Sunday, October 31, 2010

मोटिवेट करने की क्षमता बेजुबान चीजों में भी


जब हमारा शरीर थकने लागता है, मन अचानक धबरा जाता है कि फलां काम में सफलता मिलेगी या नहीं। तभी, मन को मोटिवेशन की तुरंत आवश्यकता पड़ती है। यही मोटिवेटिंग प्वाइंट ही हमें पीछे से हमारे लक्ष्य की ओर तेजी से ठकेलता है।
सफलता के पथ पर मंजिल को पाने की तीव्र इच्छा कई व्यवसायिक गुरु जगाते हैं तथा जोश भरने का काम करते हैं, जिनकी प्रेरक व उर्जा भरी बातों से लक्ष्य तक पहुंचने की लालसा बढ़ती जाती है। लेकिन, इसी बीच कुछ प्रेरणास्रोत व्यक्तियों के अलावा कई बेजुबान चाजें भी हमें मंजिल की ओर मोटिवेट कर देती हैं। इनमें एक अजीब से आकर्षण के साथ एक जबरदस्त तेजी भी देखी जाती है। और इस तरह से अपनी मन चाही चीज हासिल करने में इनका योगदान भी कुछ कम नहीं होता है।
जैसे हमारा शरीर मजबूत, हष्टपुष्ट व ताकतवर बनता है उचित खानपान से, उसी तरह हमारे इरादों को भी जरुरत होती है उर्जा व लगन की। जिसको विटामिन व प्रोटीन मिलता है समय पर मोटिवेशन मिल जाने से। हम सभी अक्सर दूसरों से प्रेरणा लेते हैं तथा इसके साथ ही खुद को मोटिवेट करने के नये तरीके खोज लेते हैं। सफलता का सफर बोझिल व नीरस न बनने पाये, इसके लिए अपने चारों तरफ से ही किसी एक को अपना मोटिवेटिंग प्वाइंट बनाना सफल होने में मील का पत्थर साबित हो सकता है। क्योंकि अपने लक्ष्य के प्रति लगे रहने की प्रवृत्ति व आदत बहुत आवश्यक है। कोई अपना कॅरियर बनाने के लिए दिन रात पढ़ाई करता है कि एक दिन वह कुछ बन कर दिखायेगा, अच्छी नौकरी मिलेगी, पैसा होगा। यह सब बच्चे के माता पिता व गुरु भी उसे सिखाते हैं। लेकिन सही मायनों में उसकी इच्छा तब परवान चढ़ती है, जब वह अपने आस पास के किसी व्यक्ति को इस तरह से किसी मुकाम तक पहुंचते हुए देखता है। यहां से उसको सही मोटिवेशन मिलता है। इसके इरादों में अब और मजबूती व तेजी देखी जाती है। कोई सरकारी नौकरी या प्रशासनिक सेवा के लिए किसी को अपना मोटिवेशन बना लेता है, तो कोई व्यापार में मोटिवेशन के लिए टॉप बिजनेस मैन को अपना प्रेरक स्वरुप बनाता है। कोई स्पोटर््स में अपना कॅरियर बनाना चाहता है तो शिखर को छूने वाले खिलाड़ियों को देखकर मोटिवेट हो जाता है।
