Thursday, December 2, 2010

समाज के माथे पर चिंता की लकीर है- बढ़ती आत्महत्या


शौक जीनें का है मगर इतना भी नहीं, कि जिंदगी तुझसे हर बात पर समझौता करुॅ। किसी शायर की यह लाइनें आजकल के तमाम युवाओं की जिंदगियों पर बखूबी दुरस्त नजर आती हैं। क्योंकि आये दिन किसी ना किसी की खुदखुशी की खबर समाचार पत्रों का अहम हिस्सा बनती जा रही हैं। बुजदिली कही जाने वाली आत्महत्या को आज ज्यादातर लोग गले लगाने को मजबूर हैं।
कभी खुदखुशी की अधिकतर खबरें प्रेम में असफल व्यक्ति ही करते थे, या फिर परीक्षा आदि में फेल होने वाले छात्र या छात्रा ही अपना जीवन समाप्त करना बेहतर समझते थे। आज के बदले हुए परिवेश में छोटी-छोटी बात पर ही लोग अपनी जान देनें में आमादा हैं, वह आगे की तनिक नहीं सोचते। पढ़े-लिखे बुद्धिमान माने जाने वाले लोग भी अपनी जान देने में आगे हैं। इनको अपने परिवार की भी कोई ंिचंता नहीं होती है, कि आखिर इनके बाद इनके परिवार पर क्या बीतेगी। इन सबको इससे कोई सरोकार नहीं होता, बस अपने आपको छुटकारा देना चाहते हैं। छोटे-बड़े शहरों से लेकर कस्बों तक आत्महत्या जैसी खबरों का ग्राफ बहुत तेजी से बढ़ रहा है। समाज के माथे पर यह चिंता की बहुत बड़ी लकीर है, जिसके समाधान हेतु चिंतन बहुत आवश्यक है।
जिंदगी के झंझावातों से उबकर, संधर्ष की लड़ाई में अपनी हार समझ बैठे लोग आत्महत्या को ही बहुत आसान विकल्प में स्वीकार कर लेते हैं। जिंदगी के सभी मायने व जिम्मेदारियों को नजरअंदाज कर देते हैं। सबसे बेपरवाह होकर अपने जीवन की ईहलीला को एक झटके में ही समाप्त करना उचित समझते हैं। कुछ समय पहले के समाज में आत्महत्या के मुख्यतयाः आरोपी असफल व निराश प्रेमी या प्रेमिका अथवा हताश छात्र या छात्रा ही होते थे। जिनको नासमझ कहा जाता था। जिनको जीवन की दुर्लभ क्षमताओं व प्राप्तियों की कदर नहीं कर पाते हैं और नासमझी में अपना जीवन ही खत्म कर देते हें। आज का माहौल बहुत बदल रहा है, आत्महत्या करने वालों में पढ़े-लिखे, बी टेक, एम टेक डिग्री होल्डर भी शामिल हैं। कोई फांसी लगा रहा है, कोई जहर खा रहा है, कोई छत से कूद जाता है। अनेको किससे हैं, परिणाम होता है-खुदखुशी। देखा जाता है कि आत्महत्या करने वाले के दिमाग में अचानक तमाम झंझट दिखाई देने लगते हैं। कोई माली हालत ठीक न होने के कारण अपने आप को खत्म कराना ही मुनासिब समझता है। नौकरी-रोजगार ठीक से ना चल पाने के कारण कई लोग अपनी जिंदगी से उब कर ऐसा कदम उठा लेते हैं। किसी नें व्यापार में बड़ा धाटा उठा लिया, वह सदमे में आ गया। दिमाग में ऐसा असर हुआ कि उसने आत्महत्या कर ली। आत्महत्या जैसी प्रवृत्ति रखने वालों में अब किसी बड़ी वजह का होना जरुरी नहीं, अब यह पाया जा रहा है कि छोटी-छोटी बात, कहासुनी या किसी डाट-डपट का परिणाम भी आत्महत्या जैसा सरीखा हो रहा है। यहां तक कि इस काम में किशांेर वर्ग भी अपनी तुनकमिजाजी के कारण यह कृत्य कर डालते हैं।
किसी की मौत का कारण तो आत्महत्या हो सकता है, लेकिन आत्महत्या करने का आधारभूत कारण क्या हो सकता है, यह सबसे चिंतनीय बिषय है। मृत्यु तो हुई सांस न ले सकने के कारण, फेफड़ों व आंतो में जहर पहुंचन के कारण या अत्यधिक रक्तस्राव होने के कारण। सवाल यह है कि इन आत्महत्या करने वालों की उस दौरान मानसिक स्थिति ऐसी क्यों हो रही है इसके पीछे आखिर क्या कारण हैं। यह आत्महत्या करने वालों के मनोविज्ञान को समझने का भी बिषय है। किसी का जीवन खत्म होने के बाद में तो हम आत्महत्या के पीछे के कारण को जान लेते हैं कि पीड़ित को गहरा मेंटल प्रेशर था, वह इनदिनों अत्यधिक तनाव में था व उसे काफी दिनों से अवसाद से ग्रसित था, इत्यादि। बात यह हो जाती है कि जीवन के रहते इनकी मानसिकता को समझनंे में सफल नहीं हो पाते हैं। इस बात को हमेशा नजरअंदाज करते हैं व केवल अपनी बात ही मनवाना चाहते हैं। एक तरह से कहा जाय कि हम अपने फैसले इनपर थोपते ही है। इनकी चाहत की किसी को चिंता नहीं होती है। ज्यादातर किशोर वर्ग के बीच यही बात देखी जाती है कि हम उन पर दबाव तो हमेशा बनाते हैं लेकिन क्या उनकी इच्छा, सार्मथ्य को समझकर उनका हौसला भी बढ़ाते हैं। आत्महत्या के किसी दूसरे मामले में भी यही होता हैं कि एक अकेला व्यक्ति कभी-कभी सबकी फरमाइश पूरी कर पाने मेें अक्षम हो जाता है व अपने आप को अनावश्यक दबाव में ग्रसित महसूूस करता हैं व धीरे-धीरे अवसाद में चला जाता है।
इतनी बड़ी तादात में हो रहीं आत्महत्या आज समाज के सामने यक्ष प्रश्न की तरह हैं। आज सबकी महात्वकांक्षाएं भी इस कदर बड़ी हैं जिनके आगे धैर्य, संयम, सहनशीलता सब कुछ धुटने टेक असहाय हो जाते हैं। और समाज का युवा वर्ग इस कदर आत्महत्या करने में आमादा हो जाता है कि उसे किसी की कोई परवाह नहीं होती है। आज आत्महत्याओं के आंकड़े इतने बड़े होते जा रहे हैं जिनसे आहत परिवार व पूरे समाज का तानाबाना बिगड़ना स्वाभाविक है।

लाइफ में लाइन ऑफ कन्ट्रोल का होना जरुरी


हर चीज की एक हद होती है। जब भी किसी चीज की हद या सीमा पार हो जाती है, तब स्थिति और भी तनावपूर्ण हो सकती है और नियंत्रण से बाहर भी। यही है जिंदगी की लाइन ऑफ कंटोल। जो हमारी जिंदगी की हर छोटी-बड़ी चीजों से सीधे जुड़ी होती है। धर-बाहर हर जगह हमें रोज इनसे दो-चार होना पड़ता है। हमारा और आपका रोज इनसे आमना-सामना होता है। बात चाहे कहीं की भी हो, कोई भी व्यक्ति इनसे बचने का अपवाद नहीं हो सकता है। हर एक व्यक्ति इनसे जूझता हुआ दिखाई देता है। कोई भी चीज इस एल ओ सी को पार कर दे और जीवन की तमाम परिस्थितयां उलट जाएं। या आउट ऑफ कन्ट्रोल हो जाएं, इससे पहले ही क्यों न एक जरुरी कदम उठाया जाय। किसी भी स्थिति से निपटने के लिए उस पर टेक कन्ट्रोल पहले ही कर लिया जाय, यानि की नियंत्रण के अंदर।
हर एक चीज की सीमा है। सीमा रेखा जैसे ही पार होती है, दिक्कतें वहीं से शुरु हो जाती हैं। यह बात किसी एक जगह की या फिर किसी व्यक्ति विशेष की नहीं है। यह वाकया किसी भी जगह व किसी के साथ भी हो सकता है। इसमें सभी लोग शामिल हैं, कोई भी इनसे अछूता नहीं है। बात चाहे किसी के धर की हो, जहां पर परिवार के कई सदस्य एकसाथ रहते हैं। परिवारिक रिश्तों के बीच भी अक्सर ऐसी अनचाही स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं, जिनसे तनाव होने की पूरी संभावना बन जाती है। इससे पहले कि पूरा माहौल अप्रिय हो जाय, हमें तुरंत सबकुछ नियंत्रण में करना होता है। यह कदम परिवार के हर एक रिश्ते व सदस्य के हित में एक विवेकपूर्ण प्रयास होता है। हम धर के बाहर भी ऐसी ही स्थिति का सामना अक्सर करते हैं- आफिस में अपने सहकर्मियों के साथ में, बॉस या उच्च अधिकारियों के बीच में व अन्य वार्तालाप या लोकव्यवहार को निभाने वक्त भी किसी को अपनी सीमा या हद को लांधना उचित नहीं कहा जा सकता है। किसी भी सामान्य या असामान्य धटना की एल ओ सी किसी भी तरह का नुकसान न कर दे, इस बात का भी ध्यान रखना अति आवश्यक हो जाता है। मामला धरेलू जिम्मेदारियों के निभानें का हो या फिर नौकरी-रोजगार में। नियंत्रण में सबकुछ हमको ही रखना पड़ता है, नही ंतो इसका खामियाजा भी हमको ही उठाना पड़ता है। अपनी रोजी-रोटी कमाने के बीच में ही कभी धरेलू समस्याएं भी आड़े आ जाती हैं, जो स्थिति को तनावपूर्ण कर सकती है। हमारी जिंदगी पर इनका कोई प्रतिकूल असर दिखे, इससे पहले ही यह जरुरी है कि हम इन पर काबू पा लें व स्थिति को नियंत्रण में कर लें। बच्चों की आदत में सुधार लाने के लिए भी उन पर नियंत्रण रखना होता है ताकि बच्चा कहीं बिगड़ ना जाय। धर बाहर हर जगह हमें ही इन सब चुनौतियों के बीच में ही अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन भी करना होता है।
अक्सर हमें यह एहसास होता है कि अब हमारे वश में कुछ भी नहीं रहा। सबकुछ हमसे पार हो गया। स्थिति तब और भी भयावह होने लगती है जब हम असहाय हो जाते हैं। इसी समय जरुरत होती है असल रुप में नियंत्रण रखने की। यह ऐसे होता है जैसे हम कोई गाड़ी चला रहे हों, और अचानक हमारी गाड़ी बहक जाती है। धबराहट में दुर्धटना भी हो सकती है। जबकि गाड़ी की रफतार को कम करके उसपर नियंत्रण रखा जा सकता है। ब्रेक लेकर गाड़ी को रोका जा सकता है, ताकि उसपर हमारा कन्ट्रोल बना रहे व किसी भी दुर्धटना से बचा जा सके। इसीलिए तादात, सीमा या हद को नियंत्रण रेखा कहा गया है। जैसे ही कोई यह नियंत्रण रेखा पार कर जाता है, वह तुरंत ही जोखिम वाले क्षेत्र में पहुंच जाता है और खतरे वहीं से शुरु हो जाते हैं। आदमी के लिए जीवन में स्वास्थय सबसे अमूल्य बताया गया है। इसलिए स्वास्थय के प्रति भी सचेत होकर नियंत्रण रखने की आवश्यकता होती है। बुरा खान-पान तो हमारंे शरीर के लिए नुकसानप्रद है ही, साथ ही तादात से ज्यादा अच्छा खाना-पीना भी सेहत के लिए ठीक नहीं होता है। क्योंकि सीमा के बाहर कुछ भी अच्छा नहीं होता है, वह अपना बुरा असर दिखाता ही है। मेडिकल साइंस भी यही कहती है कि शरीर, दिमाग व पेट सबकी अपनी क्षमता होती है, इनपर अत्यधिक बोझा डालने से यह अनुकूल परिणाम नहीं दे सकते हैं। जिसका उदाहरण ही हैं कि आजकल छोटी उम्र के लोग भी मोटापा, ब्लड प्रेशर व डायबिटीज जैसी बीमारियों से पीड़ित हैं।
अब आवश्यक है कि हम हर चीज की तादात को अच्छी तरह से समझें तथा उसकी सीमा को पहचानें। अमूल्य जिंदगी के किसी भी हिस्से को डेन्जर जोन में पहुंचने से पहले ही उसपर अपना नियंत्रण बना लें। क्योंकि शुरुआती तौर पर एक चिंगारी को केवल एक कप पानी डालकर बुझाया जा सकता है, नही ंतो इससे भड़की आग पर काबू पाना या नियंत्रण करना मुश्किल भरा हो सकता है।

Friday, November 19, 2010

जनहित में कैसे होगा राखी का इंसाफ


इन दिनों राखी सावंत फिर खूब चर्चा में हैं। मीडिया और खबरों में कैसे रहा जा सकता है, यह बात राखी जी अच्छी तरह से जानती हैं। अखबारों की सुर्खियां हों या फिर टी वी शो। इन सब में बहुत माहिर हैं राखी सावंत। आइटम गर्ल के नाम से विख्यात राखी हमेशा अनेक विवादों के बाद भी चर्चा में बनी रहती हैं। वह लोगों के बीच में बने रहनें का तरीका ढूंढ ही निकालती हैं। बात चाहे कैसे भी विवाद की हो, राखी को मीडिया में कवरेज भी खूब मिल जाती है।
राखी सावंत के काम करने के तरीके भी अजीब व निराले होते हैं। सीधे व सादे तरीके से वह कोई भी काम नहीं करती हैं। अभी कुछ समय पहले राखी सावंत नें अपने जीवन साथी की खोज के लिए एक टी वी चैनल पर ‘राखी का स्वयंवर‘ कार्यक्रम प्रस्तुत किया था। जिसकी चारो तरफ खूब चर्चा रही। अब मैडम राखी नें एक नई पेशकश करी, जिसका नाम है ‘राखी का इंसाफ‘। एक चैनल पर प्रसारित इस कार्यक्रम में राखी सावंत जज की भूमिका में हैं, जो लोगों के आपसी झगड़े निपटाती हैं।
कितना अजीब संयोग होता है कि तमाम लफड़ों व झगड़ों में रहने वाली राखी सावंत अब खुद दूसरों के विवादों को सुलझानें व समझौते का काम राखी का इंसाफ कार्यक्रम के माध्यम से करती दिख रही हैं। बिंदास जीवन जीने वाली राखी नें कार्यक्रम में इंसाफ मांगने वालों के जीवन के गंभीर व नाजुक पहलुओं को समझनें का जोखिम भरा जिम्मा तो ले लिया है। अब देखना यह है कि वह इस काम में किस तरह खरी उतरती हैं। आइटम गर्ल के नाम से मशहूर अभिनेत्री राखी सावंत जितना किसी कार्यक्रम में नहीं दिखाई देतीं हैं उतना विवादों में धिरी रहती हैं। एक समय पहले राखी सावंत जी नें अपनी शादी रचानें के लिए ‘राखी का स्वयंवर कार्यक्रम चलाया था। उस समय ऐसा लग रहा था कि अब राखी अपने जीवन साथी को चुन ही लेंगीं। जिसके लिए उन्होंने शो में आये प्रतिभागियों के साथ खूब बातें करीं, धूमी-फिरी, नाच-गाना किया और उनके धर तक गईं। और अंततः भारतीय मूल के कनाडा में बसे बिजनेस मैन इलियास को सेलेक्ट किया। उनके साथ इंगेज्मेंट भी हो गई। फिर बाद में शादी का क्या हुआ। इलियास के साथ शादी की तारीख कौन सी निकली, कब करंेगी शादी। इन सबका कुछ पता नहीं। अपनी शादी को सच बताने वाली राखी सावंत का यह हाई प्रोफाइल प्रोग्राम केवल पापुलारिटी शो था, या वाकई स्वयंवर। यह तो आखिर राखी ही जानती हैं। राखी जी की शादी हो न हो, पर शो हिट हो गया। अब बारी आई नये शो की, और उन्होंने शुरु किया ‘राखी का इंसाफ‘। उन्होंने अपनी अलग अदालत बना दी। उनकी अदालत में गवाह भी होते हैं, और सबूत भी दिये जाते हैं। अदालत में पहरेदार की तरह उनके यहां निजी सुरक्षाकर्मी के रुप में ‘बाउंसर‘ भी मौजूद रहते हैं। इस कार्यक्रम में ज्यादातर लोग फिल्मी या फिर छोटे पर्दे से जुड़े कलाकार होते हैं। जो मुंबई यानि कि फिल्मी नगरी में स्ट्रगलर कहे जाते हैं। ऐसे में इनको कोई नहीं जानता है। किसी भी तरह से ये लोग जल्द से जल्द अपनी पहचान व कॅरियर बनाना चाहते हैं। कोई छोटी बात या विवाद के सहारे भी नाम कमाया जा सकता है। आपसी झगड़े या विवाद करना उतना महात्व नहीं रखता है, जितना फायदेमंद होता है उन बातों के माध्यम से लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचना तथा किसी भी सूरत में चर्चा बटोरना। अपनी पहचान बनाने के लिए यही संधर्षरत कलाकार इन कार्यक्रमों में हिस्सा लेने जा पहुंचते हैं। लेकिन, दुर्भाग्यवश इनकी चपेट में झांसी जिले का नवयुवक लक्ष्मण आ गया। जिसके लिए जज बनीं राखी सावंत नें अमानवीय, अभद्र व अशिष्ट भाषा का प्रयोग किया। जिससे उसको ऐसा बड़ा आधात पहुंचा कि उसने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली।
राखी का कोर्ट-रुम ऐसा है जहां न तो कोई मर्यादा है और न ही कोई लोक-लिहाज का डर। सभी बिंदास हैं। कोई किसी पर जूते या चप्पल फेंकता है, तो कोई किसी को मारने दौड़ता है। मार-पीट के साथ गाली-गलौज तो आम बात है। इंसाफ की देवी बनीं राखी सावंत का अंदाज खुद में बेतुका व अभद्र दिखता है। राखी के इस कार्यक्रम को शुरुआती दौर में लोकप्रियता तो नहीं परंतु चर्चा खूब मिली। इंसाफ के नाम पर अभद्र, अश्लील व फूहड़ टिप्पणियों के चलते इनके कार्यक्रम में संकट के बादल मंडराने शुरु हो गये हैं। देश के कई जिलों से इस कार्यक्रम व आयोजकों के खिलाफ याचिकाएं व मुकदमे लिखने भी शुरु हो चुके हैं। देखने वाली बात यह भी है कि महज अपने चैनल की टी आर पी बढ़ाने के चक्कर में टी वी चैनल भी क्या कार्यक्रम का कन्टेंट नहीं देखते हैं। गंभीर मसला यह भी है कि रियलिटी शो के नाम पर फूहड़ता व अश्लीलता से जुड़े कार्यक्रम आम दर्शकों के बीच परोशना जनहित में कितना हितकर हैं व कैसा मनोरंजन देना चाहते है यह भी अहम सवाल है?

