Thursday, October 8, 2009

परम सुख की उपलब्धि का तरीका है ध्यान



जब हम ध्यान में होते हैं तो वस्तुत: हम शरीर रूप से होते ही नहीं हैं। जब हमारा ध्यान और मन इस शरीर से अलग हो जाता है, या यूं कहा जाय कि जब हम अपना वजूद पूरी तरह से मिटा देते है तब ध्यान की सच्ची उपलब्धि होती है। ऐसी स्थिति में पूरे अन्त:करण में एक अलग सुख की अनुभूति होती है। हम अपने अंदर एक विशेष धुन का अनुभव करते हैं।

आज विज्ञान और गणित में कई विधियां हैं, सब कुछ फार्मूलों पर ही आधारित है। अगर ऐसा हुआ तो यह होगा, अगर नहीं हो पाया तो फेल। सबकी अपनी पद्धति है, काम करने का अलग तरीका है। इसी प्रकार जीवन में भी सुख प्राप्त करने व इसे परम सुख बनाने के विशिष्ट तरीके को ही हम ध्यान कहते हंै। ध्यान के नियमित अभ्यास से ही हमें मन वांछित सफलता, धैर्य व साहस के साथ परम सुख की भी उपलब्धि हो सकती है।
वैसे, हम सबको अपने दैनिक जीवन में रोजमर्रा के घर से बाहर तक के काम-काज निपटानें के लिए ऊर्जा शक्ति की परम आवश्यकता होती है। इसी ऊर्जा शक्ति की कमी की वजह से कोई व्यक्ति कभी-कभी बोझिल भी दिखाई पड़ता है, जबकि नियमित रूप से ऊर्जा शक्ति का संचयन व वर्धन करने से ही व्यक्ति सुंदर, मजबूत व हमेशा तरोताजा दिखाई पड़ता है। ये सब अंदरुनी बातें हैं। जिनका इलाज केवल दवाओं व फल-मेवा आदि खाने से नहीं बल्कि हमारे शरीर के अंदर की मशीनरी के साथ अन्त:करण को शुद्ध, तंदुरस्त व चुस्त रखने वाली पद्धति का नाम है-ध्यान। घरेलू काम करते समय परम सुख की अनुभूति तथा बाजार आदि में काम में रहते हुए हमेशा परम सुख का अनुभव कैसे किया जा सकता है? इन सभी प्रश्नों का संतोष जनक उत्तर हमें नियमित रुप से ध्यान करने से अपने आप मिल जाता है। किसी व्यक्ति के अच्छी जगह पर रहने या अच्छा खाना खाने से खुशी हो सकती है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि वह व्यक्ति सुखी भी हो। सुख का मतलब ही यही है कि व्यक्ति के ह्रदय व मन स्थल में किसी भी प्रकार की कोई पीड़ा न हो। यह भी अक्सर देखा गया है कि एक गरीब व्यक्ति के पास मकान का सुख नहीं है, गाड़ी नहीं है व पहनने को अच्छे कपड़े नहीं हैं। उनके पास कोई भौतिक संपदा भी नहीं है और न ही कोई सुख समृ़िद्ध का साधन, लेकिन फिर भी सुखी हो सकते है। वहीं दूसरी ओर अमीर व्यक्ति के पास घर, बंगला, गाड़ी व वैभव के सभी साधन मौजूद है, और फिर भी यह जरूरी नहीं कि वह अपने जीवन में पूरी तरह से सुख का अनुभव कर रहा हो।
जब हम ध्यान में होते हैं तो वस्तुत: हम शरीर रूप से होते ही नहीं हैं। जब हमारा ध्यान और मन इस शरीर से अलग हो जाता है, या यूं कहा जाय कि जब हम अपना वजूद पूरी तरह से मिटा देते है तब ध्यान की सच्ची उपलब्धि होती है। ऐसी स्थिति में पूरे अन्त:करण में एक अलग सुख की अनुभूति होती है। हम अपने अंदर एक विशेष धुन का अनुभव करते हैं। ठीक इसी प्रकार की अनुभूति व सुख का अनुभव अपने काम या व्यवसाय में भी किया जा सकता है। जब हम पूरे मन से अपने कार्य में लिप्त होते हैं और हमें किसी और चीज का जरा भी ख्याल नहीं रह जाता। बस काम के प्रति ही अपना पूर्ण समर्पण करते हैं, चाहे वह पढ़ाई लिखाई हो या फिर नौकरी रोजगार। ऐसे समय में हम अगर अनुभव करें तो देखेंगे कि हम वर्तमान में इतना डूब जाते हैं कि दूसरों के प्रति तथा अपना भी तनिक होश नहीं रह जाता। इस समय हमारे शरीर के अंदर ही अंदर एक विशेष धुन चल रही होती है तथा पूरा मन आनंदमय व असीम सुख का अनुभव करता है। परिणाम स्वरूप जब इसी सुख की आवृत्ति बढ़ जाती है और इस आवृत्ति की पुनरावृत्ति लगातार होती रहती है तब इससे प्राप्त होने वाला सुख परम सुख बन जाता है।
आज का मानव अपने जीवन में सुखी रहने के लिए कितना प्रयत्नशील है। घर बनवाता है, गाड़ी खरीदता है और तमाम ऐशो आराम के साधन भी इकट्ठा करता है। परंतु इन सबसे मिलने वाला सुख वस्तुत: यर्थाथ सुख नहीं बल्कि बनावटी है। जबकि असली सुख हमारे अंदर है, और हमें इसे ध्यान के जरिए बाहर निकालना है। इतने समय तक इसके ऊपर इतनी गंदगी व विचार रूपी कूड़ा-करकट डाल कर दबा दिया गया है कि जब तक इसके ऊपर पड़ी परतें नहीं हटायी जाएंगी तब तक अंदर की अनुभूति जल्दी नहीं हो सकती। एक जगह कोई मूर्तिकार रहता था, उसके घर के पास ही एक बड़ा पत्थर कई दिनों से पड़ा था। वह अक्सर उस पत्थर को देखा करता था। एक दिन मूर्तिकार ने उस पत्थर पर एक मूर्ति बनानी शुरू की। कुछ दिनों के बाद जब मूर्ति बनकर तैयार हुई तो जो कोई भी उधर से निकलता, उस मूर्ति की बहुत तारीफ करता। मूर्ति वाकई बहुत खूबसूरत बनी थी। ऐसे में एक व्यक्ति ने मूर्तिकार से पूछा कि आपने इस बेकार पड़े पत्थर से इतनी आकर्षक व खूबसूरत मूर्ति कैसे बना दी। इस पर मूर्तिकार ने कहा कि मूर्ति तो इस पत्थर के अंदर पहले से ही थी, मैने तो केवल इसके ऊपर के बेकार पत्थर को तराश दिया और वही खूबसूरत मूर्ति बाहर आ गई। इसी प्रकार हमें भी करना है कि हमारे अंदर विद्यमान वास्तविक सुख के उऊपर पड़े कूड़ा-करकट को ध्यान में ही बैठकर हटाना है। ध्यान के नियमित अभ्यास से सुख की संवेदनशीलता व अनुभूति बढ़ जाती है।

2 comments:

  1. अपने अंतर्मन को पहचानना ही तो ज़रूरी है । यह बहुत अच्छी बाते आपने लिखी है । इन पर गहराई से विचार करना चाहिये ।

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  2. बिल्कुल सही कहा. आभार इन सदविचारों के लिए.

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