Thursday, July 16, 2009

अपना स्वभाव बदलें, किसी से अपेक्षा न रखें



आज लगभग हर मनुष्य इंसानी रिश्तों में प्यार ढूंढता नजर आ रहा है। आज के इस प्रयोगवादी माहौल में हर इंसान रिश्तों में किसी न किसी तरह की कमी महसूस कर रहा है। चाहे हमारा पारिवारिक व घरेलू रिश्ता हो या फिर दोस्त, व्यवहारी अथवा पड़ोसी आदि का। कहीं न कहीं हम गलतफहमी के शिकार हो रहे हैं। आज रिश्तों के बीच से मधुरता, आपसी सामंजस्य व मेलजोल कहीं खो सा गया है। इसका कारण शायद दूसरों से आवश्यकता से अधिक अपेक्षा रखना भी हो सकता है।


हमारा जीवन अकेले नहीं चल सकता। हमें अपने पूरे जीवन काल में चाहे वह शुरुआती दौर की पढ़ाई लिखाई का मसला हो, नौकरी रोजगार या फिर अपने रिश्तेदार पड़ोसियों का। जीवन के दौर में किसी न किसी किस्म का अपने जान पहचान वालों से हमें सहयोग लेना पड़ता है। जो हमारा भरोसा भी होता है कि जरूरत के समय या किसी आकस्मिक तौर पर कुछ लोग हमारे साथ खड़े होंगे। वस्तुत: किसी भी व्यक्ति से किसी भी प्रकार का सहयोग लेना या देना हमारे जीवन में एक डील की तरह होती है जो 'गिव एंड टेकÓ सिद्धांत पर निर्भर करती है। इस पॉलिसी की ही तरह जीवन के भी कुछ नियम हंै कि सबसे पहले आप किसी से अपेक्षा न रखें कि फलां व्यक्ति आपके काम आयेगा, वह आपकी सहायता करेगा। इसको इस उदाहरण से समझें कि अगर हम किसी गरीब को पैसे देतेे हैं या किसी भूखे को खाना खिलाते हैं तो प्रत्यक्ष रूप से वह हमारी कोई मदद नहीं करता लेकिन जब हम कभी भी किसी तरह की मुसीबत में होते हैं तो ईश्वर किसी न किसी व्यक्ति को हमारे पास भेज देता है। इसलिये यह जरूरी नहीं कि हम जिसकी मदद कर रहे हंै वही हमारी सहायता करेगा। हमारा कत्र्तव्य यह होना चाहिए कि हम अपना काम पूरी निष्पक्षता व बिना किसी अपेक्षा के करते जाएं। एक बात तय है कि अगर हमें अपने जीवन में लगातार अपने मित्रों, पड़ोसियों व रिश्तेदारों से सहयोग मिलता है तो यह समझें कि आप दूसरों के मददगार हैं, और अगर नहीं, तो जरूरत है आपको पहल करने की। पहले दो, बाद में लो।
इसका सिद्धांत ही बिल्कुल अलग है। हमें बिना किसी अपेक्षा के वह काम करते जाना है, हमें वो सब चीजें देनी हंै जिनकी हमें अपने जीवन में आवश्यकता हो। जो हमारे लिये बहुत जरूरी हो, वह सब हम पहले दे। मान लें कि हम अपने किसी रिश्ते में प्यार की कमी महसूस कर रहे हों और हमें प्यार की जरूरत हो, तो हमें इधर उधर नहीं ढूंढना है, हमें पहले वह चीज अपने अन्दर डेवलप करनी होगी। अपने आपको प्यार से भरना पड़ेगा। हम अपने आपको प्यार से इतना भर दें कि जैसे किसी बर्तन में उसकी क्षमता से ज्यादा किसी चीज को भर देना, फिर वह पदार्थ इधर-उधर बिखरने सा लगेगा। फिर हमें अपने चारों तरफ प्यार की सुगंध की अनोखी अनुभूति होनी शुरू हो जाएगी। ऐसी स्थिति में हम सामने वाले की विचार व प्रकृति को बिल्कुल ध्यान न दें, क्योंकि