Friday, May 7, 2010

उनको मानें, उनकी भी मानें-तब बनेगी बात



महापुरुष को अपना आदर्श मानना जीवन में किसी प्रेरणास्रोत की तरह से होता है। लेकिन, इसके साथ जरूरी यह भी है कि इनको मानने के साथ इनकी बताई गई बातें व सीख को भी इसी ढंग से मानें। प्राय: देखने में यह आता है कि गुरुओं को मानने वाले तो बहुत लोग है, परंतु प्रायोगिक तौर पर उनका अनुसरण नदारद मिलता है।


आज लोगों को सम्मान देने व मानने वालों की तादात में कोई कमी नहीं है। कोई कहता है कि मैं फलां गुरु को मानता हूं। कोई अपना आध्यात्मिक गुरु बना लेता है तथा उसको अपने जीवन का सुधारक मानने लगता है। कोई किसी महापुरुष को अपना आर्दश बना लेता है और बताता है कि यही मेरे जीवन के प्रेरणास्रोत हैं। कोई अपने माता-पिता का सम्मान करता है तथा इनको बहुत मानता है। परंतु, इन सबके बीच यह बात किसी विडंबना से कम नहीं लगती कि एक तरफ तो लोग अपने जीवन में किसी न किसी को महत्व देते हैं तथा इनको मानने की सार्वजनिक घोषणा करते रहते हैं और दूसरी ओर व्यक्तिगत तौर पर यही लोग इनकी ही कही हुई बातों व सिद्धांतों को नही मानते हैं, उनका अमल नहीं करते हैं। बाहर से तो हम सीखने के प्रयास में रहते हैं, लेकिन अंदर से लगभग खाली ही रहते हैं। जिंदगी में किसी का सम्मान करना या मानना अच्छा सरोकार है। माता-पिता, गुरु, आध्यात्मिक गुरु या किसी महापुरुष को अपना आदर्श मानना जीवन में किसी प्रेरणास्रोत की तरह से होता है। लेकिन, इसके साथ जरूरी यह भी है कि इनको मानने के साथ इनकी बताई गई बातें व सीख को भी इसी ढंग से मानें। प्राय: देखने में यह आता है कि गुरुओं को मानने में तो बहुत लोग है, परंतु प्रायोगिक तौर पर इनका अनुकरण नदारद मिलता है। यह सच है कि हम लोगों को तो खूब मानते हैं परंतु सच्चाई यह भी है कि उनकी बिल्कुल नहीं मानते हैं। सार्वजनिक रूप से उनको स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं होती है। लेकिन, व्यावहारिक जिंदगी की छोटी-बड़ी बातों के समय पर इनकी कही हुई बातों को दरकिनार कर देते हैं। लगभग भुला देते हैं। और सब कुछ अपने ढंग से करते व समझते हैं। जिंदगी में किसी को महत्व देने या मानने का मतलब ही यही है कि अब हमने उसे अपना गुरु बना लिया। तब फिर उसके बताये गये मार्ग का अनुसरण व अनुकरण भी तदैव ही करें तभी हमारी मंजिल हमें आसानी से मिल सकती है। मान लिया जाये कि हम कहीं जाना चाहते हैं और अचानक रास्ता भूल जाते हैं। फिर हमें आस-पास किसी से रास्ता पूछना पड़ता है। तब हम क्या करते हैं-उसके बताये मार्ग पर चलते हैं और अपनी मंजिल तक पहुंचते हैं। अगर बताये गये मोड़ पर हम नहीं मुड़ते, उसकी नहीं मानते। तो क्या मंजिल मिलना संभव होता? बात यही है कि हमसे बुद्धिमान, अनुभवी व जानकार जिसको भी हमने अपना मसीहा खुद अपनी पसंद से चुना उसमें किसी की कोई जोर जबरदस्ती भी नहीं थी फिर उसको मानने के साथ उसकी कही व बताई गई बातों को मानने में फेरबदल देखने को मिलता है। जबकि सच्चाई व फायदेवाली बात तभी है, जब हम गुरुजनों द्वारा बताये व सिखाये गये मार्ग का भलीभांति अनुसरण करते हैं। सफल होने के लिए उनकी भी माननी पड़ेगी। सिर्फ उनको मानने से काम नहीं चलने वाला है। केवल बाहर ही बाहर किसी को स्वीकार कर लेने से कोई बात नहीं बनेगी, जब तक इसका प्रयोग अंदर से नहीं किया जाता। फिर इन सबको अपनी आदत व प्रकृति में आत्मसात कर लिया जाय। क्योंकि सार्वजनिक दिखावे से मन में बहुत अधिक बदलाव नहीं आ सकेगा, मन विचलित होगा और न ही शांति प्राप्त होगी। यह तो दोतरफा जीवन होगा कि उनको तो बहुत महत्व देते हैं लेकिन उनकी बातों व सीखों को ज्यादा मूल्य नहीं देते हंै। उनकी कही हुई बातों व सीखों को अपने दैनिक जीवन के आचरण व लोकाचार मेें ढालने पर ही हम असलियत में उनसे जुड़ सकेंगे तथा सच्चे अर्थों में उन्हें मानेंगे।
समझाने व सिखाने वालों की कोई कमी नहीं है, केवल कमी है तो इन पर अमल करने वालों की। जिस किसी ने भी सच कही हुई बातों का अपने जीवन में अक्षरश: पालन कर लिया वह सचमुच जिंदगी में सफल हुआ है। फिर उसे किसी को अपना गुरु बताने या मानने की सार्वजनिक घोषणा करने की भी कोई आवश्यकता नहीं होती है। सबकुछ अपने आप गुरु की प्रतिछाया के रूप में प्रदर्शित हो जाता है। रामायण, बाइबिल, गीता, कुरान, अनेक महापुरुषों व देवपुरुषों की सजग वाणी हमें क्या-क्या सिखाती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि हम इन्हें नहीं मानते हैं। लेकिन इसके बाद की जिम्मेदारी हमारे ऊपर आ जाती है कि हम इनसे कितना सीखते व अमल कर पाते हैं। गांधी जी के विचारों को मानने वालों की कोई कमी नहीं, लेकिन गांधी जी के विचारों को अपने जीवन में ढालनें वालों की कमी है। पुरुषोत्तम राम के सिद्धांतों व कर्मों को अपने जीवन मे अमल करनें की आवश्यकता है।