शरीर का विकास विटामिन व प्रोटीन से होता है, कॅरियर में आगे बढ़ने तथा अपनी इच्छाओं को जाग्रत रखने तथा इन्हें और बल देनें के लिए अपने मोटिवेशन की तलाश नितांत आवश्यक है। जिसके सहारे हम अपनी मंजिल तक हंसते मुस्कराते पहुंच सकते हैं। किसी विद्यार्थी का अलग मोटिवेटिंग प्वाइंट हो सकता है, तो किसी व्यापारी अलग तरीके से अपनी उर्जा ढूंढ लेता है। एक सफल व्यक्ति जाने अनजाने आसानी से किसी का मोेटिवेटर हो जाता है। इनके अन्दर असीम प्रेरक क्षमता व अनुभव का आकर्षण पाया जाता है। जिसके तहत एक सफल व उपलब्धिवान व्यक्ति को लोग अपना रोल-मॉडल बना लेते हैं, व उनके नक्शे कदम पर चलने से अपने आप को सुरक्षित भी महसूस करते हैं तथा अपनी मंजिल तक जा पहुंचते हैं। लेकिन इसी बीच कुछ बेजुबान चीजें भी बहुतों को अपने अनोखे तरीके से लुभाती हैं तथा आगे बढ़ने के लिए अनवरत प्ररित करती रहती हैं। मसलन, सड़कों पर फर्राटा मारती हुई चमचमाती हुई गाड़ियां भी किसी का मोटिवेशन हो सकती है। ये बेजुबान होते हुए भी लोगों को मोटिवेट करती हैं, और लोग भी इसको अपना टारगेट बना लेते हैं। लोग अटूट मेहनत करते हैं, अपना बजट बनाते हैं कि एक साल में या फिर दो साल के अंदर वह इसी तरह की कार खरीद ही लेंगे। किसी व्यक्ति का सपना अगर खुद का मकान बनाना है, तो वह दूसरों के मकान व बंगलों को देखकर मोटिवेट होता रहता है। दूसरों के मकान उसे हार्ड वर्किंग बनाते हैं। वह रोज वही मकान देखते हुए अपनी दुकान या काम पर जाता है, और सोचता है कि एक दिन उसका भी मकान ऐसा ही होगा। बड़ी दुकान या भव्य शो-रुम देखकर एक छोटा दुकानदार आर्कषित हो सकता है और भविष्य में किसी बड़े शापिंग काम्पलेक्स बनाने के लिए द्रढ़ संकल्पित भी हो सकता है। किसी भी प्रकार का मोटिवेशन किसी भी बड़े टारगेट की दुख और तकलीफों को कम कर देता है और मंजिल के प्रति चमत्कारिक आकर्षण पैदा कर देता है।
समाज में प्रेरणा, उर्जा व मोटिवेशन जहां लोगों से मिलता है, वहीं बिन बोलती चीजों से भी। यह भी हमारे मिशन को प्रेरणा देनें का काम करती हैं। जरुरत है तो बस इन्हें अपने लक्ष्य को प्राप्त करनें में उचित इस्तेमाल करने की। निरंतर आगे बढ़ने व मनवांछित सफलता अर्जित करने के लिए अपनी इच्छा शक्ति को और प्रबल बनाने की हरदम दरकार है। खेल का मैदान हो या राजनीति का, मनोरंजन का क्षेत्र हो या व्यवसायिक, कामयाब होने के लिए अपने-अपने तरीकों से स्वयं को मोटिवेट करने का रास्ता निकालने से हर मंजिल आसान हो जाती है।

