Thursday, August 26, 2010

गुस्से की आग सिर्फ मुआवजे तक सीमित नहीं

जब इंसाफ बराबर नहीं होता, बगावत तभी जन्म लेती है। इसी का उदाहरण है देश की जनता के लिए अन्न उगाने वाले किसानों के साथ संघर्ष की कहानी। कभी नंदीग्राम या सिंगूर में हुई, तो अबकी बार अलीगढ़, मथुरा व आगरा के आसपास के गांवों के किसानों नें सरकार के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया।
मसला अलीगढ़-आगरा-मथुरा पर बन रहे यमुना एक्सप्रेस-वे के लिए किसानों की उपजाऊ जमीन अधिग्रहण करने का है। किसान इसके विरोध में आ खड़े हुए हैं, क्योंकि किसी किसान को रोटी कमाकर देने वाली उसकी जमीन ही होती है। केवल शहर बसाने के नाम पर किसानों को उजाडऩा कैसे हितकर हो सकता है? भूमि अधिग्रहण जबरन व मनमानी न होकर किसानों की रजामंदी से हो तो ही अच्छा है। किसानों से उनकी रोजी-रोटी छीनने के बाद उनका जीवन यापन कैसे होगा? यह सोचना भी सरकार की नैतिक व संवैधानिक जिम्मेदारी बन जाती है। यह तो अक्सर फिल्मों में दिखाया जाता है कि कोई पूंजीपति या व्यापारी गरीबों की बस्तियां उजाड़कर वहां पर एक बहुमंजिला इमारत या बड़ा शॉपिंग कॉम्पलेक्स खोलना चाहता है। वहां की जनता इसका विरोध करती है। संघर्ष व खून खराबा होता है। इसी तरह का सीन अब किसानों के साथ भी देखा जा रहा है। एक राय में किसान अपनी जमीन सरकार को देने को तैयार हैं। बशर्ते, उनकी जमीन की कीमत नोएडा में दिये गये भूमि अधिग्रहण मुआवजे के बराबर हो। जबकि अलीगढ़ व मथुरा के कई गांवों की जमीन के मुआवजों की कीमत में ही खासा फर्क देखा जा रहा है। किसानों के साथ कोई नाइंसाफी न हो इसलिए अपनी आवाज को बुलंद करने के लिए किसानों की एक संघर्ष समिति भी बन चुकी है। जिसमें आंदोलित सभी किसान एकसाथ लामबद्ध हो रहे हैं। दूसरी तरफ किसान यह भी चाहते हैं कि उनकी अधिग्रहित जमीन का उपयोग टाउनशिप, औद्योगिक या व्यापारिक तरीके से न हो। दूसरों का पेट भरने वाले किसान, जिनके हाथों में हल होते हैं। आज इन्हीं के हाथों में खेती के औजार की जगह न्याय पाने के लिए लाठियां हैं। किसान अब आंदोलित हो रहे हैं, जिसकी साफ वजह सरकार की किसानों के प्रति उदासीन व असमान नीतियां हैं। जिसके कारण ही किसान अपने आपको ठगा महसूस करते हैं व उनके विरोधी स्वर उभर आते हैं। अलीगढ़ व मथुरा के किसान अपनी जमीन को औने-पौने दामों या सरकार द्वारा मनमानी मुआवजे पर देने को कतई तैयार नहीं है, और इसके लिए ये सब सड़कों पर उतर आये हैं। इस आंदोलन में किसानों के परिवार की महिलाएं व युवतियां भी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं। गैर सत्ताधारी दलों के नेता भी अब किसानों के सर्मथन में अपना-अपना नाम ऊंचा करने पहुंच रहे हैं। परंतु किसानों ने अभी किसी भी राजनीतिक दल का साथ नहीं पकड़ा है। कारण भी है कि सरकार बनाने के बाद कोई भी राजनीतिक दल किसानों के दर्द व दिक्कतों के बारे में नहीं सोचता व अभी तक कोई दल किसानों का पक्का हितैषी नहीं बन पाया। नतीजन, किसानों को किसी भी राजनीतिक दल पर भरोसा नहीं हुआ, और इसीलिए अब वह अपनी लड़ाई खुद लडऩा चाहते हैं। बसपा सरकार किसानों की जमीन का अपने मनमुताबिक मुआवजा तैयार करनें में जुटी है। उपजाऊ व पेट पालने वाली बेशकीमती जमीन की कौडिय़ों वाली कीमत किसानों को कतई रास नहीं आ रही है। वहीं पर कुछ किसान अपनी जमीन को किसी भी कीमत पर देना नहीं चाह रहे हैं। क्योंकि इन्हें इस बात का भी डर है कि जबरन भूमि अधिग्रहण के बाद इनकी जमीन का हस्तांतरण पूंजीपतियों या बड़े उद्योगपतियों के हाथों में चला जायेगा। इसी के साथ किसानों की भावी पीढिय़ां कहीं की नहीं रहेंगी। जैसे-जैसे आंदोलन की आग बढ़ती जा रही है, किसान एकजुट हो रहे हैं तथा उनकी आवाज बुलंद हो रही है। वहीं मायावती सरकार द्वारा किसानों की जमीन के मुआवजे की दर बढ़ा दी गई तथा किसानों के पुनर्वासन संबंधी योजनाओं पर विचार करना शुरू कर दिया गया। प्रदेश सरकार द्वारा अधिग्रहित जमीन के किसान परिवार के किसी एक सदस्य को सरकारी नौकरी देनें का भी अश्वासन आ गया है।

