Thursday, August 26, 2010

गुस्से की आग सिर्फ मुआवजे तक सीमित नहीं

जब इंसाफ बराबर नहीं होता, बगावत तभी जन्म लेती है। इसी का उदाहरण है देश की जनता के लिए अन्न उगाने वाले किसानों के साथ संघर्ष की कहानी। कभी नंदीग्राम या सिंगूर में हुई, तो अबकी बार अलीगढ़, मथुरा व आगरा के आसपास के गांवों के किसानों नें सरकार के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया।
मसला अलीगढ़-आगरा-मथुरा पर बन रहे यमुना एक्सप्रेस-वे के लिए किसानों की उपजाऊ जमीन अधिग्रहण करने का है। किसान इसके विरोध में आ खड़े हुए हैं, क्योंकि किसी किसान को रोटी कमाकर देने वाली उसकी जमीन ही होती है। केवल शहर बसाने के नाम पर किसानों को उजाडऩा कैसे हितकर हो सकता है? भूमि अधिग्रहण जबरन व मनमानी न होकर किसानों की रजामंदी से हो तो ही अच्छा है। किसानों से उनकी रोजी-रोटी छीनने के बाद उनका जीवन यापन कैसे होगा? यह सोचना भी सरकार की नैतिक व संवैधानिक जिम्मेदारी बन जाती है। यह तो अक्सर फिल्मों में दिखाया जाता है कि कोई पूंजीपति या व्यापारी गरीबों की बस्तियां उजाड़कर वहां पर एक बहुमंजिला इमारत या बड़ा शॉपिंग कॉम्पलेक्स खोलना चाहता है। वहां की जनता इसका विरोध करती है। संघर्ष व खून खराबा होता है। इसी तरह का सीन अब किसानों के साथ भी देखा जा रहा है। एक राय में किसान अपनी जमीन सरकार को देने को तैयार हैं। बशर्ते, उनकी जमीन की कीमत नोएडा में दिये गये भूमि अधिग्रहण मुआवजे के बराबर हो। जबकि अलीगढ़ व मथुरा के कई गांवों की जमीन के मुआवजों की कीमत में ही खासा फर्क देखा जा रहा है। किसानों के साथ कोई नाइंसाफी न हो इसलिए अपनी आवाज को बुलंद करने के लिए किसानों की एक संघर्ष समिति भी बन चुकी है। जिसमें आंदोलित सभी किसान एकसाथ लामबद्ध हो रहे हैं। दूसरी तरफ किसान यह भी चाहते हैं कि उनकी अधिग्रहित जमीन का उपयोग टाउनशिप, औद्योगिक या व्यापारिक तरीके से न हो। दूसरों का पेट भरने वाले किसान, जिनके हाथों में हल होते हैं। आज इन्हीं के हाथों में खेती के औजार की जगह न्याय पाने के लिए लाठियां हैं। किसान अब आंदोलित हो रहे हैं, जिसकी साफ वजह सरकार की किसानों के प्रति उदासीन व असमान नीतियां हैं। जिसके कारण ही किसान अपने आपको ठगा महसूस करते हैं व उनके विरोधी स्वर उभर आते हैं। अलीगढ़ व मथुरा के किसान अपनी जमीन को औने-पौने दामों या सरकार द्वारा मनमानी मुआवजे पर देने को कतई तैयार नहीं है, और इसके लिए ये सब सड़कों पर उतर आये हैं। इस आंदोलन में किसानों के परिवार की महिलाएं व युवतियां भी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं। गैर सत्ताधारी दलों के नेता भी अब किसानों के सर्मथन में अपना-अपना नाम ऊंचा करने पहुंच रहे हैं। परंतु किसानों ने अभी किसी भी राजनीतिक दल का साथ नहीं पकड़ा है। कारण भी है कि सरकार बनाने के बाद कोई भी राजनीतिक दल किसानों के दर्द व दिक्कतों के बारे में नहीं सोचता व अभी तक कोई दल किसानों का पक्का हितैषी नहीं बन पाया। नतीजन, किसानों को किसी भी राजनीतिक दल पर भरोसा नहीं हुआ, और इसीलिए अब वह अपनी लड़ाई खुद लडऩा चाहते हैं। बसपा सरकार किसानों की जमीन का अपने मनमुताबिक मुआवजा तैयार करनें में जुटी है। उपजाऊ व पेट पालने वाली बेशकीमती जमीन की कौडिय़ों वाली कीमत किसानों को कतई रास नहीं आ रही है। वहीं पर कुछ किसान अपनी जमीन को किसी भी कीमत पर देना नहीं चाह रहे हैं। क्योंकि इन्हें इस बात का भी डर है कि जबरन भूमि अधिग्रहण के बाद इनकी जमीन का हस्तांतरण पूंजीपतियों या बड़े उद्योगपतियों के हाथों में चला जायेगा। इसी के साथ किसानों की भावी पीढिय़ां कहीं की नहीं रहेंगी। जैसे-जैसे आंदोलन की आग बढ़ती जा रही है, किसान एकजुट हो रहे हैं तथा उनकी आवाज बुलंद हो रही है। वहीं मायावती सरकार द्वारा किसानों की जमीन के मुआवजे की दर बढ़ा दी गई तथा किसानों के पुनर्वासन संबंधी योजनाओं पर विचार करना शुरू कर दिया गया। प्रदेश सरकार द्वारा अधिग्रहित जमीन के किसान परिवार के किसी एक सदस्य को सरकारी नौकरी देनें का भी अश्वासन आ गया है।

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