Thursday, October 21, 2010

हंसी का बदलता स्वरुप


पहले की अपने संगी साथियों के साथ हंसी-ठिठोली की धंटो बातें अब सिर्फ यादों के अलावा और कुछ नहीं। आज हर कोई व्यस्त है, सभी की दिनचर्या बुरी तरह से बंधी हुई है। काम के चक्कर में आदमी दिनभर लगा रहता है। दिन के खत्म होने के साथ शरीर में थकावट के साथ मानसिक तनाव भी हो जाना कोई बड़ी बात नहीं होती। कहीं-कहीं पर काम धंधे के बीच या किसी गंभीर बातों के बीच हंसी मजाक को अच्छा नहीं माना जाता। नतीजन, धीरे-धीरे प्राकृतिक हंसी का माहौल खत्म होता जाता है और ढेरों बीमारियां इसके बदले में मिलती जा रही हैं।
अधिकतर लोग समझते हैं कि गंभीर बने रहने व दिखने में ही व्यक्तित्व में आर्कषण होता है। मेडिकल साइंस कहती है कि व्यक्ति का खुश रहना व हंसना तो स्वस्थ जीवन का आधार है। जिसके लिए हमें हंसी के नये बहाने व मौके अवश्य तलाशने होंगे। क्योंकि यह जिंदादिली की भी निशानी है।
कहतंे हैं कि जीवन हंसी के बिना अधूरा व बेजान सा होता है। हंसने से ही जीवन हंसता व मुस्कराता रहता है। लेकिन, सबसे विचित्र बात यह है कि हंसने का न तो किसी के पास पर्याप्त समय ही है, और न ही माहौल।
सब कुछ बस भागता जा रहा है। समय भी, और आदमी भी। एक पड़ाव के बाद दूसरा, फिर अगला। सुबह से शाम तक बस यही सब होता है। रात में थककर आदमी औंधे मुंह बिस्तर पर गिरकर सो जाता है। आखिर आदमी हंसे तो कब कहां और कैसे ! एक नजर इस पर डालें कि क्या हंसने की वजह भी परिवार से कहीं दूर तो नहीं होती जा रही हैं। किसी को पढ़ाई की चिंता सताती है तो कोई अपने कॅरियर के बारे में परेशान रहता है। किसी का काम-धंधा ठीक से नहीं चल पाता तो वह उलझन में फंस जाता है। किसी को व्यापार में भारी नुकसान हो गया तो उसके चेहरे की हंसी गायब हो गई। उधर किसी को फायदा नहीं हुआ तो वह मायूस हो गया। किसी के धर में उसके बच्चे बेरोजगार बैठे हैं, तो कहीं पर किसी की बेटियां बिन ब्याही बैठी हैं। इन सबके साथ लोगों के साथ परेशानियां भी कुछ कम नहीं हैं। कहीं-कहीं पर हंसने की कोई गुंजाइश नहीं दिखाई देती है। हंसने की प्राकृतिक स्थितियां अगर नहीं दिखाई पड़ती है तो यह वाकई गंभीर मामला बन जाता है। क्योंकि जहां तक हंसी का मनोरंजन के साथ सीधा नाता है तो वहीं पर स्वास्थ्य के साथ भी इसका वही रिश्ता है। कोई आफिस में बड़ा अधिकारी है, इसलिए अपने कनिष्ठ कर्मचारियों के साथ हंसी ठिठोली करने से उसकी छवि और गरिमा व पद पर बुरा असर पड़ सकता है। किसी दूसरे मामले में सहकर्मियों द्वारा उसकी बात को महात्व न दिये जाने या अन्यथा में लेने का डर सताता है। इसलिए वह बड़ा अधिकारी अपने स्टाफ के साथ नहीं हंस सकता है। धर में बीवी और बच्चों के साथ भी यही बात होती है, उसके व्यक्तित्व को खतरा लगने लगता है। कल को उसके अपने बच्चे उससे नहीं डरेंगे, अगर उनके साथ हंस कर बात कर दी तो। फिर उसकी बीवी भी उसके काबू में नहीं रहेगी। उसके धर में बनाये गये अनुशासन का क्या होगा। इन सब बातों को देखने से ऐसा नहीं लगता कि हमने कहीं खुद ही अपने हाथों से ही हंसी की खुदखुशी कर दी हो। हंसी के संसाधनों में आई कमी को हमें अपने हित के लिए संजोना बहुत आवश्यक है। क्योंकि हंसी के प्राकृतिक वातावरण को जरुरी खाद पानी नहीं दिया जा रहा है। शायद इसीलिए यह चेहरों से गायब मालूम पड़ती है, और चेहरे गमगीन व बुझे हुए दिखाई देते हैं।
जैसे-जैसे प्राकृतिक हंसी के मौाकों व माहौल में कमी आने लगी, तभी समाज में हंसी का स्वरुप भी बदलना शुरु हो गया। जीवन में हंसी की जरुरत को समझने वालों नें इसके नये दरवाजे व रास्ते बना दिये। आफिस या धर पर हंसी किसी कारण न मिल सकी तो कोई बात नही। अब यह हंसी हास्य क्लब में दिखाई देती है। दिखने में तो हंसने का मात्र नाटक लगता है, हंसी बनावटी लगती है। परंतु, असरकारक होती है। यहां पर लोग हंसने का योगाभ्यास करते हैं। सुबह पार्कों में टहलते हुए लोग जब आपस में हंसी और जोरदार ठहाकांे साथ पेट पकड़ कर हंसते हैं, तब यह लोग अटपटे नहीं लगते। बल्कि इस बात का अहसास कराते हैं कि जीवन में हंसी की अत्यंत आवश्यकता है। ये सभी अपने जीवन में हंसी को बरकरार रखना चाहते हैं। बढ़ती हुई उम्र में भी तरोताजा बने रहने के लिए हंसने की कोई न कोई तरकीब खोज ही लेते हैं। पार्कों का हास्य योग हो या हंसी क्लब के ठहाके। या फिर धरों के ड्राइंग रुम या बेड रुम में कॉमेडी टी वी सीरियल या फिल्मों के माध्यम से मिलने वाली हंसी। वह बनावटी ही सही, परंतु तनाव के बोझ को हल्का जरुर कर देतीे है।