खुद से खुश रहें, अपने प्रशंसक स्वयं बनें



निजी व व्यक्तिगत जिंदगी में तो निराशा घर कर ही जाती है और जिसका प्रतिफल उसके काम-धंधे में भी देखा जाता है। आगे चलकर ऐसे व्यक्ति अपने आपको बड़े गर्व से नास्तिक बताते हैं। क्योंकि अपने ऊपर विश्वास न होने के कारण ही उनकी भगवान पर भी आस्था नहीं रह पाती। एक बात तय है कि जो लोग खुद पर भरोसा नहीं रखते, भला उन पर दूसरे कैसे भरोसा करें?

उस हिरन की कहानी तो सभी को मालूम है कि जो सुगंध की खोज में पूरे जंगल भटकता धूमता है, जबकि असली खुशबू खुद उसी के पास होती है। इसी तरह आम जिंदगी में भी मनुष्य सुख व शांति के लिए इधर-उधर घूमता-फिरता है, और सच यह है कि असली शांति व सुख मनुष्य के अंदर पहले से ही होता है। मात्र अनुभव की कमी होती है। जरूरत केवल इस बात की है कि हम उस पर ध्यान दें व इसे विकसित कर बाहर निकालें। स्वयं से प्यार करना शुरू करें। अपने आपको प्रेम से इतना भर दें कि चारों ओर प्रेम ही प्रेम बिखर जाये। बाहरी दुनिया में हम देखते हैं कि कोई न कोई व्यक्ति किसी न किसी का प्रशंसक हो जाता है। उसे पसंद करने लगता है तथा उसे अपने जीवन का आदर्श बना लेता है। अपना प्रेरणास्रोत बना लेने से जीवन के लिए ऊर्जा उसे वहीं से मिलती रहती है। इसी के उल्टे, एक व्यक्ति को अपने जीवन से इस कदर खीज उठती है कि वह स्वयं से नफरत करने लगता है। स्थिति यह हो जाती है कि वह धीरे-धीरे निराशावाद में घिरता चला जाता है। उसके जीवन से उत्साह गायब मिलता है। ऐसे व्यक्ति अक्सर किंकर्तव्यविमूढ़ होकर बात-बात पर अपनी ही किस्मत को कोसा करते हैं। सबसे पहली बात तो ऐसा व्यक्ति अपने आपको पहचान नहीं पाता है व अपने अंदर आनंद व खुशी को पैदा करने में भी अक्षम होता है। इसका मूल कारण होता है कि स्वयं से भरोसा उठ जाना। इसका परिणाम यह होता है कि उसकी हर एक बात में नकारात्मकता ही दिखाई पड़ती है। निजी व व्यक्तिगत जिंदगी में तो निराशा घर कर ही जाती है और जिसका प्रतिफल उसके काम-धंधे में भी देखा जाता है। आगे चलकर ऐसे व्यक्ति अपने आपको बड़े गर्व से नास्तिक बताते हैं। क्योंकि अपने ऊपर विश्वास न होने के कारण ही उनकी भगवान पर भी आस्था नहीं रह पाती। एक बात तय होती है कि जो लोग खुद पर भरोसा नहीं रखते, उन पर दूसरे कैसे भरोसा करें? यह बात अपने आप में बहुत महात्वपूर्ण है, क्योंकि कहते हैं कि जो लोग खुद पर विश्वास करते हैं, उन पर सभी लोग भरोसा करते हैं। विश्वास की परंपरा भी यही है कि पहले आप अपने पर विश्वास जमाएं, फिर इसकी छाप दूसरों पर अवश्य ही पड़ेगी। सबसे पहले खुद को पसंद करना पड़ता है, फिर दूसरे पसंद करते हैं। अपना प्रशंसक पहले स्वयं बनना पड़ेगा, बाद में लोग आपकी प्रशंसा करेंगे। वास्तु शास्त्र के अनुसार अपने कमरे में व्यक्ति को अपना एक मुस्कराता हुआ फोटो अवश्य लगाना चाहिए। इसका असर होता है कि जब कभी भी किसी मुसीबत या परेशानी में खुशी के दौर का अपना चित्र देखते हैं, तो एक सकारात्मक व सधन ऊर्जा तुरंत ही महसूस की जा सकती है। ऐसी अनुभूति होने से शरीर की सारी नकारात्मक ऊर्जा, उदासी व निराशावाद अपने आप खत्म होने लगता है। ऐसा अक्सर व लगातार करने से स्वयं से प्यार बढ़ता जायेगा। जैसा कि देखा जाता है कि कभी अच्छे कपड़े पहनने पर या फिर कोई अच्छा काम करने के बाद शीशे के सामने खड़े होने से व्यक्ति को अच्छा अनुभव होता है। ठीक इसी तरह यह अनुभूति भी बढ़ती जाती है। खुद से मोहब्बत होना बहुत जरूरी है, इसके बाद ही खुदा से मोहब्बत का मतलब निकलता है। जिंदगी जीने के लिए तो असीम ऊर्जा की हर दिन आवश्यकता होती है। घरेलू काम से लेकर काम-धंधे तक हर वक्त एक खुशनुमा माहौल की जरूरत होती है। इसके लिए आवश्यक है कि व्यक्ति खुद से खुश रहे। उसके अंदर ही खुशी का अहसास रहे। एक व्यक्ति जो महसूस करता है, बाहरी तौर पर सब उसका गुणनफल ही होता है। अगर उसके अंदर खुशी का भाव है, तो बाहर भी खुशी बढ़ेगी। यदि उसके अंदर दुख या पीड़ा हुई तो निश्चित रूप से वही बढ़ेगी। एक उदाहरण है कि एक व्यक्ति की ऑफिस जाते वक्त किसी बात पर अपनी पत्नी से कहासुनी हो जाती है। इसका असर यह होता है कि आदमी की सबसे पहले टैक्सी वाले से बहस होती है, फिर चपरासी से, सहकर्मियों से व बाद में ऑफिस देर से पहुंचने पर बॉस से झाड़ पड़ती है। पूरा दिन बेकार की बहस में ही निकल जाता है। इस एक घटना से पूरे परिवारजनों का मूड खराब हो जाता है।