Sunday, October 31, 2010

मोटिवेट करने की क्षमता बेजुबान चीजों में भी


जब हमारा शरीर थकने लागता है, मन अचानक धबरा जाता है कि फलां काम में सफलता मिलेगी या नहीं। तभी, मन को मोटिवेशन की तुरंत आवश्यकता पड़ती है। यही मोटिवेटिंग प्वाइंट ही हमें पीछे से हमारे लक्ष्य की ओर तेजी से ठकेलता है।
सफलता के पथ पर मंजिल को पाने की तीव्र इच्छा कई व्यवसायिक गुरु जगाते हैं तथा जोश भरने का काम करते हैं, जिनकी प्रेरक व उर्जा भरी बातों से लक्ष्य तक पहुंचने की लालसा बढ़ती जाती है। लेकिन, इसी बीच कुछ प्रेरणास्रोत व्यक्तियों के अलावा कई बेजुबान चाजें भी हमें मंजिल की ओर मोटिवेट कर देती हैं। इनमें एक अजीब से आकर्षण के साथ एक जबरदस्त तेजी भी देखी जाती है। और इस तरह से अपनी मन चाही चीज हासिल करने में इनका योगदान भी कुछ कम नहीं होता है।
जैसे हमारा शरीर मजबूत, हष्टपुष्ट व ताकतवर बनता है उचित खानपान से, उसी तरह हमारे इरादों को भी जरुरत होती है उर्जा व लगन की। जिसको विटामिन व प्रोटीन मिलता है समय पर मोटिवेशन मिल जाने से। हम सभी अक्सर दूसरों से प्रेरणा लेते हैं तथा इसके साथ ही खुद को मोटिवेट करने के नये तरीके खोज लेते हैं। सफलता का सफर बोझिल व नीरस न बनने पाये, इसके लिए अपने चारों तरफ से ही किसी एक को अपना मोटिवेटिंग प्वाइंट बनाना सफल होने में मील का पत्थर साबित हो सकता है। क्योंकि अपने लक्ष्य के प्रति लगे रहने की प्रवृत्ति व आदत बहुत आवश्यक है। कोई अपना कॅरियर बनाने के लिए दिन रात पढ़ाई करता है कि एक दिन वह कुछ बन कर दिखायेगा, अच्छी नौकरी मिलेगी, पैसा होगा। यह सब बच्चे के माता पिता व गुरु भी उसे सिखाते हैं। लेकिन सही मायनों में उसकी इच्छा तब परवान चढ़ती है, जब वह अपने आस पास के किसी व्यक्ति को इस तरह से किसी मुकाम तक पहुंचते हुए देखता है। यहां से उसको सही मोटिवेशन मिलता है। इसके इरादों में अब और मजबूती व तेजी देखी जाती है। कोई सरकारी नौकरी या प्रशासनिक सेवा के लिए किसी को अपना मोटिवेशन बना लेता है, तो कोई व्यापार में मोटिवेशन के लिए टॉप बिजनेस मैन को अपना प्रेरक स्वरुप बनाता है। कोई स्पोटर््स में अपना कॅरियर बनाना चाहता है तो शिखर को छूने वाले खिलाड़ियों को देखकर मोटिवेट हो जाता है।
शरीर का विकास विटामिन व प्रोटीन से होता है, कॅरियर में आगे बढ़ने तथा अपनी इच्छाओं को जाग्रत रखने तथा इन्हें और बल देनें के लिए अपने मोटिवेशन की तलाश नितांत आवश्यक है। जिसके सहारे हम अपनी मंजिल तक हंसते मुस्कराते पहुंच सकते हैं। किसी विद्यार्थी का अलग मोटिवेटिंग प्वाइंट हो सकता है, तो किसी व्यापारी अलग तरीके से अपनी उर्जा ढूंढ लेता है। एक सफल व्यक्ति जाने अनजाने आसानी से किसी का मोेटिवेटर हो जाता है। इनके अन्दर असीम प्रेरक क्षमता व अनुभव का आकर्षण पाया जाता है। जिसके तहत एक सफल व उपलब्धिवान व्यक्ति को लोग अपना रोल-मॉडल बना लेते हैं, व उनके नक्शे कदम पर चलने से अपने आप को सुरक्षित भी महसूस करते हैं तथा अपनी मंजिल तक जा पहुंचते हैं। लेकिन इसी बीच कुछ बेजुबान चीजें भी बहुतों को अपने अनोखे तरीके से लुभाती हैं तथा आगे बढ़ने के लिए अनवरत प्ररित करती रहती हैं। मसलन, सड़कों पर फर्राटा मारती हुई चमचमाती हुई गाड़ियां भी किसी का मोटिवेशन हो सकती है। ये बेजुबान होते हुए भी लोगों को मोटिवेट करती हैं, और लोग भी इसको अपना टारगेट बना लेते हैं। लोग अटूट मेहनत करते हैं, अपना बजट बनाते हैं कि एक साल में या फिर दो साल के अंदर वह इसी तरह की कार खरीद ही लेंगे। किसी व्यक्ति का सपना अगर खुद का मकान बनाना है, तो वह दूसरों के मकान व बंगलों को देखकर मोटिवेट होता रहता है। दूसरों के मकान उसे हार्ड वर्किंग बनाते हैं। वह रोज वही मकान देखते हुए अपनी दुकान या काम पर जाता है, और सोचता है कि एक दिन उसका भी मकान ऐसा ही होगा। बड़ी दुकान या भव्य शो-रुम देखकर एक छोटा दुकानदार आर्कषित हो सकता है और भविष्य में किसी बड़े शापिंग काम्पलेक्स बनाने के लिए द्रढ़ संकल्पित भी हो सकता है। किसी भी प्रकार का मोटिवेशन किसी भी बड़े टारगेट की दुख और तकलीफों को कम कर देता है और मंजिल के प्रति चमत्कारिक आकर्षण पैदा कर देता है।
समाज में प्रेरणा, उर्जा व मोटिवेशन जहां लोगों से मिलता है, वहीं बिन बोलती चीजों से भी। यह भी हमारे मिशन को प्रेरणा देनें का काम करती हैं। जरुरत है तो बस इन्हें अपने लक्ष्य को प्राप्त करनें में उचित इस्तेमाल करने की। निरंतर आगे बढ़ने व मनवांछित सफलता अर्जित करने के लिए अपनी इच्छा शक्ति को और प्रबल बनाने की हरदम दरकार है। खेल का मैदान हो या राजनीति का, मनोरंजन का क्षेत्र हो या व्यवसायिक, कामयाब होने के लिए अपने-अपने तरीकों से स्वयं को मोटिवेट करने का रास्ता निकालने से हर मंजिल आसान हो जाती है।

Thursday, October 21, 2010

हंसी का बदलता स्वरुप


पहले की अपने संगी साथियों के साथ हंसी-ठिठोली की धंटो बातें अब सिर्फ यादों के अलावा और कुछ नहीं। आज हर कोई व्यस्त है, सभी की दिनचर्या बुरी तरह से बंधी हुई है। काम के चक्कर में आदमी दिनभर लगा रहता है। दिन के खत्म होने के साथ शरीर में थकावट के साथ मानसिक तनाव भी हो जाना कोई बड़ी बात नहीं होती। कहीं-कहीं पर काम धंधे के बीच या किसी गंभीर बातों के बीच हंसी मजाक को अच्छा नहीं माना जाता। नतीजन, धीरे-धीरे प्राकृतिक हंसी का माहौल खत्म होता जाता है और ढेरों बीमारियां इसके बदले में मिलती जा रही हैं।
अधिकतर लोग समझते हैं कि गंभीर बने रहने व दिखने में ही व्यक्तित्व में आर्कषण होता है। मेडिकल साइंस कहती है कि व्यक्ति का खुश रहना व हंसना तो स्वस्थ जीवन का आधार है। जिसके लिए हमें हंसी के नये बहाने व मौके अवश्य तलाशने होंगे। क्योंकि यह जिंदादिली की भी निशानी है।
कहतंे हैं कि जीवन हंसी के बिना अधूरा व बेजान सा होता है। हंसने से ही जीवन हंसता व मुस्कराता रहता है। लेकिन, सबसे विचित्र बात यह है कि हंसने का न तो किसी के पास पर्याप्त समय ही है, और न ही माहौल।
सब कुछ बस भागता जा रहा है। समय भी, और आदमी भी। एक पड़ाव के बाद दूसरा, फिर अगला। सुबह से शाम तक बस यही सब होता है। रात में थककर आदमी औंधे मुंह बिस्तर पर गिरकर सो जाता है। आखिर आदमी हंसे तो कब कहां और कैसे ! एक नजर इस पर डालें कि क्या हंसने की वजह भी परिवार से कहीं दूर तो नहीं होती जा रही हैं। किसी को पढ़ाई की चिंता सताती है तो कोई अपने कॅरियर के बारे में परेशान रहता है। किसी का काम-धंधा ठीक से नहीं चल पाता तो वह उलझन में फंस जाता है। किसी को व्यापार में भारी नुकसान हो गया तो उसके चेहरे की हंसी गायब हो गई। उधर किसी को फायदा नहीं हुआ तो वह मायूस हो गया। किसी के धर में उसके बच्चे बेरोजगार बैठे हैं, तो कहीं पर किसी की बेटियां बिन ब्याही बैठी हैं। इन सबके साथ लोगों के साथ परेशानियां भी कुछ कम नहीं हैं। कहीं-कहीं पर हंसने की कोई गुंजाइश नहीं दिखाई देती है। हंसने की प्राकृतिक स्थितियां अगर नहीं दिखाई पड़ती है तो यह वाकई गंभीर मामला बन जाता है। क्योंकि जहां तक हंसी का मनोरंजन के साथ सीधा नाता है तो वहीं पर स्वास्थ्य के साथ भी इसका वही रिश्ता है। कोई आफिस में बड़ा अधिकारी है, इसलिए अपने कनिष्ठ कर्मचारियों के साथ हंसी ठिठोली करने से उसकी छवि और गरिमा व पद पर बुरा असर पड़ सकता है। किसी दूसरे मामले में सहकर्मियों द्वारा उसकी बात को महात्व न दिये जाने या अन्यथा में लेने का डर सताता है। इसलिए वह बड़ा अधिकारी अपने स्टाफ के साथ नहीं हंस सकता है। धर में बीवी और बच्चों के साथ भी यही बात होती है, उसके व्यक्तित्व को खतरा लगने लगता है। कल को उसके अपने बच्चे उससे नहीं डरेंगे, अगर उनके साथ हंस कर बात कर दी तो। फिर उसकी बीवी भी उसके काबू में नहीं रहेगी। उसके धर में बनाये गये अनुशासन का क्या होगा। इन सब बातों को देखने से ऐसा नहीं लगता कि हमने कहीं खुद ही अपने हाथों से ही हंसी की खुदखुशी कर दी हो। हंसी के संसाधनों में आई कमी को हमें अपने हित के लिए संजोना बहुत आवश्यक है। क्योंकि हंसी के प्राकृतिक वातावरण को जरुरी खाद पानी नहीं दिया जा रहा है। शायद इसीलिए यह चेहरों से गायब मालूम पड़ती है, और चेहरे गमगीन व बुझे हुए दिखाई देते हैं।
जैसे-जैसे प्राकृतिक हंसी के मौाकों व माहौल में कमी आने लगी, तभी समाज में हंसी का स्वरुप भी बदलना शुरु हो गया। जीवन में हंसी की जरुरत को समझने वालों नें इसके नये दरवाजे व रास्ते बना दिये। आफिस या धर पर हंसी किसी कारण न मिल सकी तो कोई बात नही। अब यह हंसी हास्य क्लब में दिखाई देती है। दिखने में तो हंसने का मात्र नाटक लगता है, हंसी बनावटी लगती है। परंतु, असरकारक होती है। यहां पर लोग हंसने का योगाभ्यास करते हैं। सुबह पार्कों में टहलते हुए लोग जब आपस में हंसी और जोरदार ठहाकांे साथ पेट पकड़ कर हंसते हैं, तब यह लोग अटपटे नहीं लगते। बल्कि इस बात का अहसास कराते हैं कि जीवन में हंसी की अत्यंत आवश्यकता है। ये सभी अपने जीवन में हंसी को बरकरार रखना चाहते हैं। बढ़ती हुई उम्र में भी तरोताजा बने रहने के लिए हंसने की कोई न कोई तरकीब खोज ही लेते हैं। पार्कों का हास्य योग हो या हंसी क्लब के ठहाके। या फिर धरों के ड्राइंग रुम या बेड रुम में कॉमेडी टी वी सीरियल या फिल्मों के माध्यम से मिलने वाली हंसी। वह बनावटी ही सही, परंतु तनाव के बोझ को हल्का जरुर कर देतीे है।

Friday, October 15, 2010

धर्म की आड़ में राजनीति क्यों


याद आ जाता है अयोध्या की विवादित भूमि के फैसले का दिन। पहले 24 सितम्बर, इसके बाद 30 सितम्बर को सड़कों पर कफर्यू जैसा माहौल। हर कोई अपने रोजमर्रा के खास जरुरी कामों को निपटाते वक्त अयोध्या के राम जन्म भूमि व बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक के फैसले का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहा था। हर तरफ एक अजीब सी बेचैनी का आलम था तथा हर पल असमंजस भरा होता जा रहा था। संवेदनशील शहरों व इलाकों में धारा 144 लगी होने के कारण लोग एक जगह इकट्ठे नहीं हो पा रहे थे। परंतु अपने-अपने फोन या मोबाइल पर इस धटना से जुड़ी खबरों या कयासों का आदान-प्रदान जारी था। जरुरी नहीं कि फोन पर बतियाने वाले केवल एक ही वर्ग या संप्रदाय के ही हों। हिन्दू और मुस्लिमों के बीच भी फैसले को लेकर दोस्ताना बातचीत हो रही थी। कहीं-कहीं इसी क्र्रम में सन् 1992 में बाबरी मस्जिद बिध्वंश के बाद उठी दंगे व फसाद की लपटों का भी ख्याल आ जाता, जिसने कई प्रदेशों में तक संप्रदायिक बवाल व उत्पात मचा दिया था।
ईश्वर की कृपा से व अल्लाह की रहमत से इतने भयावह माहौल में इस बार ऐसा कुछ भी कहीं नहीं हुआ। पूरे देश में कहीं से भी कोई अमन और चैन के लिए बुरी व इकलौती खबर नहीं आई। जिसके लिए वाकई अल्लाह को मानने वाले व ईश्वर को पूजने वालों नें इंसानियत का परिचय दिया तथा न्यायालय के फैसले का सम्मान किया।
इस धर्मिक मुकदमे के 60 सालों के दौरान देखा जाय तो दोनों ही कौमों के लोगों नें इससे कुछ पाने के नाम पर खोया ही ज्यादा है। सन् 1992 की धटना के बाद इन 18 सालों में चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान दोनों ही लोग यह बात बहुत अच्छी तरह जान चुके हैं कि अब यह मुद्दा केवल धर्म तक सीमित नहीं रह गया है, इसके सहारे प्रदेश से लेकर केंद्रीय सत्ता तक के चुनाव लड़े जाते हैं। इस मुद्दे नें बीते इन सालों में कितनी ही सरकारें बनवाईं व गिर्राइं, क्योंकि अब इसका फायदा अपना-अपना वोट बैंक बढ़ाने तथा सियासत करने के काम आता है। इन सियासी चालों से अब देश की जनता अंजान नहीं रही। यह भी सच है कि जब कोई राजनीतिक दल किसी धर्म बिशेष से जुड़ता है, तब उसकी भूमिका सांप्रदायिक सी हो जाती है। जिससे केवल कट्टरवाद पनपता है तथा नफरत ही फैलती है। फिर हर तरफ तनावपूर्ण माहौल देखा जाता है। कोर्ट नें अपने इस अहम फैसले में आस्था को आधार बताकर जो फैसला दिया, उसने निसंदेह दोनों ही कौमों के लोगों के बीच नफरत को खत्म करने तथा आपसी सुलह का रास्ता खोला है।
देखा गया है कि इस फैसले को दोनों ही पक्षों नें सम्मान दिया। कहीं पर कोई हलचल नहीं हुई, सभी नें अमन व शांति का परिचय दिया। दंगा-फसाद का तनिक भी माहौल नहीं दिखा। हां, पूर्ण सहमति भी नहीं दिखी। इस पर भी सब कुछ शांत था। शांत नहीं दिखे तो वही चंद राजनीतिक लोग। जो इन्हीं पर अपनी सियासी बाजी खेलते हैं व हर वक्त इसी ताक में रहते हैं। इन लोगों को यह स्थिति जरुर बहुत अटपटी व अपची सी लगी। जहां पर अब सुलह की बात आगे बढ़ने लगी है, या फिर न्यायिक तरीके से हर कोई अपनी बात कहने को स्वतंत्र है। इसी बीच अपने आप को मुस्लिमों के हिमायती मानने वाले मुलायम सिंह यादव जी का यह बयान आ गया कि इस फैसले नें मुसलमानों को ठगा सा कर दिया। इस पर कोई ज्यादा बवाल मचता। इससे पहले मुस्लिमों नें ही मुलायम के इस बयान पर खासी आपत्ति दर्ज करा दी। इसका मतलब साफ है कि अब कोई भी इन राजनीतिक चालों में फंसकर बेवकूफ बनना नहीं चाहता।
मुकदमे के इतने सालों में जो युवा थे, अब बूढ़े हो चले हैं। कल के बच्चे अब युवा हो चुके हैं। फायदे और नुकसान की गणित सबको अच्छी तरह आ चुकी है। विवादित भूमि अयोध्या- जहां का यह पूरा मामला है। वहां का हर हिन्दू और मुसलमान सब एक साथ रहते थे और आज भी रहते हैं। उनको आपस में एक दूसरे से कोई दिक्कत नहीं होती। दिक्कत केवल बाहरी लोगों को है, और बाहरी दखलंदाजी ही माहौल को बिगाड़ती है। आज की अमन परस्त आबादी आपसी सुलह से पूरे मामले को निपटाने के लिए तैयार है। बात भी आगे बढ़ रही है। जनता ने ंतो समझदारी का परिचय दे ही दिया है। अब बारी देश के राजीनीतिज्ञों की है। इक्कीसवीं सदी की युवा जनता का यह ताजा संदेश देश की मुख्य धारा की राजनीति करने वालों के लिए किसी सबक से कम नहीं होगा। कि अब आपस में कोई भी धर्म और संप्रदाय के नाम पर लड़ना नहीं चाहता। राजनेताओं तथा अपने आप को जनता का सच्चा रहनुमा व हिमायती मानने वालों को लोकहित के लिए साफ सुथरे मुद्दे ढूंढने होंगे। वोट बैंक की राजनीति के लिए देश की जनता अब अपनी कुर्बानी देना नहीं चाहती।

Friday, October 1, 2010

ऊपर वाले को भी थैंक्यू या सॉरी बोला क्या?


