Friday, May 7, 2010

गलत कथनी ही कहीं करनी न बन जाए



किसी जरूरतमंद की आर्थिक सहायता करने या दान पुण्य में लगाया गया पैसा खजाने को खाली नहीं करता है, बल्कि इस पुनीत कार्य से किसी व्यक्ति या समाज का उद्धार होता है। साथ ही अपनी सार्मथ्यवश जो भी बन पड़ा ऐसा आत्मबोध होने से आत्मसंतुष्टि का भाव भी जागृत होता है। क्योंकि ईश्वर ही किसी योग्य व सक्षम व्यक्ति को अपना माध्यम बनाता है। फिर उसका खजाना भरने की जिम्मेदारी भी उसी की बन जाती है।

भगवान श्री सत्य नारायण व्रत कथा में एक बहुत ही प्रेरक उल्लेख है कि जब साधु नामक बनिया सामान बेचने के लिए बाजार जा रहा था। उस वक्त उसकी नाव कीमती सामान से लदी हुई थी। इसी समय उसकी परीक्षा लेने के लिए भगवान एक भिखारी के वेश में उसके सामने प्रकट हुए और कुछ सामान की याचना की। इस पर व्यापारी ने कुछ देने से बचने के लिए कहा कि मेरे पास कुछ भी नहीं है, मेरी नाव तो धास-फूस व पत्तों से भरी हुई है। उसके कुछ समय बाद ही उसकी नाव पानी के ऊपर उतराने लगी। उसके कहने के अनुसार ही नाव का कीमती सामान एक झटके में ही धास व पत्ते हो गया। उसने जैसा कहा, बिल्कुल वैसा ही हो गया। विषय यह है कि आज यही आम जिंदगी में लगभग सबके साथ हो रहा है कि हम अपने बारे में गलत बयानबाजी भी करते हैं। मौका पडऩे पर हम अपने आपको गरीब, दुखी व असहाय दिखा व बताकर दूसरों की मदद करने के बजाय उनसे सहानुभूति चाहने लगते हैं। जबकि एक तरफ हम अमीरी का दिखावा करते हैं, पर दूसरों की जरूरत के समय अपनी गरीबी दिखाने लगते हैं। फिर संभावना ज्यादा हो जाती है कि कहीं हमारी जिंदगी असल में ही ऐसी न हो जाये। ईश्वर सुख-दुख, रुपया-पैसा व अमीरी-गरीबी सबको देता है। जीवन में लगभग सभी के पास रुपये-पैसे के साथ सुख तथा कभी आर्थिक तंगी के साथ परेशानी व दुख भी आता है। ये सब क्रम से आते-जाते रहते हैं। इनमें से कोई भी एक चीज किसी के पास सदैव नहीं रहती। अगर आज किसी के पास पैसे की कमी है, और समस्याएं हैं, तो निश्चित रूप से कल नहीं होंगी। जबकि इसके उल्टे, उनके जीवन में सम्पन्नता तथा सुख है व इसके बाद भी परेशान दिखना तथा अपनी समस्याओं का दुखड़ा रोने से दूसरों की सहानुभूति हासिल करना ठीक नहीं होता है। प्राकृतिक रूप से भी यही है कि हम अपने बारे में जैसा आकलन करते हैं, सोचते हैं, और दूसरों को बताते व दिखाते हैं ठीक वैसा ही सब कुछ अपने आप परिवर्तित हो जाता है। और एक समय यह अपना पूरा साकार रूप ले लेती है। प्रबल संभावना यह हो जाती है कि सब कुछ होते हुए भी कुछ न होने का नाटक जैसी प्रतिक्रिया देने से एक दिन वैसी ही प्रकृति बन जानी निश्चित है। क्योंकि यह सर्वदाता ईश्वर की देयशक्ति व अनुकम्पा का सीधे तौर पर अपमान के बराबर है। किसी को अपनी क्षमतानुसार आर्थिक मदद या कुछ देने से एक उदार छवि बन जाती है, उसे लगता है कि यह व्यक्ति सम्पन्न है तथा लोगोंं के लिए बहुत मददगार है। इश्वर करे कि इसकी सम्पन्नता और बढ़े ताकि यह और ज्यादा लोगों का भला कर सके। किसी जरूरतमंद की आर्थिक सहायता करने या दान पुण्य में लगाया गया पैसा खजाने को खाली नहीं करता है, बल्कि इस पुनीत कार्य से किसी व्यक्ति या समाज का उद्धार होता है। साथ ही अपनी सार्मथ्यवश जो भी बन पड़ा ऐसा आत्मबोध होने से आत्मसंतुष्टि का भाव भी जागृत होता है। क्योंकि ईश्वर ही किसी योग्य व सक्षम व्यक्ति को अपना माध्यम बनाता है। फिर उसका खजाना भरने की जिम्मेदारी भी उसी की बन जाती है। एक कहानी है-एक टे्रन यात्रियों से भरी थी। एक अंधा भिखारी भी ट्रेन में चढ़ा व गाना गाकर भीख मांगने लगा। ऊपर की बर्थ पर बैठे एक व्यक्ति ने जेब से सिक्का निकालकर नीचे बैठे यात्री से भिखारी को देने को कहा। उस यात्री ने सिक्का भिखारी को दिया तो भिखारी उस व्यक्ति को दुआएं देने लगा। इस पर उस व्यक्ति नें भिखारी से कहा कि यह सिक्का ऊपर बैठे भाईसाहब ने दिया है। तब अंधे भिखारी ने कहा कि बाबू जी, अंधा मैं हंू लेकिन ऊपर वाला सबकुछ देखता है। वही सबको देता है। सच है कि ऊपर बैठा ईश्वर ही सबके लिए इंतजाम करता है। एक की मदद के लिए दूसरे को भेजता है। वह पूरी प्रक्रिया बनाता है। इसलिए, सक्षम होने पर किसी की सहायता करने से पीछे नहीं हटना चाहिए तथा हमारी कथनी भी नहीं होनी चाहिए कि मैं क्या कर सकता हंू? मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। इश्वर केवल उसी के पास ऐसा प्रस्ताव पहुंचाता है जो सक्षम होता है। मना करने, ठुकरानें या बहाना बनानें में व्यक्ति जो कुछ भी कहता है फिर ईश्वर उसी की बात को सही भी कर देता है। जब उस बनिया व्यापारी नें भिखारी के रूप में भगवान से धास व पत्तों की बात कही तो भगवान नें कहा कि जाओ तुम्हारा ही कथन सत्य हो जाय। और उसका सब कीमती सामान धास व पत्ता ही हो गया। समाज में बढ़ती हुई विडम्बना ही है कि वैसे तो हमारे पास सबकुछ होता है लेकिन जरूरतमंद की सहायता के समय सबकुछ खाली बताते हैं। किसी की मद्द से बचनें के लिए कहीं हमारी कथनी उस बनिया व्यापारी की तरह ही न हो जाये।

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