भारत की राजनीति में अब दिखे युवा तस्वीर


नेहरु जी का सपना सच करने के लिए नेहरु-गांधी परिवार के युवराज कहे जाने वाले युवा सोच के मालिक राहुल गांधी ने इसकी एक झलक दिखला दी है। पूरे देश में एकसाथ जमीन से जुड़े बिल्कुल नये चेहरों को राजनीति में प्रवेश दिला लोकतंत्र में एक नई व युवा नजीर पेश की। राहुल गांधी का मिशन २०१२ फतेह करने की यह नई युवा सेना होगी। जिसकी बागडोर युवा राहुल खुद संभालेंगे।

आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु बच्चों के चाचा नेहरु कहे जाते हैं। नेहरु जी को बच्चे बहुत प्रिय थे, उन्हें बच्चों के प्रति बेहद लगाव था। इसीलिए बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के प्रति वह दृढ़ संकल्पित थे। उनकी नजर में आज के बच्चे ही कल के युवा व भारत का भविष्य है। इसी कड़ी में एक फिल्म का गीत भी कहता है- इंसाफ की डगर पे बच्चों दिखाओ चलके, यह देश है तुम्हारा नेता तुम्ही हो कल के। परंतु आज अपने देश में युवाओं की तस्वीर ज्यादा अच्छी नहीं कही जा सकती है। देश की युवा जनता का हाल बहुत बेहाल है। देश के भविष्य की चिंता करने वाले जिम्मेदार राजनीतिज्ञों को युवाओं के लिए हर क्षेत्र में अवसर सुलभ कराने के साथ राजनीति को भी आम युवा वर्ग के बीच लोकप्रिय बनाना होगा। देश के विकास में सबसे बड़ी भूमिका लोकतंत्र की होती है, जिसमें देश की जनता अपना प्रत्याशी चुनकर भेजती है। उद्देश्य होता है कि संबंधित लोकसभा व विधानसभा क्षेत्र का समुचित विकास करवाना। अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले नेता या मंत्री विकासोन्मुखी योजनाओं की सिफारिश व लागू करवाते हंै। क्षेत्र का विकास इन्हीं लोगों पर निर्भर करता है। लेकिन ज्यादातर देखने में यह आता है कि आजकल की अधिकतर गठबंधन सरकारें जमीनी सुधार व विकास कराने के बजाय सरकार व अपनी सीट बचाने के काम में लगे रहते हैं। सत्ता लोलुपता के लिए शीर्ष स्तर के नेता व मंत्री भी अपनी सरकार बनाये रखने के लिए किसी भी दल या प्रत्याशी से गठजोड़ करने से भी गुरेज नहीं करते। सत्ता को हथियानें के लिए लगभग सभी छोटे-बड़े दल कुर्सी दौड़ में दिखते हैं। सत्ता पक्ष अपनी कुर्सी बचाने में लगी रहती है तो विपक्ष व अन्य दल सरकार गिराने के पक्ष में रहते हैं। जमीनी आधार पर लोक कल्याण के विकास का मुद्दा कम एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ ज्यादा होती है। संसद का प्रश्नकाल तो कम ही होता है, इस बीच यहां पर आपसी उठापटक, खींचातानी व संसद के अंदर ही मारपीट व झगड़ा फसाद कर संसद का सम्मान भी कलंकित किया जाता है। देश की जनता की सुध लेने में ज्यादा कोई दिलचस्पी नहीं दिखाता, इन्हें केवल रुचि अपने निजी फायदे व पार्टी हित की होती है। देश हित की बातें अंदरूनी तौर पर कम लोगों में ही देखी जाती हैं। अक्सर टीवी पर संसद में बहस की जगह बवाल देखकर देश की जनता