Thursday, October 21, 2010

हंसी का बदलता स्वरुप


पहले की अपने संगी साथियों के साथ हंसी-ठिठोली की धंटो बातें अब सिर्फ यादों के अलावा और कुछ नहीं। आज हर कोई व्यस्त है, सभी की दिनचर्या बुरी तरह से बंधी हुई है। काम के चक्कर में आदमी दिनभर लगा रहता है। दिन के खत्म होने के साथ शरीर में थकावट के साथ मानसिक तनाव भी हो जाना कोई बड़ी बात नहीं होती। कहीं-कहीं पर काम धंधे के बीच या किसी गंभीर बातों के बीच हंसी मजाक को अच्छा नहीं माना जाता। नतीजन, धीरे-धीरे प्राकृतिक हंसी का माहौल खत्म होता जाता है और ढेरों बीमारियां इसके बदले में मिलती जा रही हैं।
अधिकतर लोग समझते हैं कि गंभीर बने रहने व दिखने में ही व्यक्तित्व में आर्कषण होता है। मेडिकल साइंस कहती है कि व्यक्ति का खुश रहना व हंसना तो स्वस्थ जीवन का आधार है। जिसके लिए हमें हंसी के नये बहाने व मौके अवश्य तलाशने होंगे। क्योंकि यह जिंदादिली की भी निशानी है।
कहतंे हैं कि जीवन हंसी के बिना अधूरा व बेजान सा होता है। हंसने से ही जीवन हंसता व मुस्कराता रहता है। लेकिन, सबसे विचित्र बात यह है कि हंसने का न तो किसी के पास पर्याप्त समय ही है, और न ही माहौल।
सब कुछ बस भागता जा रहा है। समय भी, और आदमी भी। एक पड़ाव के बाद दूसरा, फिर अगला। सुबह से शाम तक बस यही सब होता है। रात में थककर आदमी औंधे मुंह बिस्तर पर गिरकर सो जाता है। आखिर आदमी हंसे तो कब कहां और कैसे ! एक नजर इस पर डालें कि क्या हंसने की वजह भी परिवार से कहीं दूर तो नहीं होती जा रही हैं। किसी को पढ़ाई की चिंता सताती है तो कोई अपने कॅरियर के बारे में परेशान रहता है। किसी का काम-धंधा ठीक से नहीं चल पाता तो वह उलझन में फंस जाता है। किसी को व्यापार में भारी नुकसान हो गया तो उसके चेहरे की हंसी गायब हो गई। उधर किसी को फायदा नहीं हुआ तो वह मायूस हो गया। किसी के धर में उसके बच्चे बेरोजगार बैठे हैं, तो कहीं पर किसी की बेटियां बिन ब्याही बैठी हैं। इन सबके साथ लोगों के साथ परेशानियां भी कुछ कम नहीं हैं। कहीं-कहीं पर हंसने की कोई गुंजाइश नहीं दिखाई देती है। हंसने की प्राकृतिक स्थितियां अगर नहीं दिखाई पड़ती है तो यह वाकई गंभीर मामला बन जाता है। क्योंकि जहां तक हंसी का मनोरंजन के साथ सीधा नाता है तो वहीं पर स्वास्थ्य के साथ भी इसका वही रिश्ता है। कोई आफिस में बड़ा अधिकारी है, इसलिए अपने कनिष्ठ कर्मचारियों के साथ हंसी ठिठोली करने से उसकी छवि और गरिमा व पद पर बुरा असर पड़ सकता है। किसी दूसरे मामले में सहकर्मियों द्वारा उसकी बात को महात्व न दिये जाने या अन्यथा में लेने का डर सताता है। इसलिए वह बड़ा अधिकारी अपने स्टाफ के साथ नहीं हंस सकता है। धर में बीवी और बच्चों के साथ भी यही बात होती है, उसके व्यक्तित्व को खतरा लगने लगता है। कल को उसके अपने बच्चे उससे नहीं डरेंगे, अगर उनके साथ हंस कर बात कर दी तो। फिर उसकी बीवी भी उसके काबू में नहीं रहेगी। उसके धर में बनाये गये अनुशासन का क्या होगा। इन सब बातों को देखने से ऐसा नहीं लगता कि हमने कहीं खुद ही अपने हाथों से ही हंसी की खुदखुशी कर दी हो। हंसी के संसाधनों में आई कमी को हमें अपने हित के लिए संजोना बहुत आवश्यक है। क्योंकि हंसी के प्राकृतिक वातावरण को जरुरी खाद पानी नहीं दिया जा रहा है। शायद इसीलिए यह चेहरों से गायब मालूम पड़ती है, और चेहरे गमगीन व बुझे हुए दिखाई देते हैं।
जैसे-जैसे प्राकृतिक हंसी के मौाकों व माहौल में कमी आने लगी, तभी समाज में हंसी का स्वरुप भी बदलना शुरु हो गया। जीवन में हंसी की जरुरत को समझने वालों नें इसके नये दरवाजे व रास्ते बना दिये। आफिस या धर पर हंसी किसी कारण न मिल सकी तो कोई बात नही। अब यह हंसी हास्य क्लब में दिखाई देती है। दिखने में तो हंसने का मात्र नाटक लगता है, हंसी बनावटी लगती है। परंतु, असरकारक होती है। यहां पर लोग हंसने का योगाभ्यास करते हैं। सुबह पार्कों में टहलते हुए लोग जब आपस में हंसी और जोरदार ठहाकांे साथ पेट पकड़ कर हंसते हैं, तब यह लोग अटपटे नहीं लगते। बल्कि इस बात का अहसास कराते हैं कि जीवन में हंसी की अत्यंत आवश्यकता है। ये सभी अपने जीवन में हंसी को बरकरार रखना चाहते हैं। बढ़ती हुई उम्र में भी तरोताजा बने रहने के लिए हंसने की कोई न कोई तरकीब खोज ही लेते हैं। पार्कों का हास्य योग हो या हंसी क्लब के ठहाके। या फिर धरों के ड्राइंग रुम या बेड रुम में कॉमेडी टी वी सीरियल या फिल्मों के माध्यम से मिलने वाली हंसी। वह बनावटी ही सही, परंतु तनाव के बोझ को हल्का जरुर कर देतीे है।

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