Thursday, December 2, 2010

समाज के माथे पर चिंता की लकीर है- बढ़ती आत्महत्या


शौक जीनें का है मगर इतना भी नहीं, कि जिंदगी तुझसे हर बात पर समझौता करुॅ। किसी शायर की यह लाइनें आजकल के तमाम युवाओं की जिंदगियों पर बखूबी दुरस्त नजर आती हैं। क्योंकि आये दिन किसी ना किसी की खुदखुशी की खबर समाचार पत्रों का अहम हिस्सा बनती जा रही हैं। बुजदिली कही जाने वाली आत्महत्या को आज ज्यादातर लोग गले लगाने को मजबूर हैं।
कभी खुदखुशी की अधिकतर खबरें प्रेम में असफल व्यक्ति ही करते थे, या फिर परीक्षा आदि में फेल होने वाले छात्र या छात्रा ही अपना जीवन समाप्त करना बेहतर समझते थे। आज के बदले हुए परिवेश में छोटी-छोटी बात पर ही लोग अपनी जान देनें में आमादा हैं, वह आगे की तनिक नहीं सोचते। पढ़े-लिखे बुद्धिमान माने जाने वाले लोग भी अपनी जान देने में आगे हैं। इनको अपने परिवार की भी कोई ंिचंता नहीं होती है, कि आखिर इनके बाद इनके परिवार पर क्या बीतेगी। इन सबको इससे कोई सरोकार नहीं होता, बस अपने आपको छुटकारा देना चाहते हैं। छोटे-बड़े शहरों से लेकर कस्बों तक आत्महत्या जैसी खबरों का ग्राफ बहुत तेजी से बढ़ रहा है। समाज के माथे पर यह चिंता की बहुत बड़ी लकीर है, जिसके समाधान हेतु चिंतन बहुत आवश्यक है।
जिंदगी के झंझावातों से उबकर, संधर्ष की लड़ाई में अपनी हार समझ बैठे लोग आत्महत्या को ही बहुत आसान विकल्प में स्वीकार कर लेते हैं। जिंदगी के सभी मायने व जिम्मेदारियों को नजरअंदाज कर देते हैं। सबसे बेपरवाह होकर अपने जीवन की ईहलीला को एक झटके में ही समाप्त करना उचित समझते हैं। कुछ समय पहले के समाज में आत्महत्या के मुख्यतयाः आरोपी असफल व निराश प्रेमी या प्रेमिका अथवा हताश छात्र या छात्रा ही होते थे। जिनको नासमझ कहा जाता था। जिनको जीवन की दुर्लभ क्षमताओं व प्राप्तियों की कदर नहीं कर पाते हैं और नासमझी में अपना जीवन ही खत्म कर देते हें। आज का माहौल बहुत बदल रहा है, आत्महत्या करने वालों में पढ़े-लिखे, बी टेक, एम टेक डिग्री होल्डर भी शामिल हैं। कोई फांसी लगा रहा है, कोई जहर खा रहा है, कोई छत से कूद जाता है। अनेको किससे हैं, परिणाम होता है-खुदखुशी। देखा जाता है कि आत्महत्या करने वाले के दिमाग में अचानक तमाम झंझट दिखाई देने लगते हैं। कोई माली हालत ठीक न होने के कारण अपने आप को खत्म कराना ही मुनासिब समझता है। नौकरी-रोजगार ठीक से ना चल पाने के कारण कई लोग अपनी जिंदगी से उब कर ऐसा कदम उठा लेते हैं। किसी नें व्यापार में बड़ा धाटा उठा लिया, वह सदमे में आ गया। दिमाग में ऐसा असर हुआ कि उसने आत्महत्या कर ली। आत्महत्या जैसी प्रवृत्ति रखने वालों में अब किसी बड़ी वजह का होना जरुरी नहीं, अब यह पाया जा रहा है कि छोटी-छोटी बात, कहासुनी या किसी डाट-डपट का परिणाम भी आत्महत्या जैसा सरीखा हो रहा है। यहां तक कि इस काम में किशांेर वर्ग भी अपनी तुनकमिजाजी के कारण यह कृत्य कर डालते हैं।