ठगी सी व बेचारी हो जाती है। देश के सम्मानित कर्णधार नेता लोकहित के मुद्दे छोड़कर आपसी छींटाकशी में समय जाया कर देते हंै। देश की हर छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टी हमेशा दूसरे दल की कमजोरी व कमी ढंूढ़ा करती है ताकि मौका मिलते ही किसी को भी घसीट दिया जाये। ज्यादातर सभी दलों के बीच यही खेल चला करता है। देश के वास्तविक विकास को कोई महत्व नहीं देता। होना तो यह चाहिए कि अगर कोई दल अच्छा काम या योजना लागू करता है तो सकारात्मक तौर पर उससे अच्छी जनसेवा की भावना रखी जाये, नाकि उसकी केवल कमियां ही निकाली जाएं। अपने दल को लोकसेवा में बीस साबित करने के बजाय अक्सर पार्टियां दूसरे दल को छोटा दिखाने में ही अपनी ऊर्जा व समय नष्ट कर देते हैं। स्थिति यह है कि एक या दो सीट हासिल करने वाले तथा अपने आपको राष्ट्रीय दल कहने वाले भी इस काम में लगे रहते हैं, वो भी सत्ता पाने के जुगाड़ में लगे रहते हैं। हालत यह होती है कि मौका पड़ते ही अपनी पार्टी छोड़कर दूसरे सत्ता पक्ष के दल में जा घुसते व समर्थन दे देते हैं। एक दल का घंघोर विरोधी कब उस पार्टी का हितैषी हो जाये, इसमें भी बहुत आश्चर्य नहीं होता। आज के मौजूदा राजनीतिक माहौल में देश के राजनेता, मंत्रियों व दलों की छवि कैसे लोकप्रिय हो? यह एक अहम विषय है। जनप्रिय नेता व मंत्रियों का स्वरूप कैसा हो, कैसे ये सभी जनता व देश हित के बारे में सोचे व काम करें? इसके लिए इनके चयन में ही जमीनी बदलाव की आवश्यकता महसूस की जा सकती है। अब बारी है कि हर एक राजनीतिक दल युवाओं के बारे में गंभीरता से विचार करे तथा अपना जनाधार बढ़ाने के लिए युवाशक्ति को बागडोर सौंपे। इसकी एक अच्छी पहल हो चुकी है। नेहरु जी का सपना सच करने के लिए नेहरु-गांधी परिवार के युवराज कहे जाने वाले युवा सोच के मालिक राहुल गांधी ने इसकी एक झलक दिखला दी है। पूरे देश में एकसाथ जमीन से जुड़े बिल्कुल नये चेहरों को प्रवेश दिला लोकतंत्र में एक नई व युवा नजीर पेश की। राहुल गांधी का मिशन २०१२ फतेह करने की यह नई युवा सेना होगी। जिसकी बागडोर युवा राहुल खुद संभालेंगे। युवाओं को राजनीति में लाने के इस कार्यक्रम में सबसे अहम बात यह है कि नई पीढ़ी के जमीन से जुड़े लोगों को इसमें तरजीह दी गई है। जमीन से जुड़े साधारण लोगों को राजनीति में लाया जा रहा है। राहुल गांधी की पहल बेशक रंग लाएगी।

Tuesday, August 3, 2010

जब पर्यावरण सुधरेगा, तभी देश बढ़ेगा


असंतुलित पर्यावरण की मार से मौसम के सभी चक्र दुष्प्रभावित हो जाते हैं। समय पर सर्दी न पडऩे या पाला गिरने तथा प्रचुर मात्रा में समय पर बरसात न हो पाने से किसान नुकसान में आ जाता है। इन सबका खामियाजा हम सबको फिर महंगाई के रूप में देखना पड़ता है। क्योंकि आबादी व लागत के हिसाब से अनाज नहीं पैदा हो पाता, फलस्वरूप कीमतें बढ़ जाती हैं। पानी फसलों के लिए अमृत होता है।

