Wednesday, September 15, 2010

मज़हब नहीं सिखाता- आपस में बैर रखना


अयोध्या की विवादित राम जन्मभूमि मसले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ द्वारा फैसले की तारीख करीब आती जा रही है, हर तरफ चर्चाओं का आलम बढ़ता जा रहा है कि आखिर फैसला क्या होगा व किसके पक्ष में जायेगा? किस राजीनतिक दल को इसका फायदा होगा और कौन क्या करेगा? इस तरह के कुछ अहम सवाल उभर कर सामने आते जा रहे हैं।
अयोध्या की बात पुरानी है, लेकिन इस पर नई बातें व विवाद समय-समय पर होते जाते हैं। आज, जब सबकुछ सम्मानित न्यायालय के समक्ष व संज्ञान में है, और फैसले की धड़ी आ चुकी है। तो इस समय शांति व सद्भाव को बनाये रखने की बड़ी आवश्यकता है। इसी के साथ हर आदमी को इंसानियत के धर्म को निभानें का मर्म भी समझना बेहद जरुरी है।
बुनियादी बात यह है कि हम किसी भी हालत में मजहबी न बनकर सबसे पहले अपने आप को एक बेहतर इंसान समझें। इंसानियत का रुतबा व दर्जा सबसे ऊपर होता है। इसके बाद किसी भी धर्म की उस पर छाप पड़ती है। सभी के धर्म अलग-अलग जरुर हो सकते हैं, लेकिन इन सभी धर्मों का अर्थ एक ही होता है। कोई व्यक्ति वेद-पुराण या गीता पढ़ता है तो कोई कुरान। कोई मंदिर में भजन-पूजन या प्रार्थना करता है तो कोई मस्जिद में नमाज अदा करता है या कुरान पढ़ता है। दोनों में अंतर केवल ढ़ंग का ही है। पाक कुरान की आयतें भी एक मुसलमान को वही सिखाती हैं जो हिन्दुओं को राम चरित मानस व गीेता बतलाती है। अंतर कहीं नहीं है, केवल जगह अलग है। ईश्वर की आराधना व प्रार्थना करने का तथा अल्लाहताला को याद करने का तरीका अलग हो सकता है, लेकिन मतलब नहीं। जिस तरह से एक इंसान का दुश्मन इंसान नहीं होना चाहिए, इसी तरह एक धर्मावलम्बी को दूसरे मजहब का पूरा सम्मान व इस्तकबाल करना चाहिए। क्योंकि यही सब हमें अपने खुदा या ईश्वर के नजदीक जे जाते हैं। किसी का भगवान या अल्लाह किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाने की इजाजद व सलाह कभी नहीं देता है।
हमें वह दिन भी नहीं भुलाना चाहिए, जब हमनें आजादी की जंग साथ मिलकर लड़ी। हम अपनी एकजुटता व आपसी सौहार्द के भरोसे दुश्मनों से जीते भी। कई जगहों पर आज भी हम एक-दूसरे के दुख-सुख में खड़े होते हैं। ईद-बकरीद, होली-दीवाली हम एक दूसरे के धर आते जाते हैं। बधाईयां देते हैं। जरुरत पड़ने पर एक दूसरे की मद्द भी करते हैं। कई हिन्दुओं के दोस्त मुसलमान और मुसलमान के हिन्दू दोस्त भी है। जो एक दूसरे पर अपनी जान तक देनें को हमेशा तैयार रहते हैं। ऐसी भी मिसालें व उदाहरण अपने समाज में ही हैं। इतना होने पर भी सामाजिक व खुले रुप से किन्हीं-किन्हीं मुद्दों पर एक राय नहीं बन पाती। जो आज हिन्दू-मुसलिम एकता के बीच एक बड़ी वजह है, और यही बात आपसी धार्मिक एकता व सामंजस्यता कि लिए एक बड़ा सवाल है। जिसकी जांच-पड़ताल करनी बेहद जरुरी है। केवल धर्मान्धता के नाम पर किसी की जान का दुश्मन बन जाना धर्मवाद नहीं कहा जा सकता। किसी भी धर्म, मजहब या सम्प्रदाय की आड़ लेकर नफरत को बढ़ावा देना, नुकसान पहुंचाना या किसी को उकसाना किसी भी हालत में इंसानियत के खाके में नहीं आता है। कोई मजहब हमें लड़ने के लिए नहीं कहता है, कोई धर्म हमें इंसानियत का दुश्मन नहीं बनाता है। इसके सबसे बड़े दोषी मानव धर्म को न समझनें वाले हैं। जो धर्म व सम्प्रदाय के नाम पर लोगों को भड़काते व उन्माद भरने का काम करते हैं तथा अपना उल्लू सीधा करते हैं। कोई विक्षिप्त आदमी कहीं पर किसी धर्म की पवित्र किताब को जलानें की बात कर देता है, तो कहीं पर एक आदमी की वजह से पूरी कौम दुश्मन नजर आती है। एक व्यक्ति अपने रास्ते से तो भटक सकता है, लेकिन किसी धर्म के साथ ऐसा नहीं होता। धर्म तो रास्ता दिखाता है, वह नहीं भटक सकता। कुछ भटके हुए लोगों को कुछ अराजक व राष्ट्रविरोधी तत्व अपने निजी फायदे के लिए उकसाते हैं। उनके अंदर आपसी नफरत के ऐसे बीज बो देते हैं जो धीरे-धीरे कट्टरपंथी या उग्रवाद का रुप ले लेता है। जिससे किसी धर्म का सरोकार या लेनादेना नहीं होता है। धर्म या कौम के नाम पर दंगा-फसाद, आपस में लड़ना-झगड़ना किसी कौम को मजबूत नहीं करता, बल्कि पूरी इंसानी कौमी ताकत को अंदर से कमजोर करता है।
आज जमाना बहुत तेजी से बदल रहा है। शिक्षा-रोजगार में, आफिस या बाजारों में हमसब मिलजुल कर काम करते हैं। अब इसमें भी कोई दोराय नहीं कि लोगों की सोच बदल रही है। आज का पढ़ा लिखा शिक्षित युवा वर्ग इस बात को अच्छी तरह से समझ रहा है कि इन सब बातों से उन्नति नहीं हो सकती। वह इन सब बातों से हटकर तरक्की चाहता है। उसे लड़ाई-झगड़े पसंद नहीं। जिस बात का हल शांति, अमन व सौहार्द से हो जाय तो ही अच्छा। अब सबको समझनें की जरुरत है। विकास की राह हमें खुद ही पहचाननी होगी।

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