किसी की मौत का कारण तो आत्महत्या हो सकता है, लेकिन आत्महत्या करने का आधारभूत कारण क्या हो सकता है, यह सबसे चिंतनीय बिषय है। मृत्यु तो हुई सांस न ले सकने के कारण, फेफड़ों व आंतो में जहर पहुंचन के कारण या अत्यधिक रक्तस्राव होने के कारण। सवाल यह है कि इन आत्महत्या करने वालों की उस दौरान मानसिक स्थिति ऐसी क्यों हो रही है इसके पीछे आखिर क्या कारण हैं। यह आत्महत्या करने वालों के मनोविज्ञान को समझने का भी बिषय है। किसी का जीवन खत्म होने के बाद में तो हम आत्महत्या के पीछे के कारण को जान लेते हैं कि पीड़ित को गहरा मेंटल प्रेशर था, वह इनदिनों अत्यधिक तनाव में था व उसे काफी दिनों से अवसाद से ग्रसित था, इत्यादि। बात यह हो जाती है कि जीवन के रहते इनकी मानसिकता को समझनंे में सफल नहीं हो पाते हैं। इस बात को हमेशा नजरअंदाज करते हैं व केवल अपनी बात ही मनवाना चाहते हैं। एक तरह से कहा जाय कि हम अपने फैसले इनपर थोपते ही है। इनकी चाहत की किसी को चिंता नहीं होती है। ज्यादातर किशोर वर्ग के बीच यही बात देखी जाती है कि हम उन पर दबाव तो हमेशा बनाते हैं लेकिन क्या उनकी इच्छा, सार्मथ्य को समझकर उनका हौसला भी बढ़ाते हैं। आत्महत्या के किसी दूसरे मामले में भी यही होता हैं कि एक अकेला व्यक्ति कभी-कभी सबकी फरमाइश पूरी कर पाने मेें अक्षम हो जाता है व अपने आप को अनावश्यक दबाव में ग्रसित महसूूस करता हैं व धीरे-धीरे अवसाद में चला जाता है।
इतनी बड़ी तादात में हो रहीं आत्महत्या आज समाज के सामने यक्ष प्रश्न की तरह हैं। आज सबकी महात्वकांक्षाएं भी इस कदर बड़ी हैं जिनके आगे धैर्य, संयम, सहनशीलता सब कुछ धुटने टेक असहाय हो जाते हैं। और समाज का युवा वर्ग इस कदर आत्महत्या करने में आमादा हो जाता है कि उसे किसी की कोई परवाह नहीं होती है। आज आत्महत्याओं के आंकड़े इतने बड़े होते जा रहे हैं जिनसे आहत परिवार व पूरे समाज का तानाबाना बिगड़ना स्वाभाविक है।

लाइफ में लाइन ऑफ कन्ट्रोल का होना जरुरी


हर चीज की एक हद होती है। जब भी किसी चीज की हद या सीमा पार हो जाती है, तब स्थिति और भी तनावपूर्ण हो सकती है और नियंत्रण से बाहर भी। यही है जिंदगी की लाइन ऑफ कंटोल। जो हमारी जिंदगी की हर छोटी-बड़ी चीजों से सीधे जुड़ी होती है। धर-बाहर हर जगह हमें रोज इनसे दो-चार होना पड़ता है। हमारा और आपका रोज इनसे आमना-सामना होता है। बात चाहे कहीं की भी हो, कोई भी व्यक्ति इनसे बचने का अपवाद नहीं हो सकता है। हर एक व्यक्ति इनसे जूझता हुआ दिखाई देता है। कोई भी चीज इस एल ओ सी को पार कर दे और जीवन की तमाम परिस्थितयां उलट जाएं। या आउट ऑफ कन्ट्रोल हो जाएं, इससे पहले ही क्यों न एक जरुरी कदम उठाया जाय। किसी भी स्थिति से निपटने के लिए उस पर टेक कन्ट्रोल पहले ही कर लिया जाय, यानि की नियंत्रण के अंदर।
हर एक चीज की सीमा है। सीमा रेखा जैसे ही पार होती है, दिक्कतें वहीं से शुरु हो जाती हैं। यह बात किसी एक जगह की या फिर किसी व्यक्ति विशेष की नहीं है। यह वाकया किसी भी जगह व किसी के साथ भी हो सकता है। इसमें सभी लोग शामिल हैं, कोई भी इनसे अछूता नहीं है। बात चाहे किसी के धर की हो, जहां पर परिवार के कई सदस्य एकसाथ रहते हैं। परिवारिक रिश्तों के बीच भी अक्सर ऐसी अनचाही स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं, जिनसे तनाव होने की पूरी संभावना बन जाती है। इससे पहले कि पूरा माहौल अप्रिय हो जाय, हमें तुरंत