पानी और हवा मनुष्य की खास जरूरतें हैं। इसके बिना किसी भी जीव का इस धरती पर जीना बहुत मुश्किल है। शुद्ध वातावरण व पर्यावरण हर जीव की प्रथम आवश्यकता है। बढ़ती हुई जनसंख्या के हिसाब से संसाधनों की सीमितता तो पर्यावरण असंतुलन की एक वजह है ही, इसके अलावा आम लोगों का गैर जिम्मेदाराना व लापरवाह रवैया भी कुछ कम नहीं। पर्यावरण को भाुद्ध व वातावरण को साफ-सुथरा बनाने के लिए सबकी पहल व सहभागिता बहुत आवश्यक है। आज देश के कई हिस्सो में लोग पानी की समस्या से जूझ रहे हैं। एक ताजा सर्वे के अनुसार जल संसाधन व स्रोतों में कमी आ रही है। अगर समय से न चेता गया तो आने वाले वर्षों में पानी के लिए त्राहि-त्राहि मच सकती है। जमीनें पूरी तरह से सूखती जा रही हैं, पर्याप्त मात्रा में पानी न मिल पाने के कारण नमी खत्म हो रही है। पानी का फिजूलखर्च तो काफी है, परंतु पर्याप्त मात्रा में जल संरक्षण कहीं नहीं दिखता। पर्यावरण के गड़बड़ाने से वर्षा भी प्रभावित होती है। वैसे, पानी की कमी को प्राकृतिक रूप से वर्षा पूरा कर देती थी, परंतु वनों के प्रति उदासीन रवैये से ही पेड़ घटते जा रहे हैं व जंगल खत्म होते जा रहे हैं। जबकि पेड़ वर्षा में सहायक होते हैं। पेड़ जहां हवा को शुद्ध करने का काम करते हैं, वहीं कई अमूल्य जड़ी व जीवन औषधियां भी इन्हीं जंगलों से मिलती हैं। देखा जाये तो वनों को संरक्षण देने से पानी की कमी को पूरा किया जा सकता है। दूसरी तरफ हमारे देश की फसलें व खेती भी पानी पर ही निर्भर रहती हैं। फसलों को पर्याप्त मात्रा में पानी न मिल पाने व बेमौसम की बरसात फसलों को खराब कर देती है, और कभी-कभी तो 'का वर्षा जब कृथिन सुखानी' जैसी कहावत देखने को मिलती है। असंतुलित पर्यावरण की मार से मौसम के सभी चक्र दुष्प्रभावित हो जाते हैं। समय पर सर्दी न पडऩे या पाला गिरने तथा प्रचुर मात्रा में समय पर बरसात न हो पाने से किसान नुकसान में आ जाता है। इन सबका खामियाजा हम सबको फिर महंगाई के रूप में देखना पड़ता है। क्योंकि आबादी व लागत के हिसाब से अनाज नहीं पैदा हो पाता, फलस्वरूप कीमतें बढ़ जाती हैं। पानी फसलों के लिए अमृत होता है, वनों के या पेड़ों के कम होने से वर्षा का मौसम भी डगमगा जाता है। इसलिए वन बचाओ अभियान और व्यापक होना चाहिए। साथ ही नये पेड़ों को लगाने व उनकी देखभाल की नैतिक जिम्मेदारी हर इंसान की बन जाती है। पानी तथा पेड़ दोनों बचाने जरूरी हैं क्योंकि किसी एक को न बचाने से पर्यावरण की पूरी शृंखला कमजोर होती है। गांवों से लेकर शहर तक का पर्यावरण व वातावरण में प्रदूषण फैला हुआ है। शहरों की सड़कों पर कहीं कारखानों की चिमनियों से या फिर माल ढोने वाले छोटे-बड़े वाहनों से उड़ता जहर उगलते धुएं से लोग पीडि़त हैं। सड़कों पर बढ़ती हुई पेट्रोल व डीजल चलित गाडिय़ों की तादात भी वायु के साथ ध्वनि प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं। जहां शहरों में 'सेव इन्वायरनमेंट, सेव पीपल। क्लीन सिटी, ग्रीन सिटी। सेव वाटर सेव लाइफ जैसे स्लोगन प्रचार में तो आते हैं और लोगों की जागरुकता बढ़ाते हैं, परंतु इन सबका प्रायोगिक रूप से सामूहिक प्रयास व इस्तेमाल नाकाफी दिखता है। उदाहरण स्वरूप घरों से रोजाना निकलने वाला कूड़ा आसपास के वातावरण को दूषित करता है, जिससे अनेक प्रकार की की गंभीर बीमारियों का संक्रमण भी फैल सकता है। इसमें सबसे ज्यादा घातक होता है किसी भी तरह से नष्ट न होने वाला कूड़ा जिसमें प्रमुख तौर पर सबसे आजकल सबसे ज्यादा प्रयुक्त होने वाला है प्लास्टिक या पॉलीथिन। आज बाजारों में दुकानदारों के साथ उपभोक्ताओं को भी प्लास्टिक के थैलों में ज्यादा सहूलियत दिखाई पड़ती है। हर बाजार व दुकान में सामान पॉलीथिन के लिफाफों में दिया जाता है। आज मुश्किल से ही कोई जागरूक ग्राहक कपड़े का थैला लेकर बाजार जाता है। सब्जी हो या अन्य घरेलू रोजमर्रा का सामान सबकुछ प्लास्टिक के थैलों में बेचा व खरीदा जाता है। बात यह है कि एकबार प्रयुक्त होने वाले पॉलीथिन के यह लिफाफे किसी भी तरह से नष्ट नहीं हो सकते। गलती से इन्हें जला देने से वैज्ञानिक दृष्टि से इसका धुआं व गैस सैकड़ों सालों तक वातावरण को जहरीला बना देता है। जबकि निम्न स्तर की पॉलीथिन खाद्य पदार्थों के लिए बहुत नुकसानदेह होती है। कुल मिलाकर प्लास्टिक हमारे पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचाती है। पर्यावरण को दूषित करने वाले असली कारकों को पहचान कर उनको स्वस्थ वातावरण के लिए हटाने की प्राथमिकता ही देश के स्वस्थ विकास की सीढ़ी हो सकती है।