Friday, October 15, 2010

धर्म की आड़ में राजनीति क्यों


याद आ जाता है अयोध्या की विवादित भूमि के फैसले का दिन। पहले 24 सितम्बर, इसके बाद 30 सितम्बर को सड़कों पर कफर्यू जैसा माहौल। हर कोई अपने रोजमर्रा के खास जरुरी कामों को निपटाते वक्त अयोध्या के राम जन्म भूमि व बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक के फैसले का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहा था। हर तरफ एक अजीब सी बेचैनी का आलम था तथा हर पल असमंजस भरा होता जा रहा था। संवेदनशील शहरों व इलाकों में धारा 144 लगी होने के कारण लोग एक जगह इकट्ठे नहीं हो पा रहे थे। परंतु अपने-अपने फोन या मोबाइल पर इस धटना से जुड़ी खबरों या कयासों का आदान-प्रदान जारी था। जरुरी नहीं कि फोन पर बतियाने वाले केवल एक ही वर्ग या संप्रदाय के ही हों। हिन्दू और मुस्लिमों के बीच भी फैसले को लेकर दोस्ताना बातचीत हो रही थी। कहीं-कहीं इसी क्र्रम में सन् 1992 में बाबरी मस्जिद बिध्वंश के बाद उठी दंगे व फसाद की लपटों का भी ख्याल आ जाता, जिसने कई प्रदेशों में तक संप्रदायिक बवाल व उत्पात मचा दिया था।
ईश्वर की कृपा से व अल्लाह की रहमत से इतने भयावह माहौल में इस बार ऐसा कुछ भी कहीं नहीं हुआ। पूरे देश में कहीं से भी कोई अमन और चैन के लिए बुरी व इकलौती खबर नहीं आई। जिसके लिए वाकई अल्लाह को मानने वाले व ईश्वर को पूजने वालों नें इंसानियत का परिचय दिया तथा न्यायालय के फैसले का सम्मान किया।
इस धर्मिक मुकदमे के 60 सालों के दौरान देखा जाय तो दोनों ही कौमों के लोगों नें इससे कुछ पाने के नाम पर खोया ही ज्यादा है। सन् 1992 की धटना के बाद इन 18 सालों में चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान दोनों ही लोग यह बात बहुत अच्छी तरह जान चुके हैं कि अब यह मुद्दा केवल धर्म तक सीमित नहीं रह गया है, इसके सहारे प्रदेश से लेकर केंद्रीय सत्ता तक के चुनाव लड़े जाते हैं। इस मुद्दे नें बीते इन सालों में कितनी ही सरकारें बनवाईं व गिर्राइं, क्योंकि अब इसका फायदा अपना-अपना वोट बैंक बढ़ाने तथा सियासत करने के काम आता है। इन सियासी चालों से अब देश की जनता अंजान नहीं रही। यह भी सच है कि जब कोई राजनीतिक दल किसी धर्म बिशेष से जुड़ता है, तब उसकी भूमिका सांप्रदायिक सी हो जाती है। जिससे केवल कट्टरवाद पनपता है तथा नफरत ही फैलती है। फिर हर तरफ तनावपूर्ण माहौल देखा जाता है। कोर्ट नें अपने इस अहम फैसले में आस्था को आधार बताकर जो फैसला दिया, उसने निसंदेह दोनों ही कौमों के लोगों के बीच नफरत को खत्म करने तथा आपसी सुलह का रास्ता खोला है।
देखा गया है कि इस फैसले को दोनों ही पक्षों नें सम्मान दिया। कहीं पर कोई हलचल नहीं हुई, सभी नें अमन व शांति का परिचय दिया। दंगा-फसाद का तनिक भी माहौल नहीं दिखा। हां, पूर्ण सहमति भी नहीं दिखी। इस पर भी सब कुछ शांत था। शांत नहीं दिखे तो वही चंद राजनीतिक लोग। जो इन्हीं पर अपनी सियासी बाजी खेलते हैं व हर वक्त इसी ताक में रहते हैं। इन लोगों को यह स्थिति जरुर बहुत अटपटी व अपची सी लगी। जहां पर अब सुलह की बात आगे बढ़ने लगी है, या फिर न्यायिक तरीके से हर कोई अपनी बात कहने को स्वतंत्र है। इसी बीच अपने आप को मुस्लिमों के हिमायती मानने वाले मुलायम सिंह यादव जी का यह बयान आ गया कि इस फैसले नें मुसलमानों को ठगा सा कर दिया। इस पर कोई ज्यादा बवाल मचता। इससे पहले मुस्लिमों नें ही मुलायम के इस बयान पर खासी आपत्ति दर्ज करा दी। इसका मतलब साफ है कि अब कोई भी इन राजनीतिक चालों में फंसकर बेवकूफ बनना नहीं चाहता।
मुकदमे के इतने सालों में जो युवा थे, अब बूढ़े हो चले हैं। कल के बच्चे अब युवा हो चुके हैं। फायदे और नुकसान की गणित सबको अच्छी तरह आ चुकी है। विवादित भूमि अयोध्या- जहां का यह पूरा मामला है। वहां का हर हिन्दू और मुसलमान सब एक साथ रहते थे और आज भी रहते हैं। उनको आपस में एक दूसरे से कोई दिक्कत नहीं होती। दिक्कत केवल बाहरी लोगों को है, और बाहरी दखलंदाजी ही माहौल को बिगाड़ती है। आज की अमन परस्त आबादी आपसी सुलह से पूरे मामले को निपटाने के लिए तैयार है। बात भी आगे बढ़ रही है। जनता ने ंतो समझदारी का परिचय दे ही दिया है। अब बारी देश के राजीनीतिज्ञों की है। इक्कीसवीं सदी की युवा जनता का यह ताजा संदेश देश की मुख्य धारा की राजनीति करने वालों के लिए किसी सबक से कम नहीं होगा। कि अब आपस में कोई भी धर्म और संप्रदाय के नाम पर लड़ना नहीं चाहता। राजनेताओं तथा अपने आप को जनता का सच्चा रहनुमा व हिमायती मानने वालों को लोकहित के लिए साफ सुथरे मुद्दे ढूंढने होंगे। वोट बैंक की राजनीति के लिए देश की जनता अब अपनी कुर्बानी देना नहीं चाहती।