उसका स्वभाव दूसरा हो सकता है। हमें अपना स्वभाव बनाना है। साथ ही दूसरे व्यक्ति की किसी भी मनोदशा को अपने मस्तिष्क में न कैद करें, क्योंकि इससे हमारा मन किसी पूर्वाग्रह का भी शिकार हो सकता है जिससे कि निगेटिव परसेप्शन की अधिक संभावना हो जाती है। अगर हमें किसी से सम्मान पाना है तो यह किसी से जबर्दस्ती हासिल नहीं किया जा सकता। हमें दूसरों की नजरों में सम्मान पैदा करने के लिए पहले उन्हें सम्मान देना होगा। हमें यह बात अच्छी तरह समझनी चाहिए कि हम जो कुछ भी करते हैं उसके परिणाम हमें उसी तरह मिलते हैं अगर हमने किसी को प्यार दिया तो प्यार मिला, अगर हमने किसी को मुस्कुराहट दी तो हमारी जिन्दगी में भी मुस्कुराहट आएंगी। सवाल दूसरा है कि हम अपने काम के प्रति कितना कमिटेड हंै। एक कहानी है, एक साधु नदी में स्नान कर रहे थे। उन्होंने देखा कि एक बिच्छू नदी में पड़ा तड़प रहा है। साधु ने सोचा कि इस बिच्छू को पानी से बाहर निकालकर फेंक दंू तो इसकी जान बच जाएगी। साधु ने बिच्छू को हाथ से पकड़कर जैसे ही पानी से बाहर फेंकना चाहा, बिच्छू ने हाथ में डंक मार दिया और झटका लगने के कारण बिच्छू फिर पानी में गिरकर तड़पने लगा। साधु ने फिर उसे उठाना चाहा, बिच्छू ने फिर डंक मारा। साधु ने अपना स्वभाव फिर भी नहीं बदला तथा अपनी कोशिश करते रहे। साधु के साथ ही नहा रहा एक दूसरा व्यक्ति सब देख रहा था। उसने साधु से कहा- कि हे महात्मा जी, जब यह बिच्छू आपको बार-बार काट रहा है फिर भी आप इसकी जान बचाना चाह रहे हैं! साधु ने जवाब दिया कि जब यह बिच्छू अपना स्वभाव नहीं बदल रहा तो फिर मैं अपना स्वभाव कैसे बदलूं? यह उन साधु महात्मा का स्वभाव था तथा यह प्रक्रिया उनके स्वभाव की वास्तविक प्रकृति बन गई थी। बात यही है, एक तो हम सामने वाले की एक इमेज अपने मस्तिष्क में बना लेते हैं कि वह कैसा आदमी है और उसी इमेज के आधार पर ही पूरे कैलकुलेशन कर लेते हैं। कभी-कभी हमारे अपने रिश्तों में सुख की अभिलाषा इतनी अधिक बढ़ जाती है कि हम लोगों से कोरी अपेक्षाएं करने लग जाते हंै। हम उनको कितना सुख दे पा रहे हंै इस बात पर हमारा कोई ध्यान नहीं होता, सिर्फ रुझान होता है कि हमें क्या मिल रहा है। वस्तुत: उल्टा यहीं पर हो रहा है। हम फसल पहले काटना चाहते हैं जबकि बोया वैसा है ही नहीं। तो हमें पहले बोने पर ध्यान देना है। अगर बीज हमने अच्छी तरह बो दिये तो निश्चित फसल भी अच्छी ही होगी। तब सही मायनों में खुशहाली होगी, फिर किसी से अपेक्षा रखने की भी कोई आवश्यकता न होगी। इस तरह से हमें अपने जीवन में जो कुछ भी चाहिए, वह सब कुछ पहले हमें दूसरों पर न्योछावर करना होगा फिर सब कुछ मिलना शुरू हो जायेगा।

1 comment:

  1. एक सकारात्मक आलेख - जीवन को समझने की बेहतर कोशिश।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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