बलिहारी गुरु आपने राह दियो दिखाये


जीवन में क-ख-ग से लेकर जीवन व प्रकृति से जुड़ी तमाम जानकारी का ज्ञान हमें स्कूल या विद्यालय में गुरु ही कराते हैं। सांसारिक, आध्यात्मिक व विभिन्न धर्मों की शुरुआती शिक्षा स्कूल के शिक्षक ही देते हैं, इसलिए ये हमारे लिए प्रांरभिक गुरु हैं। घरों में माता-पिता बच्चों के घरेलु गुरु कहे गये हैं क्योंकि आचरण व व्यावहारिक शिक्षा का पाठ बच्चे घर से ही सीखना शुरु करते हैं।


जीवन वन में सफलता के लिए गुरु का सानिध्य बहुत आवश्यक है। गुरु के बिना कुछ भी हासिल करना बहुत कठिन होता है। वह हमें सही रास्ता दिखाता है, मार्ग का सही पता न होने पर हम चल तो सकते हैं परंतु भटकाव हो सकता है। इसलिए गुरु को पथ प्रदर्शक भी कहा गया है।
सांसारिक जीवन में आध्यात्मिक गुरुओं का बहुत महत्व है। इसके साथ जीवन के हर कार्यक्षेत्र में भी गुरु का साथ जरूरी है और गुरुजनों के अतुलनीय योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। चाहे वह शुरुआती तौर पर शिक्षा बांटने वाले शैक्षिक गुरु की भूमिका हो या फिर आजकल के कामकाजी माहौल में व्यावसायिक गुरु की। जीवन की हर व्यक्तिगत या व्यावसायिक सफलता में सभी गुरुजनों का अपना अहम किरदार है। प्रारंभिक जीवन में क-ख-ग से लेकर जीवन व प्रकृति से जुड़ी तमाम जानकारी का ज्ञान हमें स्कूल या विद्यालय में शिक्षक ही कराते हैं।
सांसारिक, आध्यात्मिक व विभिन्न धर्मों की शुरुआती शिक्षा स्कूल के शिक्षक ही देते हैं, इसलिए ये हमारे लिए प्रांरभिक गुरु हैं। घरों में माता-पिता बच्चों के घरेलु गुरु कहे गये हैं क्योंकि आचरण व व्यावहारिक शिक्षा का पाठ बच्चे घर से ही सीखना शुरु करते हैं। इस प्रकार माता-पिता बच्चों के नैतिक गुरु कहे जा सकते हैं। जीवन के अगले पड़ाव में जब हम स्कूल-कॉलेज से निकलकर जिंदगी की कर्मभूमि या अपने कार्यक्षेत्र में प्रवेश करते हैं, तब हमें आवश्यकता होती है एक अनुभवी कॅरियर गुरु की। जो हमें समय-समय पर अपनी सही सलाह देकर उचित मार्ग को अपनाने की राय देता है।
हमारी योग्यता का सही आकलन करके अनुकूल लक्ष्य की ओर पथ प्रदर्शित भी करता है। आजकल के व्यावसायिक युग में भी गुरुओं की भूमिका कुछ कम नहीं। इनको व्यावसायिक गुरु की संज्ञा दी गई है। जो हमें अपने काम या व्यापार को बढ़ाने की मार्केटिंग टिप्स व वर्तमान समय की बाजार व्यवस्था तथा योजना के बारे में पूरी जानकारी देते हैं।
किसी भी काम या व्यवसाय में सफलता पाने के लिए इन व्यावसायिक गुरुओं के पास ढेरों फॉर्मूले हरवक्त मौजूद रहते हैं। ये सब अपने कार्यक्षेत्र के विशेषज्ञ के रूप में कार्य करते हैं। सेल्स स्टाफ को विशेष तौर पर तैयार करने के लिए अलग प्रशिक्षक गुरु होते हैं, जो लोगों को बाजार की बारीकी समझाते हैं। सभी व्यावसायिक गुरुओं के पास अपार अनुभव होता है, जिसके प्रयोग से हम अपने काम या व्यापार में तरक्की करते हैं। उम्र की तीसरी अवस्था में सांसारिक सुख व शांति के लिए आध्यात्मिक गुरुओं का सानिध्य व सत्संग को सर्वोच्च समझा गया है। आध्यात्मिक गुरु के बिना ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करना बहुत कठिन है। ज्ञान के प्रकाश से ही अज्ञानता का अंधकार अपने आप मिट जाता है, साथ ही आत्मीय सुख व अलौकिक शांति का अनुभव किया जा सकता है।
गुरु की कृपा से ही होने वाली अमृत वर्षा से रोम-रोम रोमांचित व प्रफुल्लित हो उठता है। इसलिए ईश्वर का गुणगान करने वाले गुरुओं को देवगुरु भी कहा जाता है। क्योंकि यही गुरु भौतिकवादी मनुष्य व अलौकिक परमात्मा के बीच सेतु की तरह होते हैं। यर्थाथ भी यही है कि संसार छूटने की बारी आने से पहले ही झूठी सांसारिक माया को छोड़कर परमात्मा की सच्ची सत्ता से जुड़ सकें। ऐसा ही ज्ञान हमें अपने आध्यात्मिक गुरु से मिलता है। यही गुरु ही हमारी सांंसारिक नैया का कुशल व अनुभवी खेवैया होता है। भगवान की शरण में ले जाने वाला गुरु ही होता है। एक श्लोक है कि गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागहु पाएं, बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय। गुरु को देव से बढ़कर भी बताया गया है, क्योंकि गुरु के बिना भगवान के यहां तक पहुंचने का मार्ग पता नहीं चल पाता। बिना गुरु के परमात्मा से साक्षात्कार बहुत मुश्किल होता है और भगवान को नहीं पाया जा सकता है। हर लिहाज से गुरु और शिष्य का रिशअता सबसे पवित्र व आत्मीय होता है। गुरु चाहे वह किसी भी क्षेत्र से हो, उसका ज्ञान हमेशा अनुकरणीय होता है।
एक बार गुरु मान लेने के बाद उसकी कही हुई बातों में तनिक भी संशय नहीं होता, बल्कि एक विश्वास ही होता है जो हमारी आत्मशक्ति को बढ़ाता है। जिससे जीवन की किसी भी स्थिति से गुजरने की ताकत, साहस व धैर्य भी स्वत: ही उत्पन्न होने लगता है। आगे का कठिन रास्ता उसके अनुकरण से आसान लगने लगता है। सभी गुरुओं के पास ज्ञान और अनुभव की ऐसी अपार गंगा होती है कि जिसके तनिक से जल से ही हम लाभान्वित व उनके अनुग्रहित हो जाते हैं। गुणों से भरे हुए व्यक्ति को गुरु कहा जा सकता है और गुरु किसी भी उम्र का हो सकता है। जो व्यक्ति हमको कुछ सिखला सकता है, वह हमारा गुरु है और हम उसके शिष्य हो जाते हैं।