आज हर तरफ व्यक्ति बहुत मैनरफुल दिखाई पड़ता है। बात-बात पर थैंक्यू या सॉरी शब्द हर एक की जुबान पर होते हैं। किसी की वजह से हमारा कोई काम बन जाता है, तो हम उसके शुक्रगुजार हो जाते हैं। और हम उसको धन्यवाद देने से नहीं चूकते। अगर हमसे कहीं पर गलती हो जाय, तो हम तुरन्त सॉरी बोलकर बात खत्म कर देना चाहते हैं। लोक-व्यवहार व शिष्टाचार की भाषा हम अच्छी तरह से सीख रहे हैं।

जिंदगी की छोटी-छोटी चीजों में हम अपना आचरण तो दिखाते हैं, परन्तु अमूल्य जीवन देने वाले परमात्मा व परमेश्वर के प्रति भी क्या इतने मैर्नस दिखा पाने में कुशल हैं। उसका समय-समय पर धन्यवाद, शुक्रिया अदा करते हैं या कहीं गलती हो जाने पर शर्मिन्दा भी होते हैं। अपने जन्मदाता के प्रति भी हम कितने शिष्टाचारी हैं, यह भी हमारे आंतरिक आचरण का एक चिंतनीय बिषय है।
हमारी दिलचस्पी हमेशा हर तरफ एक शिष्ट माहौल बनाने की होती है, इसीलिए हम अपने बच्चों को भी शुरु से ही इन सबकी ओर जोर देते हैं। हमारा प्रयास यह होता है कि हम अपने परिवार में अच्छी पावरिश के साथ अच्छे आचरण की भी नींव डालें। बच्चों को छोटी-छोटी बातों में थैंक्यू या सॉरी कहना सिखलाते हैं। हर वक्त धरों में, ऑफिस में एक अच्छे आचरण की हर एक से अपेक्षा की जाती है। कोई व्यक्ति हमारा एक काम कर देता है या फिर हमारे काम में सहायक होता है, तब हम उसका दिल से धन्यवाद देते हैं तथा भविष्य में उसके किसी काम आ जाने का अश्वासन देते हैं। क्या आदर्श शिष्टाचार का यह फार्मूला केवल व्यक्तियों या लोकाचार तक ही सीमित है? जिसने हमें यह जीवन दिया, और हम सबको जीने योग्य बनाया। आखिर उसके साथ क्यों नहीं? जिसकी वजह से हमें यह दुर्लभ सौगात मिली है, क्या हम उसको भी ऐसे ही धन्यवाद देते हैं। हम उससे कहें कि- आपने हमें जो जीवन देकर ऐसा उपकार किया है, इसके बदले मैं आपके किस काम आ सकता हूॅ, ऐसा मुझे रास्ता दिखाओ! आपने मुझे जो यह शरीर दिया व स्वास्थ्य दिया है, इन सबके लिए आपको हृदय से धन्यवाद देता हूॅ तथा इसका मैं कैसे बेहतर प्रयोग कर सकता हूॅ। आपने मुझे जो बुद्धि व विवेक दिया है, इसके लिए शुक्रिया। ज्ञान को बढ़ाने में इसका मैं कैसे इस्तेमाल कर सकता हूॅ। इससे मैं क्या-क्या जान सकता हूॅ यह मुझे बताइये। मेरे शरीर के अंदर जो हृदय लगातार स्पंदन करता है, इसकी हर धड़कन पर केवल आपका अधिकार है। यह जीवन आपका दिया हुआ है, हम सब आपके पात्र हैं, अब आगे का रास्ता आप ही प्रशस्त करें। मेरे शरीर के अंदर प्रविष्ट इस आत्मा को कैसे संवेदनशील बनाया जाय व इसमें परमात्मा का कैसे वास होगा? यह भी आप सिखलाइये। जाने अनजाने, अगर किसी नासमझी से मुझसे गलती हो जाय, तो मुझे नादान समझ कर माफ कर देना। इतना ही नहीं मुझे ज्ञान का ऐसा भवसागर दो ताकि भविष्य में अपनी गल्तियों को न दोहरा कर शर्मिंदा होना पड़े।
ईश्वर नें हमें बहुत कुछ दिया है। जिसका उसे धन्यवाद मिलना ही चाहिए। वैसे तो उसकी ओर से कोई मांग नहीं होती। परंतु जिस तरह से हम दूसरों के बीच अच्छा आचरण अपनाकर उसका हितैषी व लोकप्रिय बनना चाहते हैं, ठीक उसी तरह परमात्मा को धन्यवाद देकर भी परमपिता परमेश्वर के भी प्रिय बन सकते हैं। उसको प्रसन्न रख सकते हैं तथा अपने लिए नये खजाने खोल सकते हैं। हम ईश्वर से नित नये की मांग तो करते हैं, पर पुराने का लेखा जोखा तो पहले ही चुकता हो जाना चाहिए। जो पहले से ही प्राप्त है, बिना मांगे ही मिला है। उसका हिसाब भी साफ होना चाहिए। वह हमारी सभी फरमाइश व आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखता है। इसके बदले में वह हमसे कोई भी अपेक्षा नहीं रखता। हम उसकी सेवा में उसे जो देते हैं, वह सब उसी का दिया हुआ है। हम अपनी ओर से बिशेषकर कुछ नहीं करते हैं। हम उसे उसी का अर्पण करते हैं, जिसमें अपना कुछ भी नहीं लगता है। उसकी ओर से किसी को कोई कमी नहीं होती है, बात केवल इतनी है कि हम इन सबसे कितना फायदा उठा पाते हैं। कुछ भी मांगने से पूर्व जो हमको पहले से ही प्राप्त है उसका भी संरक्षण एवं बेहतर प्रयोग केवल अस्तित्व को अच्छी तरह से समझकर ही संभव है।
अच्छा आचरण व शिष्टाचार हमें लोकप्रिय बनाता है। आदर्श व्यवहार अपनाकर हम लेाक व्यवहार में तो कुशल हो जाते हैं, इसी के साथ जरुरी है कि हम अपने अस्तित्व के आचरण की भी सही परिभाषा सीखकर इस अमूल्य जीवन के प्रति अनुग्रहित हो सकें। शरीर, स्वास्थ्य, नौकरी, रोजगार, रुपया-पैसा जो भी कुछ हमें इस जीवन में ईश्वर से आर्शीवाद स्वरुप प्राप्त है। इन सबका हम पर ऋण है, और हमें इसे इसी जीवन में चुकाने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए। जो सही अर्थों में ईश्वर के प्रति थैंक्यू या उपकार जैसा उचित संबोधन होगा।

Wednesday, September 15, 2010

मज़हब नहीं सिखाता- आपस में बैर रखना


अयोध्या की विवादित राम जन्मभूमि मसले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ द्वारा फैसले की तारीख करीब आती जा रही है, हर तरफ चर्चाओं का आलम बढ़ता जा रहा है कि आखिर फैसला क्या होगा व किसके पक्ष में जायेगा? किस राजीनतिक दल को इसका फायदा होगा और कौन क्या करेगा? इस तरह के कुछ अहम सवाल उभर कर सामने आते जा रहे हैं।
अयोध्या की बात पुरानी है, लेकिन इस पर नई बातें व विवाद समय-समय पर होते जाते हैं। आज, जब सबकुछ सम्मानित न्यायालय के समक्ष व संज्ञान में है, और फैसले की धड़ी आ चुकी है। तो इस समय शांति व सद्भाव को बनाये रखने की बड़ी आवश्यकता है। इसी के साथ हर आदमी को इंसानियत के धर्म को निभानें का मर्म भी समझना बेहद जरुरी है।
बुनियादी बात यह है कि हम किसी भी हालत में मजहबी न बनकर सबसे पहले अपने आप को एक बेहतर इंसान समझें। इंसानियत का रुतबा व दर्जा सबसे ऊपर होता है। इसके बाद किसी भी धर्म की उस पर छाप पड़ती है। सभी के धर्म अलग-अलग जरुर हो सकते हैं, लेकिन इन सभी धर्मों का अर्थ एक ही होता है। कोई व्यक्ति वेद-पुराण या गीता पढ़ता है तो कोई कुरान। कोई मंदिर में भजन-पूजन या प्रार्थना करता है तो कोई मस्जिद में नमाज अदा करता है या कुरान पढ़ता है। दोनों में अंतर केवल ढ़ंग का ही है। पाक कुरान की आयतें भी एक मुसलमान को वही सिखाती हैं जो हिन्दुओं को राम चरित मानस व गीेता बतलाती है। अंतर कहीं नहीं है, केवल जगह अलग है। ईश्वर की आराधना व प्रार्थना करने का तथा अल्लाहताला को याद करने का तरीका अलग हो सकता है, लेकिन मतलब नहीं। जिस तरह से एक इंसान का दुश्मन इंसान नहीं होना चाहिए, इसी तरह एक धर्मावलम्बी को दूसरे मजहब का पूरा सम्मान व इस्तकबाल करना चाहिए। क्योंकि यही सब हमें अपने खुदा या ईश्वर के नजदीक जे जाते हैं। किसी का भगवान या अल्लाह किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाने की इजाजद व सलाह कभी नहीं देता है।
हमें वह दिन भी नहीं भुलाना चाहिए, जब हमनें आजादी की जंग साथ मिलकर लड़ी। हम अपनी एकजुटता व आपसी सौहार्द के भरोसे दुश्मनों से जीते भी। कई जगहों पर आज भी हम एक-दूसरे के दुख-सुख में खड़े होते हैं। ईद-बकरीद, होली-दीवाली हम एक दूसरे के धर आते जाते हैं। बधाईयां देते हैं। जरुरत पड़ने पर एक दूसरे की मद्द भी करते हैं। कई हिन्दुओं के दोस्त मुसलमान और मुसलमान के हिन्दू दोस्त भी है। जो एक दूसरे पर अपनी जान तक देनें को हमेशा तैयार रहते हैं। ऐसी भी मिसालें व उदाहरण अपने समाज में ही हैं। इतना होने पर भी सामाजिक व खुले रुप से किन्हीं-किन्हीं मुद्दों पर एक राय नहीं बन पाती। जो आज हिन्दू-मुसलिम एकता के बीच एक बड़ी वजह है, और यही बात आपसी धार्मिक एकता व सामंजस्यता कि लिए एक बड़ा सवाल है। जिसकी जांच-पड़ताल करनी बेहद जरुरी है। केवल धर्मान्धता के नाम पर किसी की जान का दुश्मन बन जाना धर्मवाद नहीं कहा जा सकता। किसी भी धर्म, मजहब या सम्प्रदाय की आड़ लेकर नफरत को बढ़ावा देना, नुकसान पहुंचाना या किसी को उकसाना किसी भी हालत में इंसानियत के खाके में नहीं आता है। कोई मजहब हमें लड़ने के लिए नहीं कहता है, कोई धर्म हमें इंसानियत का दुश्मन नहीं बनाता है। इसके सबसे बड़े दोषी मानव धर्म को न समझनें वाले हैं। जो धर्म व सम्प्रदाय के नाम पर लोगों को भड़काते व उन्माद भरने का काम करते हैं तथा अपना उल्लू सीधा करते हैं। कोई विक्षिप्त आदमी कहीं पर किसी धर्म की पवित्र किताब को जलानें की बात कर देता है, तो कहीं पर एक आदमी की वजह से पूरी कौम दुश्मन नजर आती है। एक व्यक्ति अपने रास्ते से तो भटक सकता है, लेकिन किसी धर्म के साथ ऐसा नहीं होता। धर्म तो रास्ता दिखाता है, वह नहीं भटक सकता। कुछ भटके हुए लोगों को कुछ अराजक व राष्ट्रविरोधी तत्व अपने निजी फायदे के लिए उकसाते हैं। उनके अंदर आपसी नफरत के ऐसे बीज बो देते हैं जो धीरे-धीरे कट्टरपंथी या उग्रवाद का रुप ले लेता है। जिससे किसी धर्म का सरोकार या लेनादेना नहीं होता है। धर्म या कौम के नाम पर दंगा-फसाद, आपस में लड़ना-झगड़ना किसी कौम को मजबूत नहीं करता, बल्कि पूरी इंसानी कौमी ताकत को अंदर से कमजोर करता है।
आज जमाना बहुत तेजी से बदल रहा है। शिक्षा-रोजगार में, आफिस या बाजारों में हमसब मिलजुल कर काम करते हैं। अब इसमें भी कोई दोराय नहीं कि लोगों की सोच बदल रही है। आज का पढ़ा लिखा शिक्षित युवा वर्ग इस बात को अच्छी तरह से समझ रहा है कि इन सब बातों से उन्नति नहीं हो सकती। वह इन सब बातों से हटकर तरक्की चाहता है। उसे लड़ाई-झगड़े पसंद नहीं। जिस बात का हल शांति, अमन व सौहार्द से हो जाय तो ही अच्छा। अब सबको समझनें की जरुरत है। विकास की राह हमें खुद ही पहचाननी होगी।

Friday, September 10, 2010

बातों में काम या काम में बातें



आज के समय में आदमी बहुत व्यस्त होता जा रहा है। उसको एक काम से फुर्सत नहीं मिलती। फिर उसी समय उसे दूसरे काम भी निपटाने की याद आ जाती है। समय सीमित है, और काम होते हैं ज्यादा। इसीलिए आज के मशीनी व तकनीकी युग में मनुष्य भी बिल्कुल मशीन की तरह नजर आता है। धर हो, आफिस हो या फिर सडकों पर दौड़ते लोग। हर आदमी दोहरा व्यस्त नजर आता है।
एक हाथ में फोन तो दूसरे हाथ से और जरुरी काम निपटाता दिखाई पड़ता है। इतनी जल्दबाजी व समय बचानें के चक्कर में अधिकतर लोग खतरे भी कम मोल नहीं लेते, और सबसे बेपरवाह बने रहते हैं। जब से मोबाइल क्रांति शहरों में आई है, लगभग तभी से फोन या मोबाइल पर बतियानें का एक अनूठा कांबिनेशन या सम्बन्ध दूसरे सभी कामों के बीच बन गया है। मसलन, एक कान पर फोन या मोबाइल लगाकर धर पर लोग रोजमर्रा के जरुरी काम निपटाते हैं। आफिसों में भी यह दृश्य काफी नजर आता है, जहां एक हाथ फोन या मोबाइल पर होता है, तो दूसरा हाथ कम्प्यूटर या लैपटाप पर होता है, या फिर पेपर वर्क निपटाया जाता है। सबसे भयावह सीन सड़कों पर देखा जाता है, लोग चलती गाड़ी में एक कान में मोबाइल को अपने एक कंधे के सहारे या हेल्मेट के अंदर धुसाकर बात करते हैं। इसी के साथ इनकी स्कूटर या मोटर साईकिल भी सड़कों पर फर्राटा मार के दौड़ती जाती है। चार
पहिया वाहनों में भी यही होता है। एक हाथ में गाड़ी का स्टीयरिंग है, और दूसरा हाथ मोबाइल में व्यस्त रहता है। सभी लोग अपनी जान व माल की चिंता फिक्र किये बगैर बड़ी बेपरवाही से बस चलते जाते हैं। इनमें से कुछ जागरुक मोबाइल धारक वाहन चलाते वक्त जब चलती गाड़ी में बात करनें के लिए ईयर फोन या ब्लूटूथ जैसे डिवाइस इस्तेमाल करते है, तब इनके गर्दन व कानों के पास लटकते हुए तारों से आदमी के हाई-टेक होने का अहसास होता है। आज का आदमी इतना व्यस्त होता जा रहा है कि जिस रोटी के लिए शख्स काम धंधा करता है, दिन भर मेहनत करता है। खाना खाते वक्त भी उसके एक हाथ में मोबाइल फोन होता है। उसका ध्यान खानें में ना होकर बातों में होता है। वह क्या खा रहा है और कैसे खा रहा है इसका उसको कुछ पता नहीं। काम धंधे की बातें हो या फिर दोस्तों सम्बंधियों से। फोन हर काम के साथ में रहता है। कारण भी है कि आदमी कभी खाली नहीं रहता, और फोन की धंटी कभी भी बज सकती है। अगर हम ध्यान से अपने दिमाग की स्थिति पर नजर डालें, तो पता चलता है कि हमारे दिमाग का एक अहम हिस्सा एक समय पर किसी एक काम के साथ सक्रिय रहता है। जबकि दूसरा हिस्सा निष्क्रिय रहकर काम करता है। फोन या मोबाइल पर बात करते हुए दिमाग बातों पर ही कंद्रित होता है। फिर बाकी के और काम जो बात करते हुए किये जाते हैं, ये काम दिमाग का निष्क्रिय हिस्सा शिथिलता के साथ निपटाता है। जाहिर है कि गाड़ी चलाते वक्त फोन पर बात करना धातक हो सकता है और उसका असर दूसरे अन्य कामों की गुणवत्ता पर भी पड़ता है। जैसे भोजन
करते वक्त बातें खानें के बहुमूल्य विटामिन व प्रोटीन को नष्ट कर देती है। क्योंकि बातों में संलिप्त
दिमाग पर्याप्त मात्रा में शरीर में पाये जाने वाले इंजाइम्स व रसासनों को भोजन में उस समय समाविष्ट
नहीं कर पाता है। एक काम तो ठीक होता है, परंतु दूसरे के परिणाम अनुकूल नहीं मिल पाते हैं।
पुराने समय की कहावत है- एक समय में एक ही काम, देता है अच्छा परिणाम। अब चरित्रार्थ नहीं दिखती। गुरुजन कहते थे-प्ले, व्हाइल यू प्ले। रीड, व्हाइल यू रीड। ईट, व्हाइल यू ईट। शायद मोबाइल युग के आ जाने से आदमी की व्यस्तता इतनी बढ़ गई है कि ये पुरानी कहावते जैसे अब नजरअंदाज व लुप्त होती नजर आती है। धर में, आफिस में, सड़क पर या भोजन के वक्त दूसरा कोई अन्य काम अचानक सुझाई दे जाता है। इतने में ही किसी का फोन आ जाता है या फिर किसी को फोन करने की याद ही आ जाती है, फिर भूल जाने के डर से तुरंत फोन मिलाना ही बेहतरी समझी
जाती है। आज की तकनीक के इस छोटे से खिलौनें के साथ लगभग हर कोई खेल रहा है। यह मोबाइल आम जिंदगी के हर पहलू में अपनी मजबूत पैठ बना चुका है। हर वक्त यह आदमी के साथ रहता है। कभी धर, आफिस या अन्य कहीं पर गलती से छूट जाने पर आदमी अपने आप को आधा महसूस करता है, और उसकी बेचैनी बढ़ जाती है। कुछ लोगों का कहना है कि एक बार जेब में पैसे न हों, जेब कट जाय। परंतु, मोबाइल साथ में होना बहुत जरुरी है। क्योंकि, यह मोबाइल किसी भी समस्या से निजात भी दिला देता है। कुछ ही क्षण में मित्रों, शुभचिंतकों को पास ले आता है। सुख या दुख
की धड़ी में मोबाइल एक अच्छे दोस्त की तरह साथ भी निभाता है।

Friday, September 3, 2010

विविध रूपों में बसा है कान्हा का विराट स्वरूप



जन्म के साथ ही कृष्ण को कई नाम मिले। कोई उन्हें देवकीनंदन कहता, तो कोई उन्हें यशोदा का नंद बुलाता है। कृष्ण ने बचपन से ही कई रूप धरे, उनके हर चरित्र को एक नया नाम मिला। उनके सभी रूपों में काफी विविधता के साथ ही एक बहुआयामी सामंजस्यता भी देखी जाती है। श्री कृष्ण अनेक रंगों में रंगे दिखते हैं व उनका हर रंग अपनी चटक छाप छोड़ मानव जीवन को यर्थाथ संदेश दे जाता है।

लगभग छह हजार साल पहले मथुरा नगरी के कारागार में भाद्र माह की अष्टमी को काली अंधियारी आधी रात में मूसलाधार बरसात हो रही थी, जब द्वापर युग में श्री कृष्ण ने अवतार लिया। जन्म के साथ ही कृष्ण को कई नाम मिले। कोई उन्हें देवकीनंदन कहता, तो कोई उन्हें यशोदा का नंद बुलाता। कृष्ण ने बचपन से ही कई रूप धरे, उनके हर चरित्र को एक नया नाम मिला। उनके सभी रूपों में काफी विविधता के साथ ही एक बहुआयामी सामंजस्यता भी देखी जाती है। श्री कृष्ण अनेक रंगों में रंगे दिखते हैं, व उनका हर रंग अपनी चटक छाप छोड़ मानव जीवन को यर्थाथ संदेश दे जाता है। अपने बाल्यकाल में ही नटखट गोपाल, किशन कन्हैया आस-पास के घरों में चुपके से जाकर माखन चुराकर खा जाते, लोगों को खूब चिढ़ाते व तंग करते। कृष्ण को माखन चोर कहा गया। यही कृष्ण खेल-खेल में गेंद निकालने के लिए शेषनाग की विषैली व उफनाती नदी में कूद गये। एकबार ब्रजवासियों को इन्द्र देव के भयंकर कोप से बचाने के लिए अपनी एक उंगली पर पूरे गोवर्धन पर्वत को उठाकर नगरवासियों की रक्षा की। गाय चराने वाले ग्वाले ने आतंतायी कंस का वध किया, ब्रजवासियों को आतंक से मुक्ति दिलाई व उन्हें पूरी निजता व स्वतंत्रता के साथ रहने का साम्राज्य मिल गया। गोपियों के नहाते वक्त उनके कपड़े उठाकर भाग जाने में तो कृष्ण की नटखट शरारत झलकती है, तो आगे चलकर जब दुष्ट दुर्योधन द्वारा भरे दरबार में द्रोपदी का चीर हरण करता है, तो इसी समय यही कृष्ण अपने चमत्कार से लाचार द्रोपदी की लाज बचाते हैं व नारी रक्षा का संदेश देते हैं। इसी बीच भगवान रूपी अवतार में श्री कृष्ण ने दोस्ती को निभाने का भी अद्भुत प्रसंग दिया जिसका उदाहरण है भगवान और दीन-दुर्बल व असहाय गरीब सुदामा की बचपन की दोस्ती। बचपन में उनके खूब बाल सखा व सखियां थीं। कृष्ण की मुरली ने लोगों को इस कदर मोहित किया कि लोग बांसुरी की धुनों पर झूमने लगते। गोपियां उनकी दीवानी हो गईं। मीरा तो श्री कृष्ण के प्रेम में इतनी दीवानी थीं कि उन्होंने अपने महलों को ही छोड़ दिया व गलियों में घूम-घूमकर उनके पे्रम भरे गीत गाती फिरतीं। कभी कृष्ण नें मुरली बजाई तो लोग मंत्रमुग्ध हो गये, और जब उन्होंने कुरुक्षेत्र के मैदान में पांचजन्य नामक महाभारत युद्ध के लिए शंख बजाया तो आश्चर्य होना स्वाभाविक था। इन दोनों के बीच कितना बड़ा आयाम है। बांसुरी से जहां उन्होंने प्रेम का संदेश दिया वहीं कुरुक्षेत्र मैदान के महाभारत युद्ध में धर्म का पाठ पढ़ाया। महाभारत युद्ध को धर्म को बचाने की खातिर सही ठहराया और धर्म की रक्षा को सर्वोपरि बताया। अर्जुन को अपराध बोध से बचाने के लिए श्री कृष्ण ने युद्ध के मैदान में उन्हें गीता का ज्ञान दिया। ब्रज की गलियों में सखियों संग रासलीला मनाने वाले किशन कन्हैया जब कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़े होते हैंं तब बिल्कुल अलग दिखाई देते हैं। बाहर से उनके रूपों में बहुत असमानता है, परंतु अंदर से कृष्ण बिल्कुल एक ही हैं। दिखने में तो भिन्न हो सकते हैं लेकिन वास्तविक रूप से अभिन्न हैं। मुरलीवाले, किशन कन्हैया, श्याम, देवकी नंदन, गोपाल, मधूसूदन, केशव, माधव, गिरधारी, सुर्दशन चक्रधारी जैसे अनेक रूप व चरित्रों में रचे बसे कालजयी अवतार में हैं श्री कृष्ण भगवान। कृष्ण का स्वरूप इतना विराट है कि उसमें सभी कुछ एकसाथ समाया हुआ है। ग्वालों के संगी कृष्ण, सुदामा के साथ कृष्ण, राधा व मीरा के संग कृष्ण तो अर्जुन के साथ कृष्ण। कृष्ण सभी के साथ रहे।
महाभारत युद्ध में तो कृष्ण अर्जुन के सारथी बनें। श्री कृष्ण का जीवन तो पूरा अनूठा है, अद्भुत है व अलौकिक भी। कृष्ण के गीता में उपदेश धर्म और आध्यात्म की सीख के साथ पूरे व्यक्तित्व को निखारती है। जहां धर्म के सही मायने पता चलते हैं, वहीं उनके अनुसरण का रास्ता भी दिखता है। श्री कृष्ण द्वारा वर्णित गीता के सार से ही जीवन को व्यवस्थित किया जा सकता है। कृष्ण का हर रूप पूज्यनीय है, कोई बाल रूप को पूजता है, तो कोई युवा कृष्ण को। और महाभारत के कृष्ण की योग्यता व कौशल तो उनके स्वरूप को और विराट बना देता है।