सबकुछ नियंत्रण में करना होता है। यह कदम परिवार के हर एक रिश्ते व सदस्य के हित में एक विवेकपूर्ण प्रयास होता है। हम धर के बाहर भी ऐसी ही स्थिति का सामना अक्सर करते हैं- आफिस में अपने सहकर्मियों के साथ में, बॉस या उच्च अधिकारियों के बीच में व अन्य वार्तालाप या लोकव्यवहार को निभाने वक्त भी किसी को अपनी सीमा या हद को लांधना उचित नहीं कहा जा सकता है। किसी भी सामान्य या असामान्य धटना की एल ओ सी किसी भी तरह का नुकसान न कर दे, इस बात का भी ध्यान रखना अति आवश्यक हो जाता है। मामला धरेलू जिम्मेदारियों के निभानें का हो या फिर नौकरी-रोजगार में। नियंत्रण में सबकुछ हमको ही रखना पड़ता है, नही ंतो इसका खामियाजा भी हमको ही उठाना पड़ता है। अपनी रोजी-रोटी कमाने के बीच में ही कभी धरेलू समस्याएं भी आड़े आ जाती हैं, जो स्थिति को तनावपूर्ण कर सकती है। हमारी जिंदगी पर इनका कोई प्रतिकूल असर दिखे, इससे पहले ही यह जरुरी है कि हम इन पर काबू पा लें व स्थिति को नियंत्रण में कर लें। बच्चों की आदत में सुधार लाने के लिए भी उन पर नियंत्रण रखना होता है ताकि बच्चा कहीं बिगड़ ना जाय। धर बाहर हर जगह हमें ही इन सब चुनौतियों के बीच में ही अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन भी करना होता है।
अक्सर हमें यह एहसास होता है कि अब हमारे वश में कुछ भी नहीं रहा। सबकुछ हमसे पार हो गया। स्थिति तब और भी भयावह होने लगती है जब हम असहाय हो जाते हैं। इसी समय जरुरत होती है असल रुप में नियंत्रण रखने की। यह ऐसे होता है जैसे हम कोई गाड़ी चला रहे हों, और अचानक हमारी गाड़ी बहक जाती है। धबराहट में दुर्धटना भी हो सकती है। जबकि गाड़ी की रफतार को कम करके उसपर नियंत्रण रखा जा सकता है। ब्रेक लेकर गाड़ी को रोका जा सकता है, ताकि उसपर हमारा कन्ट्रोल बना रहे व किसी भी दुर्धटना से बचा जा सके। इसीलिए तादात, सीमा या हद को नियंत्रण रेखा कहा गया है। जैसे ही कोई यह नियंत्रण रेखा पार कर जाता है, वह तुरंत ही जोखिम वाले क्षेत्र में पहुंच जाता है और खतरे वहीं से शुरु हो जाते हैं। आदमी के लिए जीवन में स्वास्थय सबसे अमूल्य बताया गया है। इसलिए स्वास्थय के प्रति भी सचेत होकर नियंत्रण रखने की आवश्यकता होती है। बुरा खान-पान तो हमारंे शरीर के लिए नुकसानप्रद है ही, साथ ही तादात से ज्यादा अच्छा खाना-पीना भी सेहत के लिए ठीक नहीं होता है। क्योंकि सीमा के बाहर कुछ भी अच्छा नहीं होता है, वह अपना बुरा असर दिखाता ही है। मेडिकल साइंस भी यही कहती है कि शरीर, दिमाग व पेट सबकी अपनी क्षमता होती है, इनपर अत्यधिक बोझा डालने से यह अनुकूल परिणाम नहीं दे सकते हैं। जिसका उदाहरण ही हैं कि आजकल छोटी उम्र के लोग भी मोटापा, ब्लड प्रेशर व डायबिटीज जैसी बीमारियों से पीड़ित हैं।
अब आवश्यक है कि हम हर चीज की तादात को अच्छी तरह से समझें तथा उसकी सीमा को पहचानें। अमूल्य जिंदगी के किसी भी हिस्से को डेन्जर जोन में पहुंचने से पहले ही उसपर अपना नियंत्रण बना लें। क्योंकि शुरुआती तौर पर एक चिंगारी को केवल एक कप पानी डालकर बुझाया जा सकता है, नही ंतो इससे भड़की आग पर काबू पाना या नियंत्रण करना मुश्किल भरा हो सकता है।