दुनिया में दुर्लभ व अमूल्य है ईश्वरीय खजाना





हममें से अधिकतर लोग आज जिंदगी के मूल्यवान ढेर से कूड़ा बीनने ही जैसा काम कर रहे हैं। इनको जिंदगी गुजारने के लिए पैसे तो मिल रहे हैं, परंतु उनकी आवश्यकताओं की लम्बी-चौड़ी फेहरिस्त होने से सच्ची भांति नहीं महसूस हो पाती। और इस तरह आदमी हर समय और अमीर बनने के तरीके खोजा करता है। नतीजन, लोग भौतिक वादी रूप से अधिक महात्वाकांक्षी होते जा रहे हैं।


एक बार की बात है कि एक आदमी कूड़े से रद्दी-कागज व प्लास्टिक आदि बीनता व कबाड़ी को बेचकर अपने परिवार का पालन-पोषण किया करता था। एक दिन वह कूड़े से कागज आदि बीन रहा था, उसी समय एक संन्यासी उसके पास आया और उससे पूछने लगा-यह तुम क्या कर रहे हो? कूड़ा बीनने वाले ने संन्यासी से कहा कि वह कबाड़ी को चीजें बेचता है, जिससे उसके घर का गुजारा चलता है। संन्यासी ने कहा कि यहां से कुछ ही दूर पर कई कीमती वस्तुएं जैसे लोहा व एल्युमीनियम आदि पड़े रहते हैं, तुम उन्हें उठाकर क्यों नहीं बेचते! उससे तुम्हें ज्यादा पैसे मिल सकते हैं। इसके बाद से कूड़ा बीनने वाले की जिंदगी ही बदल गई। क्योंकि जहां वह एक दिन में बड़ी मुश्किल से कुछ ही पैसे कमा पाता था, वहां कीमती चीजें बेचने से उसे अच्छे पैसे मिल जाते थे। इस प्रकार उसकी जिंदगी अच्छी तरह चलने लगी व उसका परिवार भी अब पहले से कहीं अधिक खुशहाल था। देखा जाए तो हममें से अधिकतर लोग आज जिंदगी के मूल्यवान ढेर से कूड़ा बीनने ही जैसा काम कर रहे हैं। इनको जिंदगी गुजारने के लिए पैसे तो मिल रहे हैं, परंतु उनकी आवश्यकताओं की लम्बी-चौड़ी फेहरिस्त होने से सच्ची भांति नहीं महसूस हो पाती। और इस तरह आदमी हर समय और अमीर बनने के तरीके खोजा करता है। नतीजन, लोग भौतिक वादी रूप से अधिक महात्वाकांक्षी होते जा रहे हैं। कूड़ा बीनने वाले की कहानी भी बिल्कुल ऐसी ही है। कीमती चीजों को बेचने से उसका भी स्तर ठीक हो गया था। वह पहले से अधिक धनवान भी हो गया। पंरतु, उसे पैसे की भूख और अधिक बढ़ गई थी। उसे भी इतने से संतुष्टि नहीं हुई। एक दिन फिर वही संन्यासी उस व्यक्ति से मिला। उसकी संपन्नता देखते हुए उसका हालचाल पूछा-कि अब तो आप खुश हैं, आपका काम ठीक से चल रहा है! अब तो आप बड़े व्यापारी हो गये हैं। व्यापारी नें कहा कि महाराज! आप तो बड़े जानकार हैं, जल्दी से मुझे करोड़पति बनने का और कोई रास्ता बताइये। इस समय मैं संतुष्टि व भांति का अनुभव नहीं कर पा रहा हंू। संन्यासी ने कहा कि कोई बात नहीं, मैं तुम्हें अब उस जगह का पता बताता