Friday, October 1, 2010

ऊपर वाले को भी थैंक्यू या सॉरी बोला क्या?


आज हर तरफ व्यक्ति बहुत मैनरफुल दिखाई पड़ता है। बात-बात पर थैंक्यू या सॉरी शब्द हर एक की जुबान पर होते हैं। किसी की वजह से हमारा कोई काम बन जाता है, तो हम उसके शुक्रगुजार हो जाते हैं। और हम उसको धन्यवाद देने से नहीं चूकते। अगर हमसे कहीं पर गलती हो जाय, तो हम तुरन्त सॉरी बोलकर बात खत्म कर देना चाहते हैं। लोक-व्यवहार व शिष्टाचार की भाषा हम अच्छी तरह से सीख रहे हैं।

जिंदगी की छोटी-छोटी चीजों में हम अपना आचरण तो दिखाते हैं, परन्तु अमूल्य जीवन देने वाले परमात्मा व परमेश्वर के प्रति भी क्या इतने मैर्नस दिखा पाने में कुशल हैं। उसका समय-समय पर धन्यवाद, शुक्रिया अदा करते हैं या कहीं गलती हो जाने पर शर्मिन्दा भी होते हैं। अपने जन्मदाता के प्रति भी हम कितने शिष्टाचारी हैं, यह भी हमारे आंतरिक आचरण का एक चिंतनीय बिषय है।
हमारी दिलचस्पी हमेशा हर तरफ एक शिष्ट माहौल बनाने की होती है, इसीलिए हम अपने बच्चों को भी शुरु से ही इन सबकी ओर जोर देते हैं। हमारा प्रयास यह होता है कि हम अपने परिवार में अच्छी पावरिश के साथ अच्छे आचरण की भी नींव डालें। बच्चों को छोटी-छोटी बातों में थैंक्यू या सॉरी कहना सिखलाते हैं। हर वक्त धरों में, ऑफिस में एक अच्छे आचरण की हर एक से अपेक्षा की जाती है। कोई व्यक्ति हमारा एक काम कर देता है या फिर हमारे काम में सहायक होता है, तब हम उसका दिल से धन्यवाद देते हैं तथा भविष्य में उसके किसी काम आ जाने का अश्वासन देते हैं। क्या आदर्श शिष्टाचार का यह फार्मूला केवल व्यक्तियों या लोकाचार तक ही सीमित है? जिसने हमें यह जीवन दिया, और हम सबको जीने योग्य बनाया। आखिर उसके साथ क्यों नहीं? जिसकी वजह से हमें यह दुर्लभ सौगात मिली है, क्या हम उसको भी ऐसे ही धन्यवाद देते हैं। हम उससे कहें कि- आपने हमें जो जीवन देकर ऐसा उपकार किया है, इसके बदले मैं आपके किस काम आ सकता हूॅ, ऐसा मुझे रास्ता दिखाओ! आपने मुझे जो यह शरीर दिया व स्वास्थ्य दिया है, इन सबके लिए आपको हृदय से धन्यवाद देता हूॅ तथा इसका मैं कैसे बेहतर प्रयोग कर सकता हूॅ। आपने मुझे जो बुद्धि व विवेक दिया है, इसके लिए शुक्रिया। ज्ञान को बढ़ाने में इसका मैं कैसे इस्तेमाल कर सकता हूॅ। इससे मैं क्या-क्या जान सकता हूॅ यह मुझे बताइये। मेरे शरीर के अंदर जो हृदय लगातार