गलत कथनी ही कहीं करनी न बन जाए



किसी जरूरतमंद की आर्थिक सहायता करने या दान पुण्य में लगाया गया पैसा खजाने को खाली नहीं करता है, बल्कि इस पुनीत कार्य से किसी व्यक्ति या समाज का उद्धार होता है। साथ ही अपनी सार्मथ्यवश जो भी बन पड़ा ऐसा आत्मबोध होने से आत्मसंतुष्टि का भाव भी जागृत होता है। क्योंकि ईश्वर ही किसी योग्य व सक्षम व्यक्ति को अपना माध्यम बनाता है। फिर उसका खजाना भरने की जिम्मेदारी भी उसी की बन जाती है।

भगवान श्री सत्य नारायण व्रत कथा में एक बहुत ही प्रेरक उल्लेख है कि जब साधु नामक बनिया सामान बेचने के लिए बाजार जा रहा था। उस वक्त उसकी नाव कीमती सामान से लदी हुई थी। इसी समय उसकी परीक्षा लेने के लिए भगवान एक भिखारी के वेश में उसके सामने प्रकट हुए और कुछ सामान की याचना की। इस पर व्यापारी ने कुछ देने से बचने के लिए कहा कि मेरे पास कुछ भी नहीं है, मेरी नाव तो धास-फूस व पत्तों से भरी हुई है। उसके कुछ समय बाद ही उसकी नाव पानी के ऊपर उतराने लगी। उसके कहने के अनुसार ही नाव का कीमती सामान एक झटके में ही धास व पत्ते हो गया। उसने जैसा कहा, बिल्कुल वैसा ही हो गया। विषय यह है कि आज यही आम जिंदगी में लगभग सबके साथ हो रहा है कि हम अपने बारे में गलत बयानबाजी भी करते हैं। मौका पडऩे पर हम अपने आपको गरीब, दुखी व असहाय दिखा व बताकर दूसरों की मदद करने के बजाय उनसे सहानुभूति चाहने लगते हैं। जबकि एक तरफ हम अमीरी का दिखावा करते हैं, पर दूसरों की जरूरत के समय अपनी गरीबी दिखाने लगते हैं। फिर संभावना ज्यादा हो जाती है कि कहीं हमारी जिंदगी असल में ही ऐसी न हो जाये। ईश्वर सुख-दुख, रुपया-पैसा व अमीरी-गरीबी सबको देता है। जीवन में लगभग सभी के पास रुपये-पैसे के साथ सुख तथा कभी आर्थिक तंगी के साथ परेशानी व दुख भी आता है। ये सब क्रम से आते-जाते रहते हैं। इनमें से कोई भी एक चीज किसी के पास सदैव नहीं रहती। अगर आज किसी के पास पैसे की कमी है, और समस्याएं हैं, तो निश्चित रूप से कल नहीं होंगी। जबकि इसके उल्टे, उनके जीवन में सम्पन्नता तथा सुख है व इसके बाद भी परेशान दिखना तथा अपनी समस्याओं का दुखड़ा रोने से दूसरों की सहानुभूति हासिल करना ठीक नहीं होता है। प्राकृतिक रूप से भी यही है कि हम अपने बारे में जैसा आकलन करते हैं, सोचते हैं, और दूसरों को बताते व दिखाते हैं ठीक वैसा ही सब कुछ अपने आप परिवर्तित हो जाता है। और एक समय यह अपना पूरा साकार रूप ले लेती है। प्रबल संभावना यह हो जाती है कि