हंू, जहां पर सबसे मूल्यवान व कीमती चीजें मिलती हैं। सोना, चांदी, हीरा व मोती का खजाना है वहां। जिससे तुम बहुत जल्दी अमीर व करोड़पति बन सकते हो। उस व्यापारी की खुशी का तो ठिकाना ही न रहा। उसने जल्दी ही उस जगह का पता लगाकर काम चालू कर दिया। धीरे-धीरे करके वह अब सोने व कीमती आभूषणों का बहुत बड़ा सेठ हो गया। अब तो उसके पास कई बड़े-बड़े बंगले व आलीशान गाडिय़ां व दर्जनों नौकर हमेशा उसके आगे-पीछे घूमते रहते। इस तरह से सेठ के पास करोड़ों रुपये की संपदा इकट्ठा हो गई थी। परंतु, उसकी मानसिक स्थिति पहले से कहीं अधिक खराब हो चुकी थी। इतनी बड़ी संपदा का रखरखाव करना उसे बड़ा मुश्किल लग रहा था। चोरों का भी डर था उसे, व्यापार में भी नुकसान होने का भय लगा रहता था। उसके पास पैसे की कोई कमी नहीं थी, और न ही अब कोई चाहत भी। लेकिन, मन हमेशा अशांत व परेशान रहता। मन की दशा भी यही है कि धनवान बन जाने की अपार इच्छा व धन संचय के लिए हम प्रयासरत रहते हैं। कितना भी धन मिल जाने या हो जाने पर भी मन नहीं मानता। मन और ज्यादा की मांग हमेशा करता है, जल्दी से जल्दी अमीर या करोड़पति हो जाना चाहता है। उसे लगता है कि खूब, भरपूर पैसा व संपदा के मालिक होने पर ज्यादा सुख व शांति मिलती है। परंतु, ऐसा नहीं होता, अगर ऐसा होता तो कूड़ा बीनने वाला व्यापारी बना, फिर बड़ा सेठ हो जाता है। अब उसके पास सब कुछ है, लेकिन असली शांति की तलाश उसकी अब भी बाकी है। नियति व संयोग से कई वर्षों के बाद एक दिन फिर वही संन्यासी उसी व्यापारी सेठ से अचानक टकरा जाता है। सेठ तुरंत उसके पैरों पर गिरकर कहता है- महाराज! कुछ करिये, मुझे शांति नहीं मिल पा रही। मैं बहुत परेशान हो चुका हंू। संन्यासी ने झट कहा-चलो, अब मैं तुम्हें दुनिया के सबसे बहुमूल्य व अमूल्य खजाने का पता बताता हूं। व्यापारी सेठ बोला-महाराज! नहीं, मुझे अब कोई खजाना नहीं चाहिए, मैं इन सबसे तंग आ गया हंू। संन्यासी नें कहा कि मैं तुम्हारी स्थिति समझ चुका हूं। अभी तक मैंने तुम्हें सभी भौतिक खजानों के पते बताये हैं। अब मैं तुम्हें ईश्वरीय खजाने का पता बताता हूं, जो असली खजाना है। जहां पर ही तुम्हें सच्ची शांति व संतुष्टि का अनुभव होगा। उस खजाने को पाने के लिए तुम्हें कहीं और जाने की भी आवश्यकता नहीं क्योंकि वह अमूल्य खजाना तुम्हारे अंदर ही छिपा है, और उस खजाने का लुट जाने का भी डर नहीं। इससे बड़ी दौलत व खजाना पूरी दुनिया में नहीं है। सेठ ने संन्यासी को दंडवत प्रणाम किया व नये खजाने की खोज के लिए चल दिया।