीं भर पा रही है। उसको ढांपने की कोशिश करें फिर देखें कि अब आपके पास समस्या नहीं इसका हल होगा। आपने अपनी समस्या को रिजाल्व कर लिया। यह पूरी प्रक्रिया मनन कहलाती है। यह चिन्तन है। हमारे रोजमर्रा के व्यवसायिक या निजी जिंदगी में कुछ न कुछ ऐसा होता है जो आपेक्षित नहीं होता, जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की होती है। क्योंकि जिंदगी की अपनी अलग टेढ़ी-मेढ़ी लाइन होती है जिस पर हमारी जिंदगी की गाड़ी कभी चलती और कभी दौड़ती है। हम न ही इसकी लाइन ही बदल सकते हैं और न ही इसकी गति। जिंदगी अपने रास्ते स्वयं बना लेती है और हमारा उसमें कोई दखल भी नहीं होता। घरेलू रिश्ते भी बहुत नाजुक व कोमल धागे में पिरोये हुए होते हैंं, आपसी ज्यादा खींचतान में इनके टूटने का खतरा बढ़ जाता है। आपसी मन मुटाव होने पर तनाव नहीं बढ़ाना चाहिए बल्कि दूसरे व्यक्ति के प्रति चिंतन व मनन की प्रक्रिया करनी चाहिए। उस व्यक्ति का भी पूरा विश्लेषण करें, साथ ही उसके विचार व उसके सोचने की क्षमता का आकलन करें। बाद में किसी निर्णय पर पहुंच कर उक्त बात का हल निकालना संभव व निष्पक्ष होगा। इसी तरह अलग-अलग कार्यक्षेत्र में भी हमें नित्य नये-नये लोगों से मुलाकात करनी होती है चाहे वह बिजनेस डील हो या पब्लिक डील, हमें सदैव दूसरे व्यक्ति को समझने का भी प्रयास करना चाहिए न केवल अपनी बात समझाने का। कभी कभी विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न होने पर हमें बहुत सरलता के साथ स्थिति का आकलन करना होता है। हमें दूसरे व्यक्ति की सोच को भी दरकिनार नहीं करना चाहिए बल्कि हम उसकी चाहत व इच्छा का पूरा ख्याल रखें।
पूरे जीवनकाल में कई ऐसे पड़ाव आते हैं जहां हमें बहुत गहन तरीके से जांच-पड़ताल करनी पड़ती है। बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के दौरान हमें बहुत सजग होकर बच्चों को सिखाना पड़ता है कि ये छोटे बच्चे भी पढ़ाई व परीक्षा के समय किसी भी तरह की चिंता में न उलझें जिससे किसी भी तरह का इनमें मानसिक तनाव उत्पन्न हो। चिंता एक बहुत बड़ी समस्या है और चिंतन उसका स्वाभाविक व प्राकृतिक हल है। जब हम किसी भी बात पर चिन्तन कर रहे होते हैंं तब हमारा पूरा मस्तिष्क समस्याओं के सभी कोणों को बराबरी से देख रहा होता है उससे कोई भी दृष्टि व कोण अछूता नहीं रहता और फिर उससे जो समाधान निकलता है वह सन्तुलित होता है तथा सबके हित में भी होता है।