Friday, October 1, 2010

ऊपर वाले को भी थैंक्यू या सॉरी बोला क्या?


आज हर तरफ व्यक्ति बहुत मैनरफुल दिखाई पड़ता है। बात-बात पर थैंक्यू या सॉरी शब्द हर एक की जुबान पर होते हैं। किसी की वजह से हमारा कोई काम बन जाता है, तो हम उसके शुक्रगुजार हो जाते हैं। और हम उसको धन्यवाद देने से नहीं चूकते। अगर हमसे कहीं पर गलती हो जाय, तो हम तुरन्त सॉरी बोलकर बात खत्म कर देना चाहते हैं। लोक-व्यवहार व शिष्टाचार की भाषा हम अच्छी तरह से सीख रहे हैं।

जिंदगी की छोटी-छोटी चीजों में हम अपना आचरण तो दिखाते हैं, परन्तु अमूल्य जीवन देने वाले परमात्मा व परमेश्वर के प्रति भी क्या इतने मैर्नस दिखा पाने में कुशल हैं। उसका समय-समय पर धन्यवाद, शुक्रिया अदा करते हैं या कहीं गलती हो जाने पर शर्मिन्दा भी होते हैं। अपने जन्मदाता के प्रति भी हम कितने शिष्टाचारी हैं, यह भी हमारे आंतरिक आचरण का एक चिंतनीय बिषय है।
हमारी दिलचस्पी हमेशा हर तरफ एक शिष्ट माहौल बनाने की होती है, इसीलिए हम अपने बच्चों को भी शुरु से ही इन सबकी ओर जोर देते हैं। हमारा प्रयास यह होता है कि हम अपने परिवार में अच्छी पावरिश के साथ अच्छे आचरण की भी नींव डालें। बच्चों को छोटी-छोटी बातों में थैंक्यू या सॉरी कहना सिखलाते हैं। हर वक्त धरों में, ऑफिस में एक अच्छे आचरण की हर एक से अपेक्षा की जाती है। कोई व्यक्ति हमारा एक काम कर देता है या फिर हमारे काम में सहायक होता है, तब हम उसका दिल से धन्यवाद देते हैं तथा भविष्य में उसके किसी काम आ जाने का अश्वासन देते हैं। क्या आदर्श शिष्टाचार का यह फार्मूला केवल व्यक्तियों या लोकाचार तक ही सीमित है? जिसने हमें यह जीवन दिया, और हम सबको जीने योग्य बनाया। आखिर उसके साथ क्यों नहीं? जिसकी वजह से हमें यह दुर्लभ सौगात मिली है, क्या हम उसको भी ऐसे ही धन्यवाद देते हैं। हम उससे कहें कि- आपने हमें जो जीवन देकर ऐसा उपकार किया है, इसके बदले मैं आपके किस काम आ सकता हूॅ, ऐसा मुझे रास्ता दिखाओ! आपने मुझे जो यह शरीर दिया व स्वास्थ्य दिया है, इन सबके लिए आपको हृदय से धन्यवाद देता हूॅ तथा इसका मैं कैसे बेहतर प्रयोग कर सकता हूॅ। आपने मुझे जो बुद्धि व विवेक दिया है, इसके लिए शुक्रिया। ज्ञान को बढ़ाने में इसका मैं कैसे इस्तेमाल कर सकता हूॅ। इससे मैं क्या-क्या जान सकता हूॅ यह मुझे बताइये। मेरे शरीर के अंदर जो हृदय लगातार स्पंदन करता है, इसकी हर धड़कन पर केवल आपका अधिकार है। यह जीवन आपका दिया हुआ है, हम सब आपके पात्र हैं, अब आगे का रास्ता आप ही प्रशस्त करें। मेरे शरीर के अंदर प्रविष्ट इस आत्मा को कैसे संवेदनशील बनाया जाय व इसमें परमात्मा का कैसे वास होगा? यह भी आप सिखलाइये। जाने अनजाने, अगर किसी नासमझी से मुझसे गलती हो जाय, तो मुझे नादान समझ कर माफ कर देना। इतना ही नहीं मुझे ज्ञान का ऐसा भवसागर दो ताकि भविष्य में अपनी गल्तियों को न दोहरा कर शर्मिंदा होना पड़े।
ईश्वर नें हमें बहुत कुछ दिया है। जिसका उसे धन्यवाद मिलना ही चाहिए। वैसे तो उसकी ओर से कोई मांग नहीं होती। परंतु जिस तरह से हम दूसरों के बीच अच्छा आचरण अपनाकर उसका हितैषी व लोकप्रिय बनना चाहते हैं, ठीक उसी तरह परमात्मा को धन्यवाद देकर भी परमपिता परमेश्वर के भी प्रिय बन सकते हैं। उसको प्रसन्न रख सकते हैं तथा अपने लिए नये खजाने खोल सकते हैं। हम ईश्वर से नित नये की मांग तो करते हैं, पर पुराने का लेखा जोखा तो पहले ही चुकता हो जाना चाहिए। जो पहले से ही प्राप्त है, बिना मांगे ही मिला है। उसका हिसाब भी साफ होना चाहिए। वह हमारी सभी फरमाइश व आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखता है। इसके बदले में वह हमसे कोई भी अपेक्षा नहीं रखता। हम उसकी सेवा में उसे जो देते हैं, वह सब उसी का दिया हुआ है। हम अपनी ओर से बिशेषकर कुछ नहीं करते हैं। हम उसे उसी का अर्पण करते हैं, जिसमें अपना कुछ भी नहीं लगता है। उसकी ओर से किसी को कोई कमी नहीं होती है, बात केवल इतनी है कि हम इन सबसे कितना फायदा उठा पाते हैं। कुछ भी मांगने से पूर्व जो हमको पहले से ही प्राप्त है उसका भी संरक्षण एवं बेहतर प्रयोग केवल अस्तित्व को अच्छी तरह से समझकर ही संभव है।
अच्छा आचरण व शिष्टाचार हमें लोकप्रिय बनाता है। आदर्श व्यवहार अपनाकर हम लेाक व्यवहार में तो कुशल हो जाते हैं, इसी के साथ जरुरी है कि हम अपने अस्तित्व के आचरण की भी सही परिभाषा सीखकर इस अमूल्य जीवन के प्रति अनुग्रहित हो सकें। शरीर, स्वास्थ्य, नौकरी, रोजगार, रुपया-पैसा जो भी कुछ हमें इस जीवन में ईश्वर से आर्शीवाद स्वरुप प्राप्त है। इन सबका हम पर ऋण है, और हमें इसे इसी जीवन में चुकाने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए। जो सही अर्थों में ईश्वर के प्रति थैंक्यू या उपकार जैसा उचित संबोधन होगा।

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