Thursday, August 26, 2010

गुस्से की आग सिर्फ मुआवजे तक सीमित नहीं

जब इंसाफ बराबर नहीं होता, बगावत तभी जन्म लेती है। इसी का उदाहरण है देश की जनता के लिए अन्न उगाने वाले किसानों के साथ संघर्ष की कहानी। कभी नंदीग्राम या सिंगूर में हुई, तो अबकी बार अलीगढ़, मथुरा व आगरा के आसपास के गांवों के किसानों नें सरकार के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया।
मसला अलीगढ़-आगरा-मथुरा पर बन रहे यमुना एक्सप्रेस-वे के लिए किसानों की उपजाऊ जमीन अधिग्रहण करने का है। किसान इसके विरोध में आ खड़े हुए हैं, क्योंकि किसी किसान को रोटी कमाकर देने वाली उसकी जमीन ही होती है। केवल शहर बसाने के नाम पर किसानों को उजाडऩा कैसे हितकर हो सकता है? भूमि अधिग्रहण जबरन व मनमानी न होकर किसानों की रजामंदी से हो तो ही अच्छा है। किसानों से उनकी रोजी-रोटी छीनने के बाद उनका जीवन यापन कैसे होगा? यह सोचना भी सरकार की नैतिक व संवैधानिक जिम्मेदारी बन जाती है। यह तो अक्सर फिल्मों में दिखाया जाता है कि कोई पूंजीपति या व्यापारी गरीबों की बस्तियां उजाड़कर वहां पर एक बहुमंजिला इमारत या बड़ा शॉपिंग कॉम्पलेक्स खोलना चाहता है। वहां की जनता इसका विरोध करती है। संघर्ष व खून खराबा होता है। इसी तरह का सीन अब किसानों के साथ भी देखा जा रहा है। एक राय में किसान अपनी जमीन सरकार को देने को तैयार हैं। बशर्ते, उनकी जमीन की कीमत नोएडा में दिये गये भूमि अधिग्रहण मुआवजे के बराबर हो। जबकि अलीगढ़ व मथुरा के कई गांवों की जमीन के मुआवजों की कीमत में ही खासा फर्क देखा जा रहा है। किसानों के साथ कोई नाइंसाफी न हो इसलिए अपनी आवाज को बुलंद करने के लिए किसानों की एक संघर्ष समिति भी बन चुकी है। जिसमें आंदोलित सभी किसान एकसाथ लामबद्ध हो रहे हैं। दूसरी तरफ किसान यह भी चाहते हैं कि उनकी अधिग्रहित जमीन का उपयोग टाउनशिप, औद्योगिक या व्यापारिक तरीके से न हो। दूसरों का पेट भरने वाले किसान, जिनके हाथों में हल होते हैं। आज इन्हीं के हाथों में खेती के औजार की जगह न्याय पाने के लिए लाठियां हैं। किसान अब आंदोलित हो रहे हैं, जिसकी साफ वजह सरकार की किसानों के प्रति उदासीन व असमान नीतियां हैं। जिसके कारण ही किसान अपने आपको ठगा महसूस करते हैं व उनके विरोधी स्वर उभर आते हैं। अलीगढ़ व मथुरा के किसान अपनी जमीन को औने-पौने दामों या सरकार द्वारा मनमानी मुआवजे पर देने को कतई तैयार नहीं है, और इसके लिए ये सब सड़कों पर उतर आये हैं। इस आंदोलन में किसानों के परिवार की महिलाएं व युवतियां भी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं। गैर सत्ताधारी दलों के नेता भी अब किसानों के सर्मथन में अपना-अपना नाम ऊंचा करने पहुंच रहे हैं। परंतु किसानों ने अभी किसी भी राजनीतिक दल का साथ नहीं पकड़ा है। कारण भी है कि सरकार बनाने के बाद कोई भी राजनीतिक दल किसानों के दर्द व दिक्कतों के बारे में नहीं सोचता व अभी तक कोई दल किसानों का पक्का हितैषी नहीं बन पाया। नतीजन, किसानों को किसी भी राजनीतिक दल पर भरोसा नहीं हुआ, और इसीलिए अब वह अपनी लड़ाई खुद लडऩा चाहते हैं। बसपा सरकार किसानों की जमीन का अपने मनमुताबिक मुआवजा तैयार करनें में जुटी है। उपजाऊ व पेट पालने वाली बेशकीमती जमीन की कौडिय़ों वाली कीमत किसानों को कतई रास नहीं आ रही है। वहीं पर कुछ किसान अपनी जमीन को किसी भी कीमत पर देना नहीं चाह रहे हैं। क्योंकि इन्हें इस बात का भी डर है कि जबरन भूमि अधिग्रहण के बाद इनकी जमीन का हस्तांतरण पूंजीपतियों या बड़े उद्योगपतियों के हाथों में चला जायेगा। इसी के साथ किसानों की भावी पीढिय़ां कहीं की नहीं रहेंगी। जैसे-जैसे आंदोलन की आग बढ़ती जा रही है, किसान एकजुट हो रहे हैं तथा उनकी आवाज बुलंद हो रही है। वहीं मायावती सरकार द्वारा किसानों की जमीन के मुआवजे की दर बढ़ा दी गई तथा किसानों के पुनर्वासन संबंधी योजनाओं पर विचार करना शुरू कर दिया गया। प्रदेश सरकार द्वारा अधिग्रहित जमीन के किसान परिवार के किसी एक सदस्य को सरकारी नौकरी देनें का भी अश्वासन आ गया है।

खुद से खुश रहें, अपने प्रशंसक स्वयं बनें



निजी व व्यक्तिगत जिंदगी में तो निराशा घर कर ही जाती है और जिसका प्रतिफल उसके काम-धंधे में भी देखा जाता है। आगे चलकर ऐसे व्यक्ति अपने आपको बड़े गर्व से नास्तिक बताते हैं। क्योंकि अपने ऊपर विश्वास न होने के कारण ही उनकी भगवान पर भी आस्था नहीं रह पाती। एक बात तय है कि जो लोग खुद पर भरोसा नहीं रखते, भला उन पर दूसरे कैसे भरोसा करें?

उस हिरन की कहानी तो सभी को मालूम है कि जो सुगंध की खोज में पूरे जंगल भटकता धूमता है, जबकि असली खुशबू खुद उसी के पास होती है। इसी तरह आम जिंदगी में भी मनुष्य सुख व शांति के लिए इधर-उधर घूमता-फिरता है, और सच यह है कि असली शांति व सुख मनुष्य के अंदर पहले से ही होता है। मात्र अनुभव की कमी होती है। जरूरत केवल इस बात की है कि हम उस पर ध्यान दें व इसे विकसित कर बाहर निकालें। स्वयं से प्यार करना शुरू करें। अपने आपको प्रेम से इतना भर दें कि चारों ओर प्रेम ही प्रेम बिखर जाये। बाहरी दुनिया में हम देखते हैं कि कोई न कोई व्यक्ति किसी न किसी का प्रशंसक हो जाता है। उसे पसंद करने लगता है तथा उसे अपने जीवन का आदर्श बना लेता है। अपना प्रेरणास्रोत बना लेने से जीवन के लिए ऊर्जा उसे वहीं से मिलती रहती है। इसी के उल्टे, एक व्यक्ति को अपने जीवन से इस कदर खीज उठती है कि वह स्वयं से नफरत करने लगता है। स्थिति यह हो जाती है कि वह धीरे-धीरे निराशावाद में घिरता चला जाता है। उसके जीवन से उत्साह गायब मिलता है। ऐसे व्यक्ति अक्सर किंकर्तव्यविमूढ़ होकर बात-बात पर अपनी ही किस्मत को कोसा करते हैं। सबसे पहली बात तो ऐसा व्यक्ति अपने आपको पहचान नहीं पाता है व अपने अंदर आनंद व खुशी को पैदा करने में भी अक्षम होता है। इसका मूल कारण होता है कि स्वयं से भरोसा उठ जाना। इसका परिणाम यह होता है कि उसकी हर एक बात में नकारात्मकता ही दिखाई पड़ती है। निजी व व्यक्तिगत जिंदगी में तो निराशा घर कर ही जाती है और जिसका प्रतिफल उसके काम-धंधे में भी देखा जाता है। आगे चलकर ऐसे व्यक्ति अपने आपको बड़े गर्व से नास्तिक बताते हैं। क्योंकि अपने ऊपर विश्वास न होने के कारण ही उनकी भगवान पर भी आस्था नहीं रह पाती। एक बात तय होती है कि जो लोग खुद पर भरोसा नहीं रखते, उन पर दूसरे कैसे भरोसा करें? यह बात अपने आप में बहुत महात्वपूर्ण है, क्योंकि कहते हैं कि जो लोग खुद पर विश्वास करते हैं, उन पर सभी लोग भरोसा करते हैं। विश्वास की परंपरा भी यही है कि पहले आप अपने पर विश्वास जमाएं, फिर इसकी छाप दूसरों पर अवश्य ही पड़ेगी। सबसे पहले खुद को पसंद करना पड़ता है, फिर दूसरे पसंद करते हैं। अपना प्रशंसक पहले स्वयं बनना पड़ेगा, बाद में लोग आपकी प्रशंसा करेंगे। वास्तु शास्त्र के अनुसार अपने कमरे में व्यक्ति को अपना एक मुस्कराता हुआ फोटो अवश्य लगाना चाहिए। इसका असर होता है कि जब कभी भी किसी मुसीबत या परेशानी में खुशी के दौर का अपना चित्र देखते हैं, तो एक सकारात्मक व सधन ऊर्जा तुरंत ही महसूस की जा सकती है। ऐसी अनुभूति होने से शरीर की सारी नकारात्मक ऊर्जा, उदासी व निराशावाद अपने आप खत्म होने लगता है। ऐसा अक्सर व लगातार करने से स्वयं से प्यार बढ़ता जायेगा। जैसा कि देखा जाता है कि कभी अच्छे कपड़े पहनने पर या फिर कोई अच्छा काम करने के बाद शीशे के सामने खड़े होने से व्यक्ति को अच्छा अनुभव होता है। ठीक इसी तरह यह अनुभूति भी बढ़ती जाती है। खुद से मोहब्बत होना बहुत जरूरी है, इसके बाद ही खुदा से मोहब्बत का मतलब निकलता है। जिंदगी जीने के लिए तो असीम ऊर्जा की हर दिन आवश्यकता होती है। घरेलू काम से लेकर काम-धंधे तक हर वक्त एक खुशनुमा माहौल की जरूरत होती है। इसके लिए आवश्यक है कि व्यक्ति खुद से खुश रहे। उसके अंदर ही खुशी का अहसास रहे। एक व्यक्ति जो महसूस करता है, बाहरी तौर पर सब उसका गुणनफल ही होता है। अगर उसके अंदर खुशी का भाव है, तो बाहर भी खुशी बढ़ेगी। यदि उसके अंदर दुख या पीड़ा हुई तो निश्चित रूप से वही बढ़ेगी। एक उदाहरण है कि एक व्यक्ति की ऑफिस जाते वक्त किसी बात पर अपनी पत्नी से कहासुनी हो जाती है। इसका असर यह होता है कि आदमी की सबसे पहले टैक्सी वाले से बहस होती है, फिर चपरासी से, सहकर्मियों से व बाद में ऑफिस देर से पहुंचने पर बॉस से झाड़ पड़ती है। पूरा दिन बेकार की बहस में ही निकल जाता है। इस एक घटना से पूरे परिवारजनों का मूड खराब हो जाता है।

भारत की राजनीति में अब दिखे युवा तस्वीर


नेहरु जी का सपना सच करने के लिए नेहरु-गांधी परिवार के युवराज कहे जाने वाले युवा सोच के मालिक राहुल गांधी ने इसकी एक झलक दिखला दी है। पूरे देश में एकसाथ जमीन से जुड़े बिल्कुल नये चेहरों को राजनीति में प्रवेश दिला लोकतंत्र में एक नई व युवा नजीर पेश की। राहुल गांधी का मिशन २०१२ फतेह करने की यह नई युवा सेना होगी। जिसकी बागडोर युवा राहुल खुद संभालेंगे।

आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु बच्चों के चाचा नेहरु कहे जाते हैं। नेहरु जी को बच्चे बहुत प्रिय थे, उन्हें बच्चों के प्रति बेहद लगाव था। इसीलिए बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के प्रति वह दृढ़ संकल्पित थे। उनकी नजर में आज के बच्चे ही कल के युवा व भारत का भविष्य है। इसी कड़ी में एक फिल्म का गीत भी कहता है- इंसाफ की डगर पे बच्चों दिखाओ चलके, यह देश है तुम्हारा नेता तुम्ही हो कल के। परंतु आज अपने देश में युवाओं की तस्वीर ज्यादा अच्छी नहीं कही जा सकती है। देश की युवा जनता का हाल बहुत बेहाल है। देश के भविष्य की चिंता करने वाले जिम्मेदार राजनीतिज्ञों को युवाओं के लिए हर क्षेत्र में अवसर सुलभ कराने के साथ राजनीति को भी आम युवा वर्ग के बीच लोकप्रिय बनाना होगा। देश के विकास में सबसे बड़ी भूमिका लोकतंत्र की होती है, जिसमें देश की जनता अपना प्रत्याशी चुनकर भेजती है। उद्देश्य होता है कि संबंधित लोकसभा व विधानसभा क्षेत्र का समुचित विकास करवाना। अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले नेता या मंत्री विकासोन्मुखी योजनाओं की सिफारिश व लागू करवाते हंै। क्षेत्र का विकास इन्हीं लोगों पर निर्भर करता है। लेकिन ज्यादातर देखने में यह आता है कि आजकल की अधिकतर गठबंधन सरकारें जमीनी सुधार व विकास कराने के बजाय सरकार व अपनी सीट बचाने के काम में लगे रहते हैं। सत्ता लोलुपता के लिए शीर्ष स्तर के नेता व मंत्री भी अपनी सरकार बनाये रखने के लिए किसी भी दल या प्रत्याशी से गठजोड़ करने से भी गुरेज नहीं करते। सत्ता को हथियानें के लिए लगभग सभी छोटे-बड़े दल कुर्सी दौड़ में दिखते हैं। सत्ता पक्ष अपनी कुर्सी बचाने में लगी रहती है तो विपक्ष व अन्य दल सरकार गिराने के पक्ष में रहते हैं। जमीनी आधार पर लोक कल्याण के विकास का मुद्दा कम एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ ज्यादा होती है। संसद का प्रश्नकाल तो कम ही होता है, इस बीच यहां पर आपसी उठापटक, खींचातानी व संसद के अंदर ही मारपीट व झगड़ा फसाद कर संसद का सम्मान भी कलंकित किया जाता है। देश की जनता की सुध लेने में ज्यादा कोई दिलचस्पी नहीं दिखाता, इन्हें केवल रुचि अपने निजी फायदे व पार्टी हित की होती है। देश हित की बातें अंदरूनी तौर पर कम लोगों में ही देखी जाती हैं। अक्सर टीवी पर संसद में बहस की जगह बवाल देखकर देश की जनता ठगी सी व बेचारी हो जाती है। देश के सम्मानित कर्णधार नेता लोकहित के मुद्दे छोड़कर आपसी छींटाकशी में समय जाया कर देते हंै। देश की हर छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टी हमेशा दूसरे दल की कमजोरी व कमी ढंूढ़ा करती है ताकि मौका मिलते ही किसी को भी घसीट दिया जाये। ज्यादातर सभी दलों के बीच यही खेल चला करता है। देश के वास्तविक विकास को कोई महत्व नहीं देता। होना तो यह चाहिए कि अगर कोई दल अच्छा काम या योजना लागू करता है तो सकारात्मक तौर पर उससे अच्छी जनसेवा की भावना रखी जाये, नाकि उसकी केवल कमियां ही निकाली जाएं। अपने दल को लोकसेवा में बीस साबित करने के बजाय अक्सर पार्टियां दूसरे दल को छोटा दिखाने में ही अपनी ऊर्जा व समय नष्ट कर देते हैं। स्थिति यह है कि एक या दो सीट हासिल करने वाले तथा अपने आपको राष्ट्रीय दल कहने वाले भी इस काम में लगे रहते हैं, वो भी सत्ता पाने के जुगाड़ में लगे रहते हैं। हालत यह होती है कि मौका पड़ते ही अपनी पार्टी छोड़कर दूसरे सत्ता पक्ष के दल में जा घुसते व समर्थन दे देते हैं। एक दल का घंघोर विरोधी कब उस पार्टी का हितैषी हो जाये, इसमें भी बहुत आश्चर्य नहीं होता। आज के मौजूदा राजनीतिक माहौल में देश के राजनेता, मंत्रियों व दलों की छवि कैसे लोकप्रिय हो? यह एक अहम विषय है। जनप्रिय नेता व मंत्रियों का स्वरूप कैसा हो, कैसे ये सभी जनता व देश हित के बारे में सोचे व काम करें? इसके लिए इनके चयन में ही जमीनी बदलाव की आवश्यकता महसूस की जा सकती है। अब बारी है कि हर एक राजनीतिक दल युवाओं के बारे में गंभीरता से विचार करे तथा अपना जनाधार बढ़ाने के लिए युवाशक्ति को बागडोर सौंपे। इसकी एक अच्छी पहल हो चुकी है। नेहरु जी का सपना सच करने के लिए नेहरु-गांधी परिवार के युवराज कहे जाने वाले युवा सोच के मालिक राहुल गांधी ने इसकी एक झलक दिखला दी है। पूरे देश में एकसाथ जमीन से जुड़े बिल्कुल नये चेहरों को प्रवेश दिला लोकतंत्र में एक नई व युवा नजीर पेश की। राहुल गांधी का मिशन २०१२ फतेह करने की यह नई युवा सेना होगी। जिसकी बागडोर युवा राहुल खुद संभालेंगे। युवाओं को राजनीति में लाने के इस कार्यक्रम में सबसे अहम बात यह है कि नई पीढ़ी के जमीन से जुड़े लोगों को इसमें तरजीह दी गई है। जमीन से जुड़े साधारण लोगों को राजनीति में लाया जा रहा है। राहुल गांधी की पहल बेशक रंग लाएगी।

