Friday, February 12, 2010

मकान नहीं घर बनाने की कला सीखें




पैसे की चमक से तो मकान चमकता है, जरूरी नही हैं कि अगर दिखने वाले मकान में आकर्षण है तो आंतरिक गृह-सज्जा भी उसके वास्तविक व अनुरूप ही हो। जिस तरह से महलनुमा मकानों में रहने वालों की सुख की गारंटी नहीं होती, वहीं छोटे मकानों में रहने वालों की आपसी एकता व सामंजस्यता से चारों ओर घर की चमक व महक बिखरती रहती है।

घर, बंगला, कोठी या आलीशान महल बनवाने का ख्वाब किसे नहीं होता! हर किसी की जिंदगी के अहम सपनों में घर बनवाना या खरीदना भी मुख्य उद्देश्यों में से एक होता है। बहुत से लोग खरीदते या बनवाते तो मकान है, लेकिन उसको अपने कर्म व संस्कार की बदौलत घर बना देते हैं। घर और मकान के दरम्यान एक बहुत बड़ा फर्क भी है। ज्यादातर लोग मकान को भव्यता देने के लिए कीमती से कीमती देशी-विदेशी टाइल्स व पत्थर का इस्तेमाल करते हंै तथा उनके डिजाइन को भी महत्व दिया जाता है। जिससे मकान अनुपम व हर लिहाज से अद्वितीय ही लगे। लेकिन, इन सबसे इतर घर की परिभाषा ही अलग है।
किसी मकान को बनवाने के लिए हम बहुत ध्यान देते हैं। बेहतर से बेहतर आर्किटेक्चर ही मकान का पूरा लुक बदल कर आकर्षक व शोभनीय कर देता है। इसी के मद्देनजर पूरा डिजाइन तैयार किया जाता है। महंगे से महंगे टाइल्स व पत्थर लगवाकर तथा विभिन्न प्रकार की कलाकृतियों से अपने मकान को सजाते व संवारते हैं। उद्देश्य केवल एक ही होता है कि हमारा मकान और सबके मकानों से अलग हटकर दिखे तथा हमारे आस-पास इस तरह का कोई भी मकान न हो। एक अच्छे व आकर्षक दिखने वाले मकान की परिभाषा को भली-भांति समझ कर इस पर काम करते हैं और सफल भी होते हैं। हमारा मकान दूसरे मकानों से अलग भी दिखाई देने लगता है तथा इसकी अद्वितीय छाप भी पड़ती है। लेकिन, सिर्फ बाहर से अच्छा दिखने पर अंदर से सही मायनों में घर नहीं हो जाता है। घर बनाने के लिए अंदरूनी तथा बुनियादी बहुत सी जरूरतें होती हैं। जिनको भी हमें भली-भांति समझना बहुत आवश्यक है। घर की बुनियाद ही पारिवारिक रिश्तों को आपस में बांधकर रखने में होती है। परिवार के सभी सदस्यों को मिलाकर आर्किटेक्चर लुक देते हुए इन्हें डिजाइन किया जाता है। फिर इन्हें आपसी सामंजस्य व सौहाद्र्र के मसाले से जोड़कर निर्माण किया जाता है, मजबूती के लिए विश्वास की एक मोटी बीम भी पड़ी होती है। फिर उस पर प्यार का रंग रोगन देकर फिनिशिंग दी जाती है। कुल मिलाकर इस तरह से मकान के अंदर ही अंदर घर का निर्माण किया जाता है। यह मकान के अंदर का इंटीरियर आर्किटेक्चर होता है जो मकान की बाहृय आकृति से कम आकर्षक व शोभनीय नहीं होता और मकान को घर में तब्दील कर देता है। जिसकी ख्याति व चमक आस-पास ही नहीं बल्कि दूर-दूर तक जाती है। पैसे की चमक से तो मकान चमकता है, जरूरी नही हैं कि अगर दिखने वाले मकान में आकर्षण है तो आंतरिक गृह-सज्जा भी उसके वास्तविक व अनुरूप ही हो। जिस तरह से महलनुमा मकानों में रहने वालों की सुख की गारंटी नहीं होती, वहीं छोटे मकानों में रहने वालों की आपसी एकता व सामंजस्यता से चारों ओर घर की चमक व महक बिखरती रहती है। जैसे नींद को केवल एक बिस्तर की ही आवश्यकता होती है। महंगे गद्दे या बिस्तर पर लेटने से नींद लाने की कोई गारंटी नहीं हो जाती। पैसे से तो हम केवल बिस्तर ही खरीद सकते हैं, नींद को खरीदा नहीं जा सकता। पैसे से हम किसी बड़े व महंगे होटल में अच्छा खाना तो खा सकते हैं, भूख तो मिट सकती है लेकिन जरूरी नहीं कि तृप्ति भी मिल सके। बड़े मकान में रहने का यह कतई अर्थ नहीं होता कि वहां पर वास्तविक सुख की असली अनुभूति हो सके। यह सब केवल थोड़े समय के लिए मन लुभावने हो सकते हैं। याद करें कि अपने बचपन के दिनों में हम किसी रिश्तेदार के यहां कुछ दिनों के लिए जाकर ठहरते थे। कुछ दिन तो मौज-मस्ती में कट जाते थे, बाद में अपने घर की इस कदर याद आती कि एक पल भी वहां अच्छा नहीं लगता। बड़ा मकान व वैभव के सभी साधन मौजूद होने के बावजूद मन ऊबने लगता था। इन सबके मायने खत्म हो जाते था। मन करता, किसी तरह बस अपने घर पहुंचें। बचपन की बातें आज भी बनावटी व झूठी नहीं हैं। हमारा आंतरिक मन भी किसी भौतिक संपदा से परिपूर्ण मकान व घर के वास्तविक सुख के अंतर को अच्छी तरह से पहचानता है। मकान बनवाने में तो केवल पैसों व कुछ समय का ही त्याग किया जाता है, परंतु घर को बनाने या बसाने में कई तरह के त्याग समाहित होते हैं। कभी-कभी संपूर्ण जिंदगी के सुख व वैभव का ही परित्याग करना पड़ जाता है। तब जाकर कहीं एक घर का निर्माण हो पाता है। आजकल के आधुनिक परिवेश में रेडीमेड मकान खरीदने का भी कल्चर अधिकाधिक रूप से चलन में आता जा रहा है। परंतु इसे घर हमें ही बनाना होता है। पूरे मकान को संस्कार की ऊर्जा से ही सजीव बनाया जा सकता है, नहीं तो यह निर्जीव ही बना रहेगा। हमें मकान से घर बनाने की कला स्वत: ही सीखनी व विकसित करनी होगी, नहीं तो किसी चाहरदीवारी के अंदर नाम के ही रिश्ते रहेंगे और न ही उनमें किसी भी प्रकार की आपसी संवेदना या सौहाद्र्र की भावना का निर्माण हो पाएगा। घर एक मंदिर की तरह से होता है, जिसमें संस्कारों का ही वास होता है। सभी सुसंस्कारित सदस्यों के एक जगह एक साथ सौहार्द्रपूर्ण रहने से ही वहां पर देवी-देवता एक साथ निवास करने लगते हैं। इस प्रकार ऐसी जगह पर हमेशा एक सघन ऊर्जा चक्रीयकृत होती रहती है, जिससे परिवार का कल्याण होता है।

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