स्पंदन करता है, इसकी हर धड़कन पर केवल आपका अधिकार है। यह जीवन आपका दिया हुआ है, हम सब आपके पात्र हैं, अब आगे का रास्ता आप ही प्रशस्त करें। मेरे शरीर के अंदर प्रविष्ट इस आत्मा को कैसे संवेदनशील बनाया जाय व इसमें परमात्मा का कैसे वास होगा? यह भी आप सिखलाइये। जाने अनजाने, अगर किसी नासमझी से मुझसे गलती हो जाय, तो मुझे नादान समझ कर माफ कर देना। इतना ही नहीं मुझे ज्ञान का ऐसा भवसागर दो ताकि भविष्य में अपनी गल्तियों को न दोहरा कर शर्मिंदा होना पड़े।
ईश्वर नें हमें बहुत कुछ दिया है। जिसका उसे धन्यवाद मिलना ही चाहिए। वैसे तो उसकी ओर से कोई मांग नहीं होती। परंतु जिस तरह से हम दूसरों के बीच अच्छा आचरण अपनाकर उसका हितैषी व लोकप्रिय बनना चाहते हैं, ठीक उसी तरह परमात्मा को धन्यवाद देकर भी परमपिता परमेश्वर के भी प्रिय बन सकते हैं। उसको प्रसन्न रख सकते हैं तथा अपने लिए नये खजाने खोल सकते हैं। हम ईश्वर से नित नये की मांग तो करते हैं, पर पुराने का लेखा जोखा तो पहले ही चुकता हो जाना चाहिए। जो पहले से ही प्राप्त है, बिना मांगे ही मिला है। उसका हिसाब भी साफ होना चाहिए। वह हमारी सभी फरमाइश व आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखता है। इसके बदले में वह हमसे कोई भी अपेक्षा नहीं रखता। हम उसकी सेवा में उसे जो देते हैं, वह सब उसी का दिया हुआ है। हम अपनी ओर से बिशेषकर कुछ नहीं करते हैं। हम उसे उसी का अर्पण करते हैं, जिसमें अपना कुछ भी नहीं लगता है। उसकी ओर से किसी को कोई कमी नहीं होती है, बात केवल इतनी है कि हम इन सबसे कितना फायदा उठा पाते हैं। कुछ भी मांगने से पूर्व जो हमको पहले से ही प्राप्त है उसका भी संरक्षण एवं बेहतर प्रयोग केवल अस्तित्व को अच्छी तरह से समझकर ही संभव है।
अच्छा आचरण व शिष्टाचार हमें लोकप्रिय बनाता है। आदर्श व्यवहार अपनाकर हम लेाक व्यवहार में तो कुशल हो जाते हैं, इसी के साथ जरुरी है कि हम अपने अस्तित्व के आचरण की भी सही परिभाषा सीखकर इस अमूल्य जीवन के प्रति अनुग्रहित हो सकें। शरीर, स्वास्थ्य, नौकरी, रोजगार, रुपया-पैसा जो भी कुछ हमें इस जीवन में ईश्वर से आर्शीवाद स्वरुप प्राप्त है। इन सबका हम पर ऋण है, और हमें इसे इसी जीवन में चुकाने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए। जो सही अर्थों में ईश्वर के प्रति थैंक्यू या उपकार जैसा उचित संबोधन होगा।