Tuesday, August 3, 2010

जब पर्यावरण सुधरेगा, तभी देश बढ़ेगा


असंतुलित पर्यावरण की मार से मौसम के सभी चक्र दुष्प्रभावित हो जाते हैं। समय पर सर्दी न पडऩे या पाला गिरने तथा प्रचुर मात्रा में समय पर बरसात न हो पाने से किसान नुकसान में आ जाता है। इन सबका खामियाजा हम सबको फिर महंगाई के रूप में देखना पड़ता है। क्योंकि आबादी व लागत के हिसाब से अनाज नहीं पैदा हो पाता, फलस्वरूप कीमतें बढ़ जाती हैं। पानी फसलों के लिए अमृत होता है।

पानी और हवा मनुष्य की खास जरूरतें हैं। इसके बिना किसी भी जीव का इस धरती पर जीना बहुत मुश्किल है। शुद्ध वातावरण व पर्यावरण हर जीव की प्रथम आवश्यकता है। बढ़ती हुई जनसंख्या के हिसाब से संसाधनों की सीमितता तो पर्यावरण असंतुलन की एक वजह है ही, इसके अलावा आम लोगों का गैर जिम्मेदाराना व लापरवाह रवैया भी कुछ कम नहीं। पर्यावरण को भाुद्ध व वातावरण को साफ-सुथरा बनाने के लिए सबकी पहल व सहभागिता बहुत आवश्यक है। आज देश के कई हिस्सो में लोग पानी की समस्या से जूझ रहे हैं। एक ताजा सर्वे के अनुसार जल संसाधन व स्रोतों में कमी आ रही है। अगर समय से न चेता गया तो आने वाले वर्षों में पानी के लिए त्राहि-त्राहि मच सकती है। जमीनें पूरी तरह से सूखती जा रही हैं, पर्याप्त मात्रा में पानी न मिल पाने के कारण नमी खत्म हो रही है। पानी का फिजूलखर्च तो काफी है, परंतु पर्याप्त मात्रा में जल संरक्षण कहीं नहीं दिखता। पर्यावरण के गड़बड़ाने से वर्षा भी प्रभावित होती है। वैसे, पानी की कमी को प्राकृतिक रूप से वर्षा पूरा कर देती थी, परंतु वनों के प्रति उदासीन रवैये से ही पेड़ घटते जा रहे हैं व जंगल खत्म होते जा रहे हैं। जबकि पेड़ वर्षा में सहायक होते हैं। पेड़ जहां हवा को शुद्ध करने का काम करते हैं, वहीं कई अमूल्य जड़ी व जीवन औषधियां भी इन्हीं जंगलों से मिलती हैं। देखा जाये तो वनों को संरक्षण देने से पानी की कमी को पूरा किया जा सकता है। दूसरी तरफ हमारे देश की फसलें व खेती भी पानी पर ही निर्भर रहती हैं। फसलों को पर्याप्त मात्रा में पानी न मिल पाने व बेमौसम की बरसात फसलों को खराब कर देती है, और कभी-कभी तो 'का वर्षा जब कृथिन सुखानी' जैसी कहावत देखने को मिलती है। असंतुलित पर्यावरण की मार से मौसम के सभी चक्र दुष्प्रभावित हो जाते हैं। समय पर सर्दी न पडऩे या पाला गिरने तथा प्रचुर मात्रा में समय पर बरसात न हो पाने से किसान नुकसान में आ जाता है। इन सबका खामियाजा हम सबको फिर महंगाई के रूप में देखना पड़ता है। क्योंकि आबादी व लागत के हिसाब से अनाज नहीं पैदा हो पाता, फलस्वरूप कीमतें बढ़ जाती हैं। पानी फसलों के लिए अमृत होता है, वनों के या पेड़ों के कम होने से वर्षा का मौसम भी डगमगा जाता है। इसलिए वन बचाओ अभियान और व्यापक होना चाहिए। साथ ही नये पेड़ों को लगाने व उनकी देखभाल की नैतिक जिम्मेदारी हर इंसान की बन जाती है। पानी तथा पेड़ दोनों बचाने जरूरी हैं क्योंकि किसी एक को न बचाने से पर्यावरण की पूरी शृंखला कमजोर होती है। गांवों से लेकर शहर तक का पर्यावरण व वातावरण में प्रदूषण फैला हुआ है। शहरों की सड़कों पर कहीं कारखानों की चिमनियों से या फिर माल ढोने वाले छोटे-बड़े वाहनों से उड़ता जहर उगलते धुएं से लोग पीडि़त हैं। सड़कों पर बढ़ती हुई पेट्रोल व डीजल चलित गाडिय़ों की तादात भी वायु के साथ ध्वनि प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं। जहां शहरों में 'सेव इन्वायरनमेंट, सेव पीपल। क्लीन सिटी, ग्रीन सिटी। सेव वाटर सेव लाइफ जैसे स्लोगन प्रचार में तो आते हैं और लोगों की जागरुकता बढ़ाते हैं, परंतु इन सबका प्रायोगिक रूप से सामूहिक प्रयास व इस्तेमाल नाकाफी दिखता है। उदाहरण स्वरूप घरों से रोजाना निकलने वाला कूड़ा आसपास के वातावरण को दूषित करता है, जिससे अनेक प्रकार की की गंभीर बीमारियों का संक्रमण भी फैल सकता है। इसमें सबसे ज्यादा घातक होता है किसी भी तरह से नष्ट न होने वाला कूड़ा जिसमें प्रमुख तौर पर सबसे आजकल सबसे ज्यादा प्रयुक्त होने वाला है प्लास्टिक या पॉलीथिन। आज बाजारों में दुकानदारों के साथ उपभोक्ताओं को भी प्लास्टिक के थैलों में ज्यादा सहूलियत दिखाई पड़ती है। हर बाजार व दुकान में सामान पॉलीथिन के लिफाफों में दिया जाता है। आज मुश्किल से ही कोई जागरूक ग्राहक कपड़े का थैला लेकर बाजार जाता है। सब्जी हो या अन्य घरेलू रोजमर्रा का सामान सबकुछ प्लास्टिक के थैलों में बेचा व खरीदा जाता है। बात यह है कि एकबार प्रयुक्त होने वाले पॉलीथिन के यह लिफाफे किसी भी तरह से नष्ट नहीं हो सकते। गलती से इन्हें जला देने से वैज्ञानिक दृष्टि से इसका धुआं व गैस सैकड़ों सालों तक वातावरण को जहरीला बना देता है। जबकि निम्न स्तर की पॉलीथिन खाद्य पदार्थों के लिए बहुत नुकसानदेह होती है। कुल मिलाकर प्लास्टिक हमारे पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचाती है। पर्यावरण को दूषित करने वाले असली कारकों को पहचान कर उनको स्वस्थ वातावरण के लिए हटाने की प्राथमिकता ही देश के स्वस्थ विकास की सीढ़ी हो सकती है।

बलिहारी गुरु आपने राह दियो दिखाये


जीवन में क-ख-ग से लेकर जीवन व प्रकृति से जुड़ी तमाम जानकारी का ज्ञान हमें स्कूल या विद्यालय में गुरु ही कराते हैं। सांसारिक, आध्यात्मिक व विभिन्न धर्मों की शुरुआती शिक्षा स्कूल के शिक्षक ही देते हैं, इसलिए ये हमारे लिए प्रांरभिक गुरु हैं। घरों में माता-पिता बच्चों के घरेलु गुरु कहे गये हैं क्योंकि आचरण व व्यावहारिक शिक्षा का पाठ बच्चे घर से ही सीखना शुरु करते हैं।


जीवन वन में सफलता के लिए गुरु का सानिध्य बहुत आवश्यक है। गुरु के बिना कुछ भी हासिल करना बहुत कठिन होता है। वह हमें सही रास्ता दिखाता है, मार्ग का सही पता न होने पर हम चल तो सकते हैं परंतु भटकाव हो सकता है। इसलिए गुरु को पथ प्रदर्शक भी कहा गया है।
सांसारिक जीवन में आध्यात्मिक गुरुओं का बहुत महत्व है। इसके साथ जीवन के हर कार्यक्षेत्र में भी गुरु का साथ जरूरी है और गुरुजनों के अतुलनीय योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। चाहे वह शुरुआती तौर पर शिक्षा बांटने वाले शैक्षिक गुरु की भूमिका हो या फिर आजकल के कामकाजी माहौल में व्यावसायिक गुरु की। जीवन की हर व्यक्तिगत या व्यावसायिक सफलता में सभी गुरुजनों का अपना अहम किरदार है। प्रारंभिक जीवन में क-ख-ग से लेकर जीवन व प्रकृति से जुड़ी तमाम जानकारी का ज्ञान हमें स्कूल या विद्यालय में शिक्षक ही कराते हैं।
सांसारिक, आध्यात्मिक व विभिन्न धर्मों की शुरुआती शिक्षा स्कूल के शिक्षक ही देते हैं, इसलिए ये हमारे लिए प्रांरभिक गुरु हैं। घरों में माता-पिता बच्चों के घरेलु गुरु कहे गये हैं क्योंकि आचरण व व्यावहारिक शिक्षा का पाठ बच्चे घर से ही सीखना शुरु करते हैं। इस प्रकार माता-पिता बच्चों के नैतिक गुरु कहे जा सकते हैं। जीवन के अगले पड़ाव में जब हम स्कूल-कॉलेज से निकलकर जिंदगी की कर्मभूमि या अपने कार्यक्षेत्र में प्रवेश करते हैं, तब हमें आवश्यकता होती है एक अनुभवी कॅरियर गुरु की। जो हमें समय-समय पर अपनी सही सलाह देकर उचित मार्ग को अपनाने की राय देता है।
हमारी योग्यता का सही आकलन करके अनुकूल लक्ष्य की ओर पथ प्रदर्शित भी करता है। आजकल के व्यावसायिक युग में भी गुरुओं की भूमिका कुछ कम नहीं। इनको व्यावसायिक गुरु की संज्ञा दी गई है। जो हमें अपने काम या व्यापार को बढ़ाने की मार्केटिंग टिप्स व वर्तमान समय की बाजार व्यवस्था तथा योजना के बारे में पूरी जानकारी देते हैं।
किसी भी काम या व्यवसाय में सफलता पाने के लिए इन व्यावसायिक गुरुओं के पास ढेरों फॉर्मूले हरवक्त मौजूद रहते हैं। ये सब अपने कार्यक्षेत्र के विशेषज्ञ के रूप में कार्य करते हैं। सेल्स स्टाफ को विशेष तौर पर तैयार करने के लिए अलग प्रशिक्षक गुरु होते हैं, जो लोगों को बाजार की बारीकी समझाते हैं। सभी व्यावसायिक गुरुओं के पास अपार अनुभव होता है, जिसके प्रयोग से हम अपने काम या व्यापार में तरक्की करते हैं। उम्र की तीसरी अवस्था में सांसारिक सुख व शांति के लिए आध्यात्मिक गुरुओं का सानिध्य व सत्संग को सर्वोच्च समझा गया है। आध्यात्मिक गुरु के बिना ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करना बहुत कठिन है। ज्ञान के प्रकाश से ही अज्ञानता का अंधकार अपने आप मिट जाता है, साथ ही आत्मीय सुख व अलौकिक शांति का अनुभव किया जा सकता है।
गुरु की कृपा से ही होने वाली अमृत वर्षा से रोम-रोम रोमांचित व प्रफुल्लित हो उठता है। इसलिए ईश्वर का गुणगान करने वाले गुरुओं को देवगुरु भी कहा जाता है। क्योंकि यही गुरु भौतिकवादी मनुष्य व अलौकिक परमात्मा के बीच सेतु की तरह होते हैं। यर्थाथ भी यही है कि संसार छूटने की बारी आने से पहले ही झूठी सांसारिक माया को छोड़कर परमात्मा की सच्ची सत्ता से जुड़ सकें। ऐसा ही ज्ञान हमें अपने आध्यात्मिक गुरु से मिलता है। यही गुरु ही हमारी सांंसारिक नैया का कुशल व अनुभवी खेवैया होता है। भगवान की शरण में ले जाने वाला गुरु ही होता है। एक श्लोक है कि गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागहु पाएं, बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय। गुरु को देव से बढ़कर भी बताया गया है, क्योंकि गुरु के बिना भगवान के यहां तक पहुंचने का मार्ग पता नहीं चल पाता। बिना गुरु के परमात्मा से साक्षात्कार बहुत मुश्किल होता है और भगवान को नहीं पाया जा सकता है। हर लिहाज से गुरु और शिष्य का रिशअता सबसे पवित्र व आत्मीय होता है। गुरु चाहे वह किसी भी क्षेत्र से हो, उसका ज्ञान हमेशा अनुकरणीय होता है।
एक बार गुरु मान लेने के बाद उसकी कही हुई बातों में तनिक भी संशय नहीं होता, बल्कि एक विश्वास ही होता है जो हमारी आत्मशक्ति को बढ़ाता है। जिससे जीवन की किसी भी स्थिति से गुजरने की ताकत, साहस व धैर्य भी स्वत: ही उत्पन्न होने लगता है। आगे का कठिन रास्ता उसके अनुकरण से आसान लगने लगता है। सभी गुरुओं के पास ज्ञान और अनुभव की ऐसी अपार गंगा होती है कि जिसके तनिक से जल से ही हम लाभान्वित व उनके अनुग्रहित हो जाते हैं। गुणों से भरे हुए व्यक्ति को गुरु कहा जा सकता है और गुरु किसी भी उम्र का हो सकता है। जो व्यक्ति हमको कुछ सिखला सकता है, वह हमारा गुरु है और हम उसके शिष्य हो जाते हैं।

दुनिया में दुर्लभ व अमूल्य है ईश्वरीय खजाना





हममें से अधिकतर लोग आज जिंदगी के मूल्यवान ढेर से कूड़ा बीनने ही जैसा काम कर रहे हैं। इनको जिंदगी गुजारने के लिए पैसे तो मिल रहे हैं, परंतु उनकी आवश्यकताओं की लम्बी-चौड़ी फेहरिस्त होने से सच्ची भांति नहीं महसूस हो पाती। और इस तरह आदमी हर समय और अमीर बनने के तरीके खोजा करता है। नतीजन, लोग भौतिक वादी रूप से अधिक महात्वाकांक्षी होते जा रहे हैं।


एक बार की बात है कि एक आदमी कूड़े से रद्दी-कागज व प्लास्टिक आदि बीनता व कबाड़ी को बेचकर अपने परिवार का पालन-पोषण किया करता था। एक दिन वह कूड़े से कागज आदि बीन रहा था, उसी समय एक संन्यासी उसके पास आया और उससे पूछने लगा-यह तुम क्या कर रहे हो? कूड़ा बीनने वाले ने संन्यासी से कहा कि वह कबाड़ी को चीजें बेचता है, जिससे उसके घर का गुजारा चलता है। संन्यासी ने कहा कि यहां से कुछ ही दूर पर कई कीमती वस्तुएं जैसे लोहा व एल्युमीनियम आदि पड़े रहते हैं, तुम उन्हें उठाकर क्यों नहीं बेचते! उससे तुम्हें ज्यादा पैसे मिल सकते हैं। इसके बाद से कूड़ा बीनने वाले की जिंदगी ही बदल गई। क्योंकि जहां वह एक दिन में बड़ी मुश्किल से कुछ ही पैसे कमा पाता था, वहां कीमती चीजें बेचने से उसे अच्छे पैसे मिल जाते थे। इस प्रकार उसकी जिंदगी अच्छी तरह चलने लगी व उसका परिवार भी अब पहले से कहीं अधिक खुशहाल था। देखा जाए तो हममें से अधिकतर लोग आज जिंदगी के मूल्यवान ढेर से कूड़ा बीनने ही जैसा काम कर रहे हैं। इनको जिंदगी गुजारने के लिए पैसे तो मिल रहे हैं, परंतु उनकी आवश्यकताओं की लम्बी-चौड़ी फेहरिस्त होने से सच्ची भांति नहीं महसूस हो पाती। और इस तरह आदमी हर समय और अमीर बनने के तरीके खोजा करता है। नतीजन, लोग भौतिक वादी रूप से अधिक महात्वाकांक्षी होते जा रहे हैं। कूड़ा बीनने वाले की कहानी भी बिल्कुल ऐसी ही है। कीमती चीजों को बेचने से उसका भी स्तर ठीक हो गया था। वह पहले से अधिक धनवान भी हो गया। पंरतु, उसे पैसे की भूख और अधिक बढ़ गई थी। उसे भी इतने से संतुष्टि नहीं हुई। एक दिन फिर वही संन्यासी उस व्यक्ति से मिला। उसकी संपन्नता देखते हुए उसका हालचाल पूछा-कि अब तो आप खुश हैं, आपका काम ठीक से चल रहा है! अब तो आप बड़े व्यापारी हो गये हैं। व्यापारी नें कहा कि महाराज! आप तो बड़े जानकार हैं, जल्दी से मुझे करोड़पति बनने का और कोई रास्ता बताइये। इस समय मैं संतुष्टि व भांति का अनुभव नहीं कर पा रहा हंू। संन्यासी ने कहा कि कोई बात नहीं, मैं तुम्हें अब उस जगह का पता बताता हंू, जहां पर सबसे मूल्यवान व कीमती चीजें मिलती हैं। सोना, चांदी, हीरा व मोती का खजाना है वहां। जिससे तुम बहुत जल्दी अमीर व करोड़पति बन सकते हो। उस व्यापारी की खुशी का तो ठिकाना ही न रहा। उसने जल्दी ही उस जगह का पता लगाकर काम चालू कर दिया। धीरे-धीरे करके वह अब सोने व कीमती आभूषणों का बहुत बड़ा सेठ हो गया। अब तो उसके पास कई बड़े-बड़े बंगले व आलीशान गाडिय़ां व दर्जनों नौकर हमेशा उसके आगे-पीछे घूमते रहते। इस तरह से सेठ के पास करोड़ों रुपये की संपदा इकट्ठा हो गई थी। परंतु, उसकी मानसिक स्थिति पहले से कहीं अधिक खराब हो चुकी थी। इतनी बड़ी संपदा का रखरखाव करना उसे बड़ा मुश्किल लग रहा था। चोरों का भी डर था उसे, व्यापार में भी नुकसान होने का भय लगा रहता था। उसके पास पैसे की कोई कमी नहीं थी, और न ही अब कोई चाहत भी। लेकिन, मन हमेशा अशांत व परेशान रहता। मन की दशा भी यही है कि धनवान बन जाने की अपार इच्छा व धन संचय के लिए हम प्रयासरत रहते हैं। कितना भी धन मिल जाने या हो जाने पर भी मन नहीं मानता। मन और ज्यादा की मांग हमेशा करता है, जल्दी से जल्दी अमीर या करोड़पति हो जाना चाहता है। उसे लगता है कि खूब, भरपूर पैसा व संपदा के मालिक होने पर ज्यादा सुख व शांति मिलती है। परंतु, ऐसा नहीं होता, अगर ऐसा होता तो कूड़ा बीनने वाला व्यापारी बना, फिर बड़ा सेठ हो जाता है। अब उसके पास सब कुछ है, लेकिन असली शांति की तलाश उसकी अब भी बाकी है। नियति व संयोग से कई वर्षों के बाद एक दिन फिर वही संन्यासी उसी व्यापारी सेठ से अचानक टकरा जाता है। सेठ तुरंत उसके पैरों पर गिरकर कहता है- महाराज! कुछ करिये, मुझे शांति नहीं मिल पा रही। मैं बहुत परेशान हो चुका हंू। संन्यासी ने झट कहा-चलो, अब मैं तुम्हें दुनिया के सबसे बहुमूल्य व अमूल्य खजाने का पता बताता हूं। व्यापारी सेठ बोला-महाराज! नहीं, मुझे अब कोई खजाना नहीं चाहिए, मैं इन सबसे तंग आ गया हंू। संन्यासी नें कहा कि मैं तुम्हारी स्थिति समझ चुका हूं। अभी तक मैंने तुम्हें सभी भौतिक खजानों के पते बताये हैं। अब मैं तुम्हें ईश्वरीय खजाने का पता बताता हूं, जो असली खजाना है। जहां पर ही तुम्हें सच्ची शांति व संतुष्टि का अनुभव होगा। उस खजाने को पाने के लिए तुम्हें कहीं और जाने की भी आवश्यकता नहीं क्योंकि वह अमूल्य खजाना तुम्हारे अंदर ही छिपा है, और उस खजाने का लुट जाने का भी डर नहीं। इससे बड़ी दौलत व खजाना पूरी दुनिया में नहीं है। सेठ ने संन्यासी को दंडवत प्रणाम किया व नये खजाने की खोज के लिए चल दिया।