सब कुछ होते हुए भी कुछ न होने का नाटक जैसी प्रतिक्रिया देने से एक दिन वैसी ही प्रकृति बन जानी निश्चित है। क्योंकि यह सर्वदाता ईश्वर की देयशक्ति व अनुकम्पा का सीधे तौर पर अपमान के बराबर है। किसी को अपनी क्षमतानुसार आर्थिक मदद या कुछ देने से एक उदार छवि बन जाती है, उसे लगता है कि यह व्यक्ति सम्पन्न है तथा लोगोंं के लिए बहुत मददगार है। इश्वर करे कि इसकी सम्पन्नता और बढ़े ताकि यह और ज्यादा लोगों का भला कर सके। किसी जरूरतमंद की आर्थिक सहायता करने या दान पुण्य में लगाया गया पैसा खजाने को खाली नहीं करता है, बल्कि इस पुनीत कार्य से किसी व्यक्ति या समाज का उद्धार होता है। साथ ही अपनी सार्मथ्यवश जो भी बन पड़ा ऐसा आत्मबोध होने से आत्मसंतुष्टि का भाव भी जागृत होता है। क्योंकि ईश्वर ही किसी योग्य व सक्षम व्यक्ति को अपना माध्यम बनाता है। फिर उसका खजाना भरने की जिम्मेदारी भी उसी की बन जाती है। एक कहानी है-एक टे्रन यात्रियों से भरी थी। एक अंधा भिखारी भी ट्रेन में चढ़ा व गाना गाकर भीख मांगने लगा। ऊपर की बर्थ पर बैठे एक व्यक्ति ने जेब से सिक्का निकालकर नीचे बैठे यात्री से भिखारी को देने को कहा। उस यात्री ने सिक्का भिखारी को दिया तो भिखारी उस व्यक्ति को दुआएं देने लगा। इस पर उस व्यक्ति नें भिखारी से कहा कि यह सिक्का ऊपर बैठे भाईसाहब ने दिया है। तब अंधे भिखारी ने कहा कि बाबू जी, अंधा मैं हंू लेकिन ऊपर वाला सबकुछ देखता है। वही सबको देता है। सच है कि ऊपर बैठा ईश्वर ही सबके लिए इंतजाम करता है। एक की मदद के लिए दूसरे को भेजता है। वह पूरी प्रक्रिया बनाता है। इसलिए, सक्षम होने पर किसी की सहायता करने से पीछे नहीं हटना चाहिए तथा हमारी कथनी भी नहीं होनी चाहिए कि मैं क्या कर सकता हंू? मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। इश्वर केवल उसी के पास ऐसा प्रस्ताव पहुंचाता है जो सक्षम होता है। मना करने, ठुकरानें या बहाना बनानें में व्यक्ति जो कुछ भी कहता है फिर ईश्वर उसी की बात को सही भी कर देता है। जब उस बनिया व्यापारी नें भिखारी के रूप में भगवान से धास व पत्तों की बात कही तो भगवान नें कहा कि जाओ तुम्हारा ही कथन सत्य हो जाय। और उसका सब कीमती सामान धास व पत्ता ही हो गया। समाज में बढ़ती हुई विडम्बना ही है कि वैसे तो हमारे पास सबकुछ होता है लेकिन जरूरतमंद की सहायता के समय सबकुछ खाली बताते हैं। किसी की मद्द से बचनें के लिए कहीं हमारी कथनी उस बनिया व्यापारी की तरह ही न हो जाये।