Friday, October 15, 2010

धर्म की आड़ में राजनीति क्यों


याद आ जाता है अयोध्या की विवादित भूमि के फैसले का दिन। पहले 24 सितम्बर, इसके बाद 30 सितम्बर को सड़कों पर कफर्यू जैसा माहौल। हर कोई अपने रोजमर्रा के खास जरुरी कामों को निपटाते वक्त अयोध्या के राम जन्म भूमि व बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक के फैसले का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहा था। हर तरफ एक अजीब सी बेचैनी का आलम था तथा हर पल असमंजस भरा होता जा रहा था। संवेदनशील शहरों व इलाकों में धारा 144 लगी होने के कारण लोग एक जगह इकट्ठे नहीं हो पा रहे थे। परंतु अपने-अपने फोन या मोबाइल पर इस धटना से जुड़ी खबरों या कयासों का आदान-प्रदान जारी था। जरुरी नहीं कि फोन पर बतियाने वाले केवल एक ही वर्ग या संप्रदाय के ही हों। हिन्दू और मुस्लिमों के बीच भी फैसले को लेकर दोस्ताना बातचीत हो रही थी। कहीं-कहीं इसी क्र्रम में सन् 1992 में बाबरी मस्जिद बिध्वंश के बाद उठी दंगे व फसाद की लपटों का भी ख्याल आ जाता, जिसने कई प्रदेशों में तक संप्रदायिक बवाल व उत्पात मचा दिया था।
ईश्वर की कृपा से व अल्लाह की रहमत से इतने भयावह माहौल में इस बार ऐसा कुछ भी कहीं नहीं हुआ। पूरे देश में कहीं से भी कोई अमन और चैन के लिए बुरी व इकलौती खबर नहीं आई। जिसके लिए वाकई अल्लाह को मानने वाले व ईश्वर को पूजने वालों नें इंसानियत का परिचय दिया तथा न्यायालय के फैसले का सम्मान किया।
इस धर्मिक मुकदमे के 60 सालों के दौरान देखा जाय तो दोनों ही कौमों के लोगों नें इससे कुछ पाने के नाम पर खोया ही ज्यादा है। सन् 1992 की धटना के बाद इन 18 सालों में चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान दोनों ही लोग यह बात बहुत अच्छी तरह जान चुके हैं कि अब यह मुद्दा केवल धर्म तक सीमित नहीं रह गया है, इसके सहारे प्रदेश से लेकर केंद्रीय सत्ता तक के चुनाव लड़े जाते हैं। इस मुद्दे नें बीते इन सालों में कितनी ही सरकारें बनवाईं व गिर्राइं, क्योंकि अब इसका फायदा अपना-अपना वोट बैंक बढ़ाने तथा सियासत करने के काम आता है। इन सियासी चालों से अब देश की जनता अंजान नहीं रही। यह भी सच है कि जब कोई राजनीतिक दल किसी धर्म बिशेष से जुड़ता है, तब उसकी भूमिका सांप्रदायिक सी हो जाती है। जिससे केवल कट्टरवाद पनपता है तथा नफरत ही फैलती है। फिर हर तरफ तनावपूर्ण माहौल देखा जाता है। कोर्ट नें अपने इस अहम फैसले में आस्था को आधार बताकर जो फैसला दिया, उसने निसंदेह दोनों ही कौमों के लोगों के बीच नफरत को खत्म करने तथा आपसी सुलह का रास्ता खोला है।
देखा गया है कि इस फैसले को दोनों ही पक्षों नें सम्मान दिया। कहीं पर कोई हलचल नहीं हुई, सभी नें अमन व शांति का परिचय दिया। दंगा-फसाद का तनिक भी माहौल नहीं दिखा। हां, पूर्ण सहमति भी नहीं दिखी। इस पर भी सब कुछ शांत था। शांत नहीं दिखे तो वही चंद राजनीतिक लोग। जो इन्हीं पर अपनी सियासी बाजी खेलते हैं व हर वक्त इसी ताक में रहते हैं। इन लोगों को यह स्थिति जरुर बहुत अटपटी व अपची सी लगी। जहां पर अब सुलह की बात आगे बढ़ने लगी है, या फिर न्यायिक तरीके से हर कोई अपनी बात कहने को स्वतंत्र है। इसी बीच अपने आप को मुस्लिमों के हिमायती मानने वाले मुलायम सिंह यादव जी का यह बयान आ गया कि इस फैसले नें मुसलमानों को ठगा सा कर दिया। इस पर कोई ज्यादा बवाल मचता। इससे पहले मुस्लिमों नें ही मुलायम के इस बयान पर खासी आपत्ति दर्ज करा दी। इसका मतलब साफ है कि अब कोई भी इन राजनीतिक चालों में फंसकर बेवकूफ बनना नहीं चाहता।
मुकदमे के इतने सालों में जो युवा थे, अब बूढ़े हो चले हैं। कल के बच्चे अब युवा हो चुके हैं। फायदे और नुकसान की गणित सबको अच्छी तरह आ चुकी है। विवादित भूमि अयोध्या- जहां का यह पूरा मामला है। वहां का हर हिन्दू और मुसलमान सब एक साथ रहते थे और आज भी रहते हैं। उनको आपस में एक दूसरे से कोई दिक्कत नहीं होती। दिक्कत केवल बाहरी लोगों को है, और बाहरी दखलंदाजी ही माहौल को बिगाड़ती है। आज की अमन परस्त आबादी आपसी सुलह से पूरे मामले को निपटाने के लिए तैयार है। बात भी आगे बढ़ रही है। जनता ने ंतो समझदारी का परिचय दे ही दिया है। अब बारी देश के राजीनीतिज्ञों की है। इक्कीसवीं सदी की युवा जनता का यह ताजा संदेश देश की मुख्य धारा की राजनीति करने वालों के लिए किसी सबक से कम नहीं होगा। कि अब आपस में कोई भी धर्म और संप्रदाय के नाम पर लड़ना नहीं चाहता। राजनेताओं तथा अपने आप को जनता का सच्चा रहनुमा व हिमायती मानने वालों को लोकहित के लिए साफ सुथरे मुद्दे ढूंढने होंगे। वोट बैंक की राजनीति के लिए देश की जनता अब अपनी कुर्बानी देना नहीं चाहती।

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