Thursday, July 8, 2010

देवों के भी देव हैं बाबा अमरनाथ बर्फानी


अमरनाथ बर्फानी की यात्रा शुरू हो चुकी है। साल-दर-साल बाबा के दरबार में पहुंचने वालों की तादात बढ़ती ही जा रही है। देश के कोने-कोने से लाखों श्रद्धालु एवं भोले के भक्तजन पवित्र गुफा में प्राकृतिक रूप से र्निमित शिव लिंग के दर्ान करने पहुंचते हैं। पुराणों में संस्मरण है कि एक बार मां पार्वती ने शिव जी से गले में पड़े नरमुण्ड माला डाले रहने तथा अमर होने का कारण व रहस्य जानने की उत्सुकता प्रकट की। भगवान शंकर भी अमर होने का रहस्य बताने को तैयार हो गये, परंतु उन्होंने पार्वती जी से एकान्त व गुप्त स्थान पर अमर कथा सुनने को कहा। जिससे कि अमर कथा को कोई भी जीव, व्यक्ति और यहां तक कोई पशु-पक्षी भी न सुन ले। क्योंकि जो कोई भी इस अमर कथा को सुन लेता, वह अमर हो जाता। इस कारण शिव जी पार्वती को लेकर किसी गुप्त स्थान की ओर चल पड़े। सबसे पहले भगवान भोले भांकर नें अपनी सवारी नन्दी को पहलगाम पर छोड़ दिया, इसीलिए बाबा अमरनाथ की यात्रा पहलगाम से शुरू करने का तात्पर्य या बोध होता है। आगे चलने पर शिव जी ने अपनी जटाओं से चन्द्रमा को चंदनवाड़ी में अलग कर दिया तथा गंगा जी को पंचतरणी में और गले में सर्पों को शेषनाग पर छोड़ दिया, इस प्रकार इस पड़ाव का नाम शेषनाग पड़ा। आगे की यात्रा में अगला पड़ाव गणेश टॉप पड़ता है, इस स्थान पर बाबा ने अपने पुत्र गणेश को भी छोड़ दिया था, जिसको महागुणा का पर्वत भी कहा जाता है। पिस्सू घाटी में पिस्सू नामक कीड़े को भी त्याग दिया। इस प्रकार महादेव ने अपने पीछे जीवनदायिनी पांचों तत्वों को भी अपने से अलग कर दिया। इसके बाद मां पार्वती संग एक गुप्त गुफा में प्रवेश कर गये। कोई व्यक्ति, पशु या पक्षी गुफा के अंदर प्रवेश कर अमर कथा को न सुन सके इसलिए शिव जी ने अपने चमत्कार से गुफा के चारों ओर आग प्रज्जवलित कर दी। फिर शिव जी ने जीवन की अमर कथा मां पार्वती को सुनाना शुरू किया। भाग्यवश कबूतर के एक जोड़े ने इस अमर कथा को कहीं चुपके से सुन लिया। अत: यह कबूतर का जोड़ा अजर व अमर हो गया। आज भी पवित्र गुफा के समीप यह कबूतर का जोड़ा किन्हीं भक्तों को दिखाई पड़ जाता है। और इस तरह से यह गुफा अमर कथा की साक्षी हो गई व इसका नाम अमरनाथ गुफा पड़ा। जहां गुफा के अंदर भगवान शंकर बर्फ के प्रकृति द्वारा निर्मित शिवलिंग के रूप में विराजमान हैं। पवित्र गुफा में मां पार्वती के अलावा गणेश के भी अलग से बर्फ से निर्मित प्रतिरूपों के भी दर्शन करे जा सकते हैं। इस पवित्र गुफा की खोज के बारे में पुराणों में भी एक कथा प्रचलित है कि एक बार एक गड़रिये को एक साधू मिला, जिसने उस गड़रिये को कोयले से भरी एक बोरी दी। जिसे गड़रिया अपने कन्धे पर लाद कर अपने घर को चल दिया। घर जाकर उसने बोरी खोली। वह आश्चर्यचकित हुआ, क्योंकि कोयले की बोरी अब सोने के सिक्कों की हो चुकी थी। इसके बाद वह गड़रिया साधू से मिलने व धन्यवाद देने के लिए उसी स्थान पर गया, जहां पर वह साधू से मिला था। परंतु वहां पर उसे साधू नहीं मिला, बल्कि उसे ठीक उसी जगह एक गुफा दिखाई दी। गड़रिया जैसे ही उस गुफा के अंदर गया तो उसने वहां पर देखा कि भगवान भोले शंकर बर्फ के बने शिवलिंग के आकार में स्थापित थे। उसने वापस आकर सबको यह कहानी बताई। और इस तरह भोले बाबा की पवित्र अमरनाथ गुफा की खोज हुई और धीरे-धीरे करते दूर-दूर से भी लोग पवित्र गुफा एवं बाबा के दर्ान को पहुंचने लगे। बाबा भोलेनाथ की यह पवित्र गुफा पहलगाम से ३८८८ मीटर या लगभग ४६ किमी. दूर है। हिन्दू धर्म में देवों के देव कहे जाने वाले भोले भंडारी की अमरनाथ यात्रा हिन्दी मास के आषाढ़ पूर्णमासी से श्रावण मास की पूर्णमासी तक होती है, जो अंग्रेजी माह जुलाई से अगस्त तक लगभग ४५ दिन तक चलती है। जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा पवित्र अमरनाथ गुफा के दर्शन हेतु जाने वाले सभी श्रद्धालुओं की जरूरतों एवं सुविधाओं की पूरी व्यवस्था की जाती है। अमरनाथ श्राइन बोर्ड द्वारा यात्रियों के लिए हर दो-तीन किलो मीटर की दूरी पर टॉयलेट, शेड, शेल्टर, प्राथमिक चिकित्सा व मेडिकल सुविधा भी सुलभ कराता है। अमरनाथ यात्रा के लिए सरकार हेलीकॉप्टर सुविधा भी उपलब्ध कराती है। यात्रियों के खाने-पीने के लिए देशभर से कई सेवा मंडल समितियां पूरे रास्ते नि:शुल्क लंगर की व्यवस्था भी करती हैं। श्रद्धालुओं की श्रद्धा इतनी अधिक होती है कि कहीं-कहीं पर दुर्गम रास्ता व सुरक्षा का तनिक भी खतरा महसूस नहीं होता। सरकार द्वारा नियुक्त सीआरपीएफ, भारतीय थल सेना व अद्र्धसैनिक बल के जवान चौबीस घंटे अपनी ड्यूटी में मुस्तैद रहते हैं और भोले के भक्तों को बाबा अमरनाथ बर्फानी के दर्शन कराते हैं। और बाबा के भक्त भी सुरक्षित भाव से बम-बम भोले जयघोष के साथ अपनी यात्रा पूरी करते जाते हैं।

Monday, June 28, 2010

जिंदगी को सबक सिखाती हैं कहानियां



कहानियों के सरल माध्यम से कोई भी बात किसी को आसानी से समझाई जा सकती है। इसी तरह कई कम्पनियों के प्रोफेशनल व मार्केटिंग गुरु भी अपने सेल्स स्टाफ को विक्रय लक्ष्य पाने के लिए भी तरह-तरह की प्रेरणास्पद व उत्साहवर्धक कहानियों के माध्यम से बुस्ट-अप करने का जोशीला काम करते हैं। क्योंकि यही कहानियां हमारे अंदर जोश भरने का भी काम करती हैं। कुल मिलाकर कहानियां हमारे जीवन का अमूल्य व अहम हिस्सा हैं। ये सब हमें हमारे अस्तित्व से भी जोडऩे का काम करती हैं। कहानी हमें संस्कृति का भी ज्ञान कराती है।


बचपन के दिनों में कहानियां न हों, यह मुमकिन नहीं। हर किसी का बचपना एक बार कहानियों के दौर से जरूर गुजरता है। दादा-दादी की गोद में बैठकर कहानियां सुनते-सुनते बच्चे कब नींद में सो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। कल के और आज के इस दौर में काफी अन्तर आ चुका है, आज जमाना हाईटेक हो गया है। फिर भी कहानियों की हमारे जीवन में अहम भूमिका हैं। बच्चे अक्सर तोता-मैना की कहानी, गुड्डे-गुडिय़ा की कहानी, राजा-रानी की कहानी, व परियों की कहानी सुनने की जिद किया करते हैं। जीवन के हर पड़ाव में कहानियां हमें सबक सिखाती हैं कभी मनोरंजन के माध्यम से तो कभी हमारे लिए प्रेरणा बनकर।
पहले के समय में मनोरंजन व समय बिताने के लिए कहानियां सुनी व सुनाई जाती थीं। बच्चे भी बड़े चाव से इन कहानियों को सुनते थे। कहानियों से बच्चे फुसलाये भी जाते थे। बच्चे अपनी पसंद की फरमाइशी कहानी भी सुनाने को कहते थे। बच्चों के लिए कई कहानियां भी हैं- उनको सुलाने के लिए अलग कहानी, हंसाने की कहानी, रस्म-रिवाजों को समझाने के लिए तीज त्योहार पर होने वाली कहानियां। अपना खाली वक्त बूढ़े दादा-दादी इस तरह बच्चों के साथ किस्सा-कहानी कहकर बिताया करते व मौज-मस्ती किया करते थे। कहानियां भी दो काम एक साथ करती हैं, एक तो समय बिताना व मनोरंजन करना तथा दूसरा-इन कहानियों से सीख देना। बच्चों को मनोरंजन के साथ अच्छी सीख के लिए भी अलग-अलग प्रकार की कहानियां कही जाती हंै।
कहानियां अब सुनने के अलावा पढ़ी भी जाती हैं। जिंदगी में कहानियां बहुत जरूरी हैं क्योंकि यह जीवन के हर पहलू को छूती व हर दौर से जुड़ी होती हैं। कहानियां मन को लुभाती हैं तो प्रेरक भी होती हैं। तमाम प्रकार की कहानी सुनकर हम सब बड़े हुए व इनसे सीख लेते हैं। यह सच है कि जो बात सीधे तौर पर बताई व समझाई नहीं जा सकती, उसके लिए प्रेरणादायक कहानियों का सहारा लेना आवश्यक होता है।
सच्ची कहानियों के साथ कभी-कभी काल्पनिक कहानियों का भी प्रयोग करना पड़ जाता है, जिसका मुख्य बिंदु होता है असल बात को पहुंचाना। इसीलिए आध्यात्मिक गुरु भी अपने प्रवचनों व विचारों में अनेक प्रकार की प्रेरक कहानी सुनाकर अपने भक्तों को समझाने का प्रयास करते हैं। कहानियों के सरल माध्यम से कोई भी बात किसी को आसानी से समझाई जा सकती है। इसी तरह कई कम्पनियों के प्रोफेशनल व मार्केटिंग गुरु भी अपने सेल्स स्टाफ को विक्रय लक्ष्य पाने के लिए भी तरह-तरह की प्रेरणास्पद व उत्साहवर्धक कहानियों के माध्यम से बुस्ट-अप करने का जोशीला काम करते हैं। क्योंकि यही कहानियां हमारे अंदर जोश भरने का भी काम करती हैं। कुल मिलाकर कहानियां हमारे जीवन का अमूल्य व अहम हिस्सा हैं। ये सब हमें हमारे अस्तित्व से भी जोडऩे का काम करती हैं। कहानी हमें संस्कृति का भी ज्ञान कराती है।
वेद-पुराणों व धार्मिक ग्रन्थों की आध्यात्मिक कहानियां हमें धर्म व धार्मिकता सिखाती हैं तथा सहिष्णुता का भी पाठ पढ़ाती हैं। वहीं महापुरुषों की प्रेरक जीवन कहानी हमें आदर्श आचरण की परिभाषा का संज्ञान कराती हैं तथा हमारे लिए अनुकरणीय भी होती हैं। देश की आजादी के बलिदानियों की वीरगाथा हमें सच्चे रास्ते पर चलने व अपनी जान को न्योछावर तक करने की नसीहत दे जाती हैं। जीवन के यथार्थ से जुड़ा हुआ कोई अनूठा किस्सा एक समय प्रेरक कहानी व प्रसंग बन जाता है। फिर इन सभी बातों का संस्मरण ही निजी जिंदगी में प्रेरणास्रोत होता है। संजय ने भी जहां अपनी दिव्यदृष्टि से महाभारत युद्ध का आंखों देखा हाल बिल्कुल कहानी की तरह से अंधे धृतराष्ट्र को सुनाया, वहीं श्री कृष्ण ने भी कुरुक्षेत्र के मैदान में गाण्डीव धारी अर्जुन को विस्तार से समझाने के लिए कई कहानियों व संस्मरणों का बोध कराया। श्री मद्भगवत गीता में भी हर एक अध्याय को अच्छी तरह से जानने व समझने के लिए अलग से महात्म्य का वर्णन किया गया है। मानवता को जानने के लिए अपनी धार्मिकता को बढ़ाने के लिए व मन तथा आत्मा को पवित्र बनाए रखने के लिए विभिन्न प्रकार से जुड़ी कहानियां हमेशा से ही हमारे लिए मार्गदर्शक व प्रेरणास्रोत रही हैं। अभी तक हम इनको केवल किताबों, ग्रन्थों, महाकाव्यों व कई प्रकार के कहानी संग्रहों को हाथों में लेकर पढ़ते आए हैं। परंतु आज के इस प्रौद्योगिकी कम्प्यूटर व इंटरनेट युग में हर प्रकार की कहानियां नेट पर केवल एक क्लिक करने से पूरे विश्व में एक साथ स्क्रीन पर मौजूद हैं।
कम्प्यूटर पर कहानियों का ऐसा अद्भुत विशाल संग्रह है जो एक बार सर्च करने से अपनी पसंद की ढेरों प्रेरणास्पद कहानियां पढ़ी जा सकती हैं। यह संसार विभिन्न प्रकार की कहानियों से भरा पडा़ है। कोई भी किस्सा कहानी हमें सही बात का संदेश देती है और उससे जुड़े यथार्थ को भली भांति समझाती है। ऐसी कहानियां हमें किसी भी भटकाव व असमंजस की स्थिति से निकालकर एक सुरक्षित स्थान पर ले जाती हैं। हर कहानी अन्त में हमें कुछ न कुछ सिखा कर जाती है तथा सही राह दिखाती है।
जिंदगी को सबक सिखाती हैं कहानियां,
फिर जिंदगी का सबब भी बनती है कहानियां।

Thursday, June 17, 2010

कितना मासूम बनकर आता है आदमी



बच्चे का सबसे नजदीकी रिश्ता अपनी मां से होता है और सबसे ज्यादा प्यार भी मां से ही मिलता है। फिर बच्चा अपने पिता की उंगली थामकर जमीन पर पैर रखकर चलना सीखता है। जैसे-जैसे वह अपने पैरों पर खड़ा होने लगता है व जिंदगी के पाठ सीखता है। फिर देखने वाली बात यह है कि जिंदगी से सीखकर कल का मासूम बच्चा अपने मां-बाप को भी पाठ पढ़ाने लगता है।

एक बात सच है कि हर एक व्यक्ति अपने जन्म के समय कितना मासूम व अबोध होता है! उसके पैदा होने पर उसकी जिंदगी का अंदाजा लगाना बड़ा मुश्किल होता है कि बच्चा बड़ा होकर क्या बनेगा व कितना नाम पैदा करेगा! कोई भी नाम के साथ जन्म नहीं लेता है, जन्मता केवल शरीर है। परिवार से उसको नाम मिलता है, कर्मों से ही किसी की पहचान बनती है। अच्छे कर्मों से व्यक्ति महान कहलाता है, और उसका नाम फैलता है। वहीं बुरे कर्मों से बदनाम कहा जाता है। अक्सर व्यक्ति की मासूमियत धीरे-धीरे खत्म होती जाती है व जिंदगी के अनेक रंग उस पर चढ़ते जाते हैं। जन्म तो सभी एक जैसे लेते हैं लेकिन जिंदगी के रूप सभी के अलग हो जाते हैं। मनुष्य का शुरुआती जीवन बहुत सरल व अबोध होता है। निश्छल व मासूमियत भरी जिंदगी हरतरह की चालाकी व चालबाजी से अंजान अपना सच्चा जीवन जीती जाती है। कहते हैं कि बच्चे का सबसे नजदीकी रिश्ता अपनी मां से होता है और सबसे ज्यादा प्यार भी मां से ही मिलता है। फिर बच्चा अपने पिता की उंगली थामकर जमीन पर पैर रखकर चलना सीखता है। जैसे-जैसे वह अपने पैरों पर खड़ा होने लगता है व जिंदगी के पाठ सीखता है। फिर देखने वाली बात यह है कि जिंदगी से सीखकर कल का मासूम बच्चा अपने मां-बाप को भी पाठ पढ़ाने लगता है। अब धीरे-धीरे बच्चे की मासूमियत रंग बदलती है और आज के आदमी का रंग उसपर चढऩे लगता है। इस आदमी की एक फितरत और भी है कि यह ही आदमियों का दुश्मन भी बन जाता है। खुद तो सब कुछ हासिल कर लेना चाहता है, परंतु किसी और को वहां पहुंचने से भी यही रोकता है। एक शाश्वत सत्य यह भी है कि कोई भी यहां हमेशा के लिए अमर होकर नहीं आता, हर कोई जानता है कि जिंदगी का कोई भी पल आखिरी हो सकता है, फिर भी जमीन, मकान, दुकान व रुपये-पैसे के लिए एक दूसरे की जान का दुश्मन हो जाता है। आपसी छीना-झपटी व धोखेबाजी भी आदमी की नीयत देखी जाती है। इस दुनिया में ज्यादा दिन का मेहमान न होने के बावजूद भी आदमी गाड़ी, बंगला और क्या-क्या सामान के यत्नों में लगा रहता है। मासूमियत भरी जिंदगी के सफर में भी रास्तों की तरह से दो मोड़ आते हैं। एक मोड़ हमें सही रास्ते पर ले जाता है तो दूसरा गलत दिशा में। कोई व्यक्ति अपने अच्छे आचरण व कर्मों के बल पर सही रास्ते पर चलते हुए अच्छा इंसान बन जाता है तथा अपने घर-परिवार का नाम रोशन करता है। दूसरी ओर एक व्यक्ति गलत रास्ते पर निकल जाता है जिससे उसका आचरण अमानवीय हो जाता है, उस पर हैवानियत सवार हो जाती है। इसी रास्ते से आदमी आपराधिक दिशा में भी बढ़ जाता है, जो अपने लोगों के बीच एक बदनुमा दाग की तरह से जाना जाता है। जैसे-जैसे जीवन में कई प्रकार की चालबाजियों व चालाकियों से आदमी रूबरू होता जाता है उसके अंदर की मासूमियत व सीधापन धीरे-धीरे खत्म होने लगता है। फिर वही अबोध बच्चा कब हर फन में माहिर होकर हमारे सामने आ जाता है, हमें इसका पता नहीं चलता। कोई डॉन, गैंगेस्टर या माफिया बन जाता है तो कोई अच्छा इंसान, मसीहा व लोगों के बीच लोकप्रिय हस्ती बनकर तमाम उपाधियों से नवाजा जाता है। जन्म के समय कोई महान नहीं होता, जीवन के कर्म ही उसे महानता का दर्जा दिलाते हैं। व्यक्ति के लिए जन्म से बढ़कर जिंदगी का रिश्ता होता है। मनुष्य अपने जन्म के समय पर योग्य नहीं होता है, उसे काबिलियत इसी दुनिया से सीखनी पड़ती है। बगैर नाम के पैदा हुए व्यक्ति को अपना नाम यहीं पर बनाना पड़ता है। नीति विशेषज्ञ चाणक्य ने कहा है कि पैदा होने पर हमारे साथ कुछ भी नहीं होता, जब हम मरते हैं तो अपना नाम छोड़ जाते हैं। सभी को मालूम है कि भारत को आजादी दिलाने वाला व्यक्ति भी अपने जन्म के समय में बहुत साधारण व अबोध था, परिवार वालो ने उसे मोहनदास नाम दिया। मोहनदास के कर्मों व विचारों ने पूरे विश्व में अपनी छाप छोड़ी। मासूम पैदा होने वाले बालक का नाम मोहनदास जरूर था, परंतु मरने के बाद उनके नाम में गांधी जी, राष्ट्रपिता, महात्मा व बापू सरीखी उपाधियां शामिल हो चुकीं थीं।
कितना मासूम बनकर जन्म लेता है आदमी,
जिंदगी में कितने गुल खिलाकर जाता है आदमी।
कोई देता जख्म; कोई आराम आदमी,
क्योंकि इंसानियत और हैवानियत का नाम है
आदमी।
कुछ तो रोशन करते हैं जिंदगी को आदमी,
बदनुमा भी बनाते हैं जिंदगी को आदमी।
हिटलर, डॉन, माफिया डाकू हैं आदमी,
तो आजाद, बापू और कलाम भी हैं आदमी।

Saturday, June 12, 2010

बड़े वर्ग की दरकार है सामूहिक विवाह



कई लड़कियों की शादी करने में तो पिता की कमर ही टूट जाती है। विवाह के लिए लिया गया कर्ज बाकी की जिंदगी को भी दुश्वार कर देता है। इन सब स्थिति से बचने के लिए जरूरतमंद परिवार की कन्याओं के खर्च बगैर विवाह के लिए सामाजिक संस्थाओं की भूमिका सराहनीय हो जाती है। कुछ वैवाहिक संस्थाएं योग्य वर-वधू हेतु बायोडाटा एक्सचेंज करते हैं।

कहा गया है कि किसी कमजोर, जरूरतमंद या असहाय परिवार की कन्या का विवाह करानें से बढ़कर कोई अन्य पुनीत कार्य नहीं है। इस बात का प्रमाण है कि आज हर छोटे-बड़े जिलों, कस्बों या शहरों में कई वैवाहिक संस्थाएं मिलजुकर सैकड़ों कन्याओं के हाथ सामूहिक विवाह के माध्यम से पीले कर रही हैं। जिनमें से कुछ सर्वजातीय वैवाहिक समितियां तथा कई सजातीय संस्थाएं क्रमश: सभी जातियों के तथा अपनी जाति के सामूहिक विवाह में सक्रिय हैं। ये संस्थाएं विवाह जैसे सामाजिक पुण्य कार्य में अपनी सराहनीय भूमिका निभाती हैं। प्रशंसनीय बात यह भी है कि अब इन सामूहिक वैवाहिक कार्यक्रमों में अपेक्षाकृत अच्छी संख्या देखी जा रही है। इन संस्थाओं के बैनरतले शादियां कराने पर समय की बर्बादी, दान-दहेज व फिजूलखर्ची जैसी कुरीतियों से भी समाज को मुक्ति मिल सकती है। लेकिन, इसके लिए जरूरी है कि समाज का बड़ा वर्ग भी इसमें सम्मिलित हो ताकि कोई भी जरूरतमंद व कमजोर परिवार अपनी नजरों में हीन व हास का पात्र न महसूस करे। आज शादी-विवाह समाराहों में खर्च होने वाला अनाप-शनाप पैसा बिल्कुल पानी की तरह बहाया जाता है, जो कहीं-कहीं पर अप्रासंगिक सा लगता है। यह अनावश्यक खर्च फिजूलखर्च की श्रेणी में ही गिना जाता है। आज योग्य वर को पाने के लिए भी दान-दहेज के रास्ते पर चलने से भी नहीं बचा जा सकता है। दहेज के सामान की मांग व मोटी रकम दिये बगैर अच्छा जीवन साथी मिलनाआसान नहीं होता। सबसे पहले अच्छे दूल्हे की बड़ी कीमत होती है, कीमत को चुकाने की स्थिति में ही शादी की बात आगे बढ़ती है। नहीं तो, बात खत्म। अपनी जेब के हिसाब से दूल्हा ढूंढऩा पड़ता है क्योंकि आज दूल्हे खरीदे जाते हैं। कई जगह बड़े या सक्षम लोग अपनी मर्जी से लड़के पक्ष को दान-दहेज से लाद देते हैं। ऐसे लोग समाज में अपनी हैसियत का उच्च प्रदर्शन करते हैं, जिसमें अपना स्टेटस व रुतबा दिखाना भी खास मकसद होता है। अक्सर ऐसा दिखावटी प्रदर्शन विभिन्न वर्गों के बीच प्रतियोगिता का रूप भी ले लेता है। फिर किसी की बराबरी करने के लिए शादी समारोह में अपना भी रुतबा दिखाने के लिए आम आदमी कर्जदार भी बन जाता है। क्योंकि कई लड़कियों की शादी करने में तो पिता की कमर ही टूट जाती है, इस प्रकार विवाह के लिए लिया गया कर्ज बाकी की जिंदगी को भी दुश्वार कर देता है। इन सब स्थिति से बचने के लिए जरूरतमंद परिवार की कन्याओं के खर्च बगैर विवाह के लिए ऐसी संस्थाओं की भूमिका सराहनीय हो जाती है। कुछ वैवाहिक संस्थाएं योग्य वर-वधू हेतु परफेक्ट पेयर मैचिंग के लिए बायोडाटा एक्सचेंज करने का काम भी सुलभ कराती हैं। अपनी मनपसंद दूल्हा-दुल्हन का चयन होने तथा रिश्ता तय हो जाने से विवाह तक की पूरी जिम्मेदारी वैवाहिक संस्था की होती है। सामूहिक विवाह कराने वाले संगठन नव विवाहित जोड़ों को गुजर-बसर करने के लिए घर-गृहस्थी का जरूरी सामान विदाई के समय उपहार स्वरूप भी देते हैं। इतना सब होने पर भी सामूहिक विवाह कराने वाली संस्थाएं प्रचार व प्रसार के जरिये ऐसे परिवारों की खोजबीन में लगी रहती हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा जरूरतमंद परिवारों की कन्याओं का विवाह कराया जा सके। परंतु, देखने में यह भी आता है कि अपनी लड़की की शादी आदि के लिए व्यवस्था-इंतजाम आदि न कर पाने पर भी कुछ परिवार सामूहिक विवाह में आने से कतराते है। इसका एक दूसरा पहलू भी हमारा समाज है, क्योंकि इन्हें समाज का डर भी सताता है कि अपने लोगों के बीच कहीं हंसी की बात न हो जाये। हमारे समाज की विडम्बना भरी विचारधारा यह भी है कि सामूहिक विवाह केवल निम्न वर्गों के लिए ही उपयुक्त है। क्योंकि जिनके पास शादी आदि के लिए खर्च की व्यवस्था नहीं है, वही लोग इसका लाभ लेने के योग्य हैं। जबकि सच यह है कि किसी समाज का निर्माण सभी वर्गों के एकसाथ समाहित होने पर ही होता है। दिखता यह है कि ऐसे सामूहिक सामाजिक विवाह समारोहों में बड़े वर्ग की हिस्सेदारी व सहभागिता नगण्य सी है। मध्यम वर्ग के लोगों के आयोजनों में आने से निश्चित तौर पर जरूरतमंद परिवारों की संख्या में और भी इजाफा होगा। सजातीय वैवाहिक संस्था से जहां पर जाति-विशेष को बल मिलता है, वहीं पर सर्वजातीय विवाह कराने से समाज की ताकत भी मजबूत होती है। सामूहिक विवाह का फायदा यह भी है कि इससे अनावश्यक खर्च की बचत के साथ दबावग्रस्त दान-दहेज देने की मजबूरी से भी छुटकारा मिल सकता है। जहां पर शादियों में दहेज एक अभिशाप है वहीं पर विवाह आदि पर किया गया अनाप-शनाप खर्च समाज के विभिन्न वर्गों के बीच हीन भावना भी पैदा करता है। सामूहिक विवाह को बढ़ावा देने तथा अन्य वर्गों को जागरूक करने की हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी भी बनती है। सामूहिक विवाह समाज में सामाजिक एकता व जागरुकता लाता है।

Thursday, June 3, 2010

पैसा-पैसा करते हैं, सब पैसे पर ही मरते हैं


हर व्यक्ति केवल पैसा ही पैसा मांग रहा है, जिसमें पारिवारिक रिश्ते, सगे-संबंधी व दोस्ती-यारी सभी रिश्तों पर पैसा शुरू से ही भारी रहा है। परंतु, अब रिश्ते खासतौर पर पैसे के तराजू से ही तोले जाते हैं। जिसके पास पैसा है, उसके पास व साथ लोगों की भीड़ होती है। जिसके पास पैसे की कमी है, वह अकेला व तन्हा देखा जाता है।

पैसे की जरूरत हर एक को है, और पैसे की आवश्यकता भी हर जगह है। बगैर पैसे के कोई भी काम लगभग नामुमकिन है। इस बात का प्रभाव हर जगह दिखाई देता है। आज के इस अर्थयुग व गलाकाट प्रतियोगी माहौल में पैसा कमाना आसान नहीं रहा। पैसा कमाने में आज तमाम जोखिम हैं। परंतु फिर भी ज्यादातर लोग अधिक से अधिक पैसा इकट्ठा करना चाहते हैं। इसी उद्देश्य के लिए व पैसे की ही खातिर दिनरात मेहनत करते तथा पैसे के पीछे भागते नजर आते हैं या फिर पैसे का अत्यधिक मोह इन्हें अपने पीछे भगाता रहता है। आज पैसा जिंदगी की बुनियादी जरूरतों के लिए सर्वप्रमुख देखा जाता है। मनुष्य के पास आय के साधन सीमित हैं, परंतु व्यय में बहुत अधिक असीमितता दिखाई पड़ती है। आय की तुलना में खर्च का प्रतिशत काफी बढ़ता जा रहा है। जिसका कारण निश्चित रूप से आपसी दिखावे की प्रतियोगिता भी है। अक्सर असीमित खर्च करने की प्रवृत्ति दूसरे को दिखाने के लिए विशेष तौर पर होती है। और इस तरह अपना स्टेटस सिंबल बनाने व दिखाने के लिए काफी हद तक फिजूलखर्च व अपव्यय भी किया जाता है। जो कि किसी सामान्य आय वाले परिवार के मासिक बजट को गड़बड़ा देता है। सीधी बात यह है कि इस दिखावे की दुनिया में लोग 'पॉम्प एंड शो' की प्रवृत्ति इस कदर अपनाते हैं कि अपनी असली हैसियत से कहीं आगे बढ़ चढ़कर खर्च करते हैं, जिसका असर यह होता है कि लोगों के पांव चादर के बाहर देखे जाते हैं। फिर बात इतने पर नहीं रुकती, और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए लोन व ब्याज पर पैसे लेकर आदमी कर्जदार होने पर मजबूर हो जाता है। पूरे मसले की जड़ है आमदनी अठ्ठनी, खर्चा रुपया। एक सर्वे की रिपोर्ट यह बताती है कि एक आम आदमी के खर्च करने की सीमा बढ़ गई है। इसी के तहत अब खरीदारी भी फैशन का रूप ले चुकी है। आम आदमी की जेब में अब पैसे कम क्रेडिट कार्ड ज्यादा मिलते हैं। अपनी जेब के अलावा लोन, ब्याज व क्रेडिट कार्ड आदि से खरीदारी करने को रुतबे की तरह से देखा जाता है। पैसे को कैसे भी हथियाना आज लोगों का परम लक्ष्य बन चुका है। वहीं कुछ लोग जल्दी से जल्दी अमीर व पैसा बनाने के लिए गलत काम करने में भी नहीं हिचकिचाते हैं। किसी को नुकसान पहुंचा कर भी अपना काम बनाना या पैसा ऐंठना ही एक मात्र मकसद होता है। पैसा ही कहीं-कहीं झगड़े व फसाद की जड़ भी बन जाता है। जिसके लिए लोग एक दूसरे को मरने-मारने पर भी मजबूर हो जाते हैं। पैसे की मोह माया लोगों पर इस कदर हावी है कि अच्छा-बुरा कुछ दिखाई नहीं देता है, उद्देश्य केवल एक होता है कि किसी भी तरह पैसा आना चाहिए। पैसे का बोलबाला हर तरफ नजर आता है। हर व्यक्ति केवल पैसा ही पैसा मांग रहा है, जिसमें पारिवारिक रिश्ते, सगे-संबंधी व दोस्ती-यारी सभी रिश्तों पर पैसा शुरू से ही भारी रहा है। परंतु, अब रिश्ते खासतौर पर पैसे के तराजू से ही तोले जाते हैं। जिसके पास पैसा है, उसके पास व साथ लोगों की भीड़ होती है। जिसके पास पैसे की कमी है, वह अकेला व तन्हा देखा जाता है, उसको खास तव्वजो नहीं मिल पाती। शायद इसीलिए लोग अपनी पहचान बनाने को पैसा कमाने के लिए बहुत मेहनत-मशक्कत करते हैं। बहुत से लोग दिन के १८-१८ घंटे तक फील्ड व ऑफिस में काम करते हैं ताकि अधिक से अधिक पैसा कमाया जा सके। जिसका सीधे तौर पर प्रतिफल यह होता है कि अपने परिवार के लिए बड़ी मुश्किल से समय दे पाते हैं। यह पैसा ही है कि जिसको कमाने के लिए लोग अपना घर, गांव व देश से दूर हो जाते हैं, या अपने घर-परिवार व लोगों की याद आने पर भी नहीं पहुंच पाते या साथ में रह पाते हैं। कुल मिलाकर पैसे का चुम्बकीय आकर्षण ही लोगों को इस कदर अपनी ओर खींचता है कि वह अपनों से दूर होता जाता है। पैसा दोस्ती बनाता भी है, और आपस में दुश्मनी भी पैसा ही कराता है। शेक्सपियर नें एक जगह लिखा भी है 'मनी लूजेज इटसेल्फ, एंड फ्रेंडशिप ऑल्सो।Ó मतलब पैसा और दोस्ती दोनों एक साथ खत्म हो जाती है जब पैसे को अधिक महत्व दिया जाता है। किसी को जरूरत के समय पर आर्थिक मदद करना मानव स्वभाव व नैतिकता भी बताई गई है। परंतु देखने में कम ही दिखाई पड़ती है। पैसा बहुत तेज भागता है, उसकी चाल बहुत तेज होती है। इसलिए पैसे को पकडऩे के लिए आदमी पैसे की चाल से अधिक तेज भागना चाह रहा है। आज देश में प्रतिव्यक्ति आय का औसत ग्राफ बढ़ा है। यह सच है कि आम आदमी की आय बढ़ी है, परंतु खर्च उससे कई गुना अधिक है। बजट से बाहर का खर्च पूरे आय-व्यय का संतुलन बिगाड़ देता है, जो आगे चलकर जिंदगी के लिए काफी जोखिम भरा होता है।

हैलो! मैं आपकी आत्मा हूं मेरी आवाज सुनो


पूरे समय अगर हम सचेत व सजग रहें तो हम पाते हैं कि हमारे अंदर से एक आवाज आती है जो हमें पुकारती है। उसकी आवाज में अच्छे कार्यों को करने की प्रेरणा होती है व बुरे काम को करने से रोकती है तथा स्पष्ट रूप से मना करती है। हम महसूस करते हैं कि एक पल में वह अपना आदेश देती है। जिंदगी का यह क्षण बहुत नाजुक होता है, फैसला लेने की आवश्यकता होती है। एक निर्णय में जिंदगी बदल सकती है।

आज मोबाइल व फोन के बहुत यूजर हैं, ज्यादातर लोगों के पास फोन की सुविधा है। जिसमें दिनभर तमाम कॉलें आती हैंै। घंटी बजती है, फोन उठाकर बातचीत होती है। हम अपने फोन को हमेशा अपने नजदीक रखते हैं ताकि आने वाली किसी कॉल की घंटी हमें आसानी से सुनाई पड़ सके। परंतु, क्या हमने कभी सोचा या गौर किया है कि हमारी आत्मा भी हमें बीच-बीच में कॉल करती है, हमें पुकारती है। उसके बुलाने की घंटी ऐसी होती है कि हम सजग रहें तभी हम उस पर ध्यान दे पाते हैं, नहीं तो उसकी कॉल मिस्ड कॉल बनकर रह जाती है। एक अनुत्तरित कॉल हो जाती है, इस तरह से हमारे जीवन के लिए अन्तर्रात्मा की एक जरूरी व महात्वपूर्ण कॉल छूट जाती है। हमारी आत्मा बिल्कुल ठीक समय पर अपना संदेश हमें भेजती है। यह हमारी आत्मा की तरफ से आने वाले एसएमएस होते हैं, जिनको ध्यान से पढऩा बहुत जरूरी होता है और उससे अधिक आवश्यक होता है उस पर अमल करना। सिर्फ ढेर लगाने से या दूसरों को मैसेज फॉरवर्ड करने मात्र से अपना फायदा नहीं हो सकता है। जिस तरह से तमाम फोन कंपनियां हरएक छोटे-बड़े धार्मिक त्योहार, राष्ट्रीय पर्व या अन्य किसी अवसर पर एसएमएस भेजा करती हैं। उसी प्रकार हमारे शरीर के अंदर की आत्मा भी हमें हर एक छोटी-बड़ी सुख या दुख की घड़ी में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से अपने मैसेज भेजती है। एक झटके में अनुभव हो जाता है कि हमें अचानक कुछ नया मिल गया। समय रहते हमने इस पर अमल कर लिया, तो उस समय अविस्मरणीय अनुभूति के स्वामी हो जाते हैं। पूरे समय अगर हम सचेत व सजग रहें तो हम पाते हैं कि हमारे अंदर से एक आवाज आती है जो हमें पुकारती है। उसकी आवाज में अच्छे कार्यों को करने की प्रेरणा होती है व बुरे काम को करने से रोकती है तथा स्पष्ट रूप से मना करती है। हम महसूस करते हैं कि एक पल में वह अपना आदेश देती है। जिंदगी का यह क्षण बहुत नाजुक होता है, फैसला लेने की तुरंत आवश्यकता होती है। एक निर्णय में ही पूरी जिंदगी बदल सकती है व सफल हो जाती है। किसी भी तरह का टालमटोल करने पर हमको कोई फायदा नहीं मिलता। अब यह हमारे ऊपर है कि हम उसकी कॉल को जरूरी मानकर अक्षरश रिसीव करते हैं या नकार तो नहीं देते हैं। वैसे इसमें भी कोई दोराय नहीं है कि आज इंसान इस कदर व्यस्त होता जा रहा है कि एक पल भी अपने लिए नहीं रख पा रहा है कि वह स्वयं से बातचीत कर सके। बाहरी लोगों से खूब बात होती है। हर वक्त इंगेज रहते हैं पर स्वयं की अपनी आत्मा से कनेक्टीविटी नहीं बन पाती। अगर कोई बात सुनाई भी पड़ी, तो हिम्मत नहीं बन पाती कि उस बात का पालन व अनुकरण किया जाय। रास्ता कठिन लगता है, प्राय: आसान वाला रास्ता चुन लिया जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि अगर उसके बताये गये रास्ते पर हम चलें तो आगे बढऩे की शक्ति भी वही देता है, फिर अच्छे बुरे की सब जिम्मेदारी उसी की बन जाती है। वही सब कुछ संभालता है। वह अपनी आवाज में कहता है कि केवल तुम इतना करो, बाकी सब मैं करूंगा। केवल पहली बार साहस दिखाने की आवश्यकता है, फिर इसकी भी कमी नहीं रहती। इसके बाद तमाम ऊर्जा व असीम शक्ति भी हम अपने अंदर महसूस करते हैं। जब तक अंदर से आने वाली आवाज को स्वीकार नहीं किया जाता, केवल तब तक वह कमजोर लगती है। एकबार भरोसा रखकर उसपर काम करने से ही उसकी असली शक्ति व मजबूती को आंका जा सकता है तथा अपने अंदर नई ताकत का तर्जुबा होता है। प्राय: मोबाइल पर मिस्ड कॉल को डायल कर छूटी हुई कॉलों पर बात करी जाती है। वहीं पर आत्मा की अनसुनी कॉल को फिर से सुनने के लिए चिंतन आवश्यक है। जिससे उसके द्वारा भेजे गये सभी संदेश व बातें स्पष्ट हो जाती हैं। चिंतन करने से किसी भी प्रकार की दुविधा व असमंजस की स्थिति स्वत: ही खत्म हो जाती है चिंतन का अभ्यास हमें आत्मा की स्पष्ट छवि महसूस कराता है तथा एक सही मार्ग दिखलाई पड़ जाता है। स्वयं के जागृत रहने से आत्मा भी जागी रहती है और आत्मा का सजग रूप ही परमात्मा है। सभी के शरीर में आत्मा का वास है। शारीरिक संचेतना व मन की निश्छलता से ही सजग आत्मा के साथ परमात्मा का भी सानिध्य प्राप्त हो जाता है। आत्मा एक जागृत प्रहरी का भी काम करती है। हमें जगाती है, सचेत करती है। हमें भटकाव से भी बचाती है। इसके समय पर बजने वाले अलार्म की आवाज को बहुत तवज्जो देने की आवश्यकता होती है।

सर्वशक्तिमान है...क्योंकि यह समय है



समय का चक्र पूरा होने पर ही किसी बच्चे का जन्म होता है, फिर किसी का वक्त आ जाने पर ही उसकी मृत्यु भी निश्चित ही होती है। समय के पास सबकुछ निश्चित है। समय की अलग सत्ता है, जिसपर किसी की विजय नहीं होती। समय को जीता नहीं जा सकता, केवल समय के साथ जिया जा सकता है।

क्त, यानि की समय। कल और आज के बीच वक्त। दिन और रात के बीच भी यही वक्त। यह समय ही है जो भूत और भविष्य के बीच में बना रहता है। हर वक्त बदलता रहता है यह समय। वक्त पूरी तरह से चलायमान है। यह किसी के वश में नहीं, और इस पर किसी का अंकुश भी नहीं। सभी पर राज करता है यह समय। कल जो था, वह आज नहीं। आज जो है, वह कल नहीं होगा। एकबार समय जाकर वापिस भी नहीं लौट पाता। हर एक तारीख इतिहास बनती जाती है और हर एक घटनाक्रम यादों के पन्नों में दर्ज होता जाता है। समय के इस भागते पहिए को रोकना भी किसी के बस की बात नहीं। छोटे से छोटा व बड़े से बड़ा व्यक्ति भी समय के आगे बौना दिखाई देता है। इसी समय के चक्र ने राजा, मंत्री व बड़े रसूखवालों के अहं को भी अपने पैरों पर ला दिया। यह वही समय है जिसने किसी को सड़क से महल तक पहुंचा दिया तो किसी का सिंहासन छीनकर देश निकाला दे दिया। इसलिए समय को समझना भी बहुत जरूरी है। समय जितना बलवान है, दूसरा कोई नहीं। अपने जमाने का सबसे ताकतवर इंसान भी समय के चलते एक समय बूढ़ा व असहाय हो जाता है। किसी वक्त का बलिष्ठ आदमी भी एक समय कमजोर व बेजान हो जाता है। दुनिया का सबसे खूबसूरत इंसान, जिसकी सुंदरता का कोई भी सानी नहीं होता। जिसकी अद्वितीय खूबसूरती की कोई प्रतिद्वंद्विता नहीं होती। समय के फेर के साथ यह भी ऐसी नहीं रहती व दिखती है। समय का असर इस पर भी दिखाई देता है। सुंदरता भी समय के साथ ढलती जाती है। यही समय सुंदर त्वचा व आकर्षक काया को झुर्रीदार व बेजान कर देता है। एक समय पर अपनी किस्मत पर इतराने व फूले न समाने वाले की भी तकदीर इसी समय के चलते ही ऐसी करवट लेती है कि एक ही झटके में सबकुछ बदल जाता है। सबकुछ अपने एक इशारे पर नचाने वाला भी वक्त के किसी झंझावात में फंसकर चकरघिन्नी बनकर खुद नाचने पर मजबूर हो जाता है। समय अपना खिलंदड़ खेल हर वक्त व हर किसी के साथ हमेशा खेला करता है। कोई व्यक्ति समय के बहुत आगे निकल जाना चाहता है, तब स्थिति यह भी हो जाती है कि उसे कभी-कभी समय के काफी पीछे भी देखा जाता है। जीवन में भविष्य की योजनाएं बनाना व उसके अनुरूप सफलता पाने के लिए तो सभी सदैव प्रयासरत रहते हैं, परंतु सच यह है कि जब तक किसी काम होने का समय नहीं आ जाता, तब तक वह काम नहीं हो पाता। हकीकत भी यही है कि जब-जब जो भी होना है, वह तब ही होता है। किसी के भी जीवन में जिंदगी का हर दृश्य भविष्य के समय में छिपा होता है। समय-समय पर हर किसी की जिंदगी परत-दर-परत के रूप में सामने आती जाती है। और इसी समय से ही जीवन में तमाम उतार-चढ़ाव भी सामने देखे जाते हैं। समय की ताकत को समझना बेहद जरूरी है क्योंकि वक्त की बादशाहत के आगे किसी और की तनिक भी नहीं चल पाती। समय के पास ही सबकुछ बदल देने की प्रबल क्षमता होती है। उम्र का बदलाव भी समय के पास है, मौसम भी समय के पहिए के साथ बदल जाता है। आज अगर किसी के पास परेशानी है तथा वह झंझटों से सामना कर रहा है, तो वक्त के बदलते ही उसकी परिस्थितियों में भी बदलाव देखा जाना संभव है। एक पल का गम कब दूसरे क्षण खुशी के ठहाकों में बदल जाय, किसी को पता नहीं। राम को भी जब राजसिंहासन मिलने वाला था तब समय के चक्कर में ही राज-पाठ छोड़कर चौदह सालों तक जंगलों में भटकना पड़ा। जब इसी समय नें फिर करवट बदली तो एकबार फिर उन्हें राजगद्दी वापिस मिली। समय भटकाता भी है। जब तक किसी भी चीज का समय पूरा नहीं हो जाता, वह नहीं होती। समय का चक्र पूरा होने पर ही किसी बच्चे का जन्म होता है, फिर किसी का वक्त आ जाने पर ही उसकी मृत्यु भी निश्चित ही होती है। समय के पास सबकुछ निश्चित है। समय की अलग सत्ता है, जिसपर किसी की विजय नहीं होती। समय को जीता नहीं जा सकता, केवल समय के साथ जिया जा सकता है। वक्त को जिसके साथ जो कुछ करना होता है, वह करता है। समय के साथ किसी का बड़बोलापन भी नहीं चल पाता। किसी पल भी वक्त किसी का अभिमान चकनाचूर कर सकता है, उसे सफलता के आसमान से जमीन की गर्त में मिला सकता है। एकपल में राजा को रंक व गरीब व्यक्ति को भी पैसे में खेलते देखा जा सकता है। इसलिए समय को नजरअंदाज करना किसी के हित में नहीं है। वक्त की परवाह करना बेहद आवश्यक है क्योंकि समय किसी के लिए भी नहीं रुकता और न ही किसी के साथ स्थायी तौर पर ठहर सकता है। जाने-अनजाने समय की अवहेलना व उपेक्षा करना ठीक नहीं। क्योंकि कोई रहे या न रहे, कुछ रहे न रहे लेकिन हर वक्त रहता है।

स्वस्थ दिमाग, तंदरुस्त शरीर व संतुलित रसायन


शारीरिक बीमारियों की मूल जड़ हमारा पेट है, इसमें किसी रसायन की अवस्था ठीक न होने से कई बीमारियों का जन्म होता है। वहीं, मानसिक बीमारियों की खास वजह हमारा मस्तिष्क व दिमाग होता है। यहां के रसायनों की असंतुलित अवस्था से ही मन घबराने लगता है, मन किसी काम में नहीं लगता है, एकाएक मन चिड़चिड़ा होता जाता है।

हमारा शरीर तमाम प्रकार के रसायनों से भरा पड़ा है। शरीर पूरी तरह से एक रासायनिक प्रयोगशाला की तरह से काम करता है। जिसमें हर वक्त कुछ न कुछ रासायनिक समीकरण बना व बदला करते हैं। इन्हीं रसायनों के बदलने व मिश्रण से ही होने वाले परिवर्तन हमारे भारीर, दिल व दिमाग में भी दिखलाई पड़ते हैं। इनके होने से ही हमारा शरीर मुस्कराता है, रोता है व दिल गुदगुदाता है। और इनमें किसी भी प्रकार का असंतुलन होने पर ही शरीर व दिमाग की तमाम बीमारियां जैसे तनाव, अवसाद, चिड़चिड़ापन, शारीरिक निष्क्रियता व वैचारिक नकारात्मकता शरीर पर हावी होना शुरू हो जाती है। ध्यान की नियमित क्रिया तथा योग व प्राणायाम के निरंतर अभ्यास से ही इन रासायनिक गड़बडिय़ों को संतुलित व दुरस्त रखा जा सकता है। जिस प्रकार से शरीर में किसी भी प्रकार की खून की अशुद्धता होने पर शरीर पर तमाम प्रकार के दाने, फोड़े-फुंसी या चर्म रोग जैसी बीमारियां देखी जाती हैं। किसी रसायन की गड़बड़ी से ही रक्त में अशुद्धता हो जाती है। फिर ब्लड को प्योरीफाई करने के लिए दवाओं व सिरप आदि का प्रयोग किया जाता है। वैसे भी शरीर में होने वाली और भी बीमारियां इस बात की द्योतक होती हैं कि शरीर में फलां केमिकल का रियेक्शन सही नहीं है। अर्थात असंतुलित रसायनों की क्रियाओं से ही तमाम बीमारियों के लक्षण दिखाई देते हैं, फिर दवाओं, इंजेक्शन या टॉनिक से इन गड़बड़ रसायनों को दुरस्त किया जाता है। इसी प्रकार से दिमाग के रसायनों के गड़बड़ाने से ही कई प्रकार की मानसिक बीमारियां घेर लेती हैं। शारीरिक बीमारियों की मूल जड़ हमारा पेट या उदर होता है, इसमें किसी रसायन की अवस्था ठीक न होने से कई बीमारियों का जन्म होता है। वहीं, मानसिक बीमारियों की खास वजह हमारा मस्तिष्क व दिमाग होता है। यहां के रसायनों की असंतुलित अवस्था से ही मन घबराने लगता है, मन किसी काम में नहीं लगता है, एकाएक मन चिड़चिड़ा होता जाता है। इसी के साथ शरीर में थकावट व नकारात्मक विचार आने शुरू हो जाते हैं। ये सभी वस्तुत: बीमारी नहीं बल्कि बीमार या कमजोर रसायन के लक्षण मात्र होते हैं। जिसको दवाओं या थेरेपी से ठीक किया जाता है, इनका उपचार होता जिसकी रोकथाम के लिए एंटीबायटिक भी दी जाती है। यह तो इन सब असंतुलित रसायनों का इलाज हुआ। इन सबसे बचने के लिए परहेज भी आवश्यक होता है। कहा गया है कि 'प्रिवेंशन इज बेटर दैन क्योरÓ। अगर इस पर भरोसा किया जाय तो हमारे पास ऐसी चमत्कारिक व अद्भुत शक्तियां भी हैं जिनके प्रयोग से इन व्याधियों से दूर रहा जा सकता है। योग और प्राणायाम का नियमित अभ्यास शरीर में होने वाली तमाम रासायनिक गड़बडिय़ों से बचाव तो करता ही है तथा साथ ही आने वाली अनेक बीमारियों व परेशानियों को हमसे दूर रखता है। वहीं ध्यान का निरंतर अभ्यास हमें मानसिक बीमारियों से बचाता है। ध्यान व योग हमारे देश की प्राकृतिक व पुरातन विधियां हैं जो आज के समय में भी बहुत कारगर हैं। इन दोनों के रोजाना अभ्यास से हम शरीर व मस्तिष्क दोनों को असीमित लाभ पहुंचा सकते हैं। ध्यान व योग हर उम्र के लिए फायदेमंद हैं। जरूरी नहीं है कि इनका उपयोग केवल बीमारी अवस्था में ही किया जाय। ये बीमारियों का बहुत लाजवाब परहेज है, इनसे भारीर व मस्तिष्क की सभी रासायनिक क्रियाएं सामान्य रूप से काम करती है। आजकल जहां इनका उपयोग बढ़ती उम्र के लोगों में देखा जा रहा है, वहीं छोटे बच्चों क मस्तिष्क व शरीर के विकास में इनका अहम व आधारभूत योगदान हो सकता है। बशर्ते, हम इन पर पूरा भरोसा करके अपनी दैनिक दिनचर्या में शामिल करें। आज डिप्रेशन बढ़ती उम्र के लोगों के साथ छोटी उम्र के बच्चे, विद्यार्थी, घरेलू व कामकाजी महिलाएं या पुरुष लगभग सभी हैं। कारण भी है क्योंकि आज की भागमभाग लाइफ स्टाइल में बच्चों को पढ़ाई या कॅरियर का दबाव, नौकरी या रोजगार में बढ़ती प्रतिद्वंद्विता से होता तनाव, घर का कामकाज व सभी प्रकार की जिम्मेदारियों के निर्वहन में शरीर व मस्तिष्क दोनों का प्रयोग एकसाथ करते हैं। और देखा जाता है कि हम शरीर की देखभाल के लिए तो खाने-पीने की स्वास्थ्यवर्धक पोशक तत्वों का उपभोग करते हैं, अपने खानपान में किसी प्रकार की कोताही नहीं बरतते, तो फिर अपने दिमाग के साथ इतना सौतेलापन आखिर क्यों दिखाते हैं? हम गाड़ी में पेट्रोल भर देते हैं, तो गाड़ी चलती है। इसके मैकेनिकल पाट्र्स भी अपना सही काम करते रहें इसके लिए जरूरी है कि समय-समय पर चेक-अप व सर्विस भी हो।

Friday, May 7, 2010

उनको मानें, उनकी भी मानें-तब बनेगी बात



महापुरुष को अपना आदर्श मानना जीवन में किसी प्रेरणास्रोत की तरह से होता है। लेकिन, इसके साथ जरूरी यह भी है कि इनको मानने के साथ इनकी बताई गई बातें व सीख को भी इसी ढंग से मानें। प्राय: देखने में यह आता है कि गुरुओं को मानने वाले तो बहुत लोग है, परंतु प्रायोगिक तौर पर उनका अनुसरण नदारद मिलता है।


आज लोगों को सम्मान देने व मानने वालों की तादात में कोई कमी नहीं है। कोई कहता है कि मैं फलां गुरु को मानता हूं। कोई अपना आध्यात्मिक गुरु बना लेता है तथा उसको अपने जीवन का सुधारक मानने लगता है। कोई किसी महापुरुष को अपना आर्दश बना लेता है और बताता है कि यही मेरे जीवन के प्रेरणास्रोत हैं। कोई अपने माता-पिता का सम्मान करता है तथा इनको बहुत मानता है। परंतु, इन सबके बीच यह बात किसी विडंबना से कम नहीं लगती कि एक तरफ तो लोग अपने जीवन में किसी न किसी को महत्व देते हैं तथा इनको मानने की सार्वजनिक घोषणा करते रहते हैं और दूसरी ओर व्यक्तिगत तौर पर यही लोग इनकी ही कही हुई बातों व सिद्धांतों को नही मानते हैं, उनका अमल नहीं करते हैं। बाहर से तो हम सीखने के प्रयास में रहते हैं, लेकिन अंदर से लगभग खाली ही रहते हैं। जिंदगी में किसी का सम्मान करना या मानना अच्छा सरोकार है। माता-पिता, गुरु, आध्यात्मिक गुरु या किसी महापुरुष को अपना आदर्श मानना जीवन में किसी प्रेरणास्रोत की तरह से होता है। लेकिन, इसके साथ जरूरी यह भी है कि इनको मानने के साथ इनकी बताई गई बातें व सीख को भी इसी ढंग से मानें। प्राय: देखने में यह आता है कि गुरुओं को मानने में तो बहुत लोग है, परंतु प्रायोगिक तौर पर इनका अनुकरण नदारद मिलता है। यह सच है कि हम लोगों को तो खूब मानते हैं परंतु सच्चाई यह भी है कि उनकी बिल्कुल नहीं मानते हैं। सार्वजनिक रूप से उनको स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं होती है। लेकिन, व्यावहारिक जिंदगी की छोटी-बड़ी बातों के समय पर इनकी कही हुई बातों को दरकिनार कर देते हैं। लगभग भुला देते हैं। और सब कुछ अपने ढंग से करते व समझते हैं। जिंदगी में किसी को महत्व देने या मानने का मतलब ही यही है कि अब हमने उसे अपना गुरु बना लिया। तब फिर उसके बताये गये मार्ग का अनुसरण व अनुकरण भी तदैव ही करें तभी हमारी मंजिल हमें आसानी से मिल सकती है। मान लिया जाये कि हम कहीं जाना चाहते हैं और अचानक रास्ता भूल जाते हैं। फिर हमें आस-पास किसी से रास्ता पूछना पड़ता है। तब हम क्या करते हैं-उसके बताये मार्ग पर चलते हैं और अपनी मंजिल तक पहुंचते हैं। अगर बताये गये मोड़ पर हम नहीं मुड़ते, उसकी नहीं मानते। तो क्या मंजिल मिलना संभव होता? बात यही है कि हमसे बुद्धिमान, अनुभवी व जानकार जिसको भी हमने अपना मसीहा खुद अपनी पसंद से चुना उसमें किसी की कोई जोर जबरदस्ती भी नहीं थी फिर उसको मानने के साथ उसकी कही व बताई गई बातों को मानने में फेरबदल देखने को मिलता है। जबकि सच्चाई व फायदेवाली बात तभी है, जब हम गुरुजनों द्वारा बताये व सिखाये गये मार्ग का भलीभांति अनुसरण करते हैं। सफल होने के लिए उनकी भी माननी पड़ेगी। सिर्फ उनको मानने से काम नहीं चलने वाला है। केवल बाहर ही बाहर किसी को स्वीकार कर लेने से कोई बात नहीं बनेगी, जब तक इसका प्रयोग अंदर से नहीं किया जाता। फिर इन सबको अपनी आदत व प्रकृति में आत्मसात कर लिया जाय। क्योंकि सार्वजनिक दिखावे से मन में बहुत अधिक बदलाव नहीं आ सकेगा, मन विचलित होगा और न ही शांति प्राप्त होगी। यह तो दोतरफा जीवन होगा कि उनको तो बहुत महत्व देते हैं लेकिन उनकी बातों व सीखों को ज्यादा मूल्य नहीं देते हंै। उनकी कही हुई बातों व सीखों को अपने दैनिक जीवन के आचरण व लोकाचार मेें ढालने पर ही हम असलियत में उनसे जुड़ सकेंगे तथा सच्चे अर्थों में उन्हें मानेंगे।
समझाने व सिखाने वालों की कोई कमी नहीं है, केवल कमी है तो इन पर अमल करने वालों की। जिस किसी ने भी सच कही हुई बातों का अपने जीवन में अक्षरश: पालन कर लिया वह सचमुच जिंदगी में सफल हुआ है। फिर उसे किसी को अपना गुरु बताने या मानने की सार्वजनिक घोषणा करने की भी कोई आवश्यकता नहीं होती है। सबकुछ अपने आप गुरु की प्रतिछाया के रूप में प्रदर्शित हो जाता है। रामायण, बाइबिल, गीता, कुरान, अनेक महापुरुषों व देवपुरुषों की सजग वाणी हमें क्या-क्या सिखाती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि हम इन्हें नहीं मानते हैं। लेकिन इसके बाद की जिम्मेदारी हमारे ऊपर आ जाती है कि हम इनसे कितना सीखते व अमल कर पाते हैं। गांधी जी के विचारों को मानने वालों की कोई कमी नहीं, लेकिन गांधी जी के विचारों को अपने जीवन में ढालनें वालों की कमी है। पुरुषोत्तम राम के सिद्धांतों व कर्मों को अपने जीवन मे अमल करनें की आवश्यकता है।