Sunday, November 15, 2009

व्यवहारिक भाषा से ही है आपकी पहचान


किसी भी भाषा को बोलने या लिखने में हम जानकार हो सकते हैं, उसमें सिद्धहस्त भी हो सकते हैं। हम किसी भी भाषा में अपनी बात को समझा सकते हैं व समझ भी सकते हैं। परंतु जो हमारे आचरण की भाषा है, हम जिस तरह से अपना व्यवहार करते हैं वही हमारी मूल भाषा होती है। सामान्य तौर पर क्रोध या उत्तेेजना के समय पर भाषा में बड़ा अंतर देखा जाता है।

एक बार अकबर के दरबार में कई भाषाओं में पारंगत एक व्यक्ति आया और चुनौती दी कि कोई भी उसकी असली व मूल भाषा नहीं बता सकता है। उसका दावा था, क्योंकि, उसकी हर एक भाषा में इतनी तेज पकड़ थी कि उसके द्वारा बोले जाने वाली हर भाषा उसकी मूल भाषा लगती थी।
यूं तो अकबर के दरबार में विद्वानों की कोई कमी नहीं थी, फिर भी यह चुनौती आसान नहीं थी। क्योंकि उस व्यक्ति में एक अलग तरह की योग्यता व विश्वास साफ दिखाई दे रहा था। लेकिन, फिर भी दरबार की गरिमा के लिए महाराज अकबर ने उसकी चुनौती स्वीकार कर ली। उस व्यक्ति के साथ दरबार के अनगिनत भाषाओं के जानकार व दक्ष विद्वानों ने अलग-अलग भाषाओं में खूब वार्तालाप व साक्षात्कार किया। परंतुु, सभी असफल हुए। उनमें से कोई भी उसकी मूल भाषा को नहीं पकड़ सका। अंत में अकबर ने बीरबल को बुलाकर पूरी बात बताई। बीरबल ने कहा-समस्या तो मुश्किल है लेकिन इसका हल बहुत आसान है। यह कहते हुए बीरबल ने उस व्यक्ति को पीछे से जोर का धक्का दिया। फलस्वरूप वह गिरकर सीढिय़ों से नीचे लुढ़कने लगा। वह व्यक्ति बीरबल को क्रोध में आकर तेज-तेज गालियां देने लगा। बीरबल ने अकबर से कहा- महाराज यही है इसकी असली भाषा। बीरबल ने उस व्यक्ति से क्षमा मांगते हुए कहा कि- श्री मान्! आपकी मूल भाषा का पता लगाने के लिए इसके अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं था। इस तरह से उसकी मूल भाषा पकड़ी गई।
किसी भी भाषा को बोलने या लिखने में हम जानकार हो सकते हैं, उसमें सिद्धहस्त भी हो सकते हैं। हम किसी भी भाषा में अपनी बात को समझा सकते हैं व समझ भी सकते हैं। परंतु जो हमारे आचरण की भाषा है, हम जिस तरह से अपना व्यवहार करते हैं वही हमारी मूल भाषा होती है। सामान्य तौर पर क्रोध या उत्तेेजना के समय पर भाषा में बड़ा अंतर देखा जाता है।
जब दरबार में उस व्यक्ति ने खुली चुनौती दी तो वह पूरी तरह निश्चिंत था, क्योंकि उसे लगभग सभी भाषाओं में महारत हासिल थी। उसे किसी भी भाषा में कोई व्यक्ति पराजित नहीं कर सकता था। यह सब देखकर ही बुद्धिमान बीरबल नें ऐसा तरीका ढूंढ़ा जिससे उसकी सच्ची भाषा का पता चल सके। वस्तुत: यह सच है कि क्रोध में प्रयुक्त भाषा ही मूल भाषा होती है। क्रोध के समय किया गया आचरण व व्यवहार ही वास्तविक एवं सच्चा होता है। लोक व्यवहार के तौर-तरीकों के अनुसार हम कई तरह से अपने आपको प्रदर्शित करते हैं। हम खासकर हमेशा अपना अच्छा व सर्वश्रेष्ठ आचरण ही दूसरों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। हमारा यह प्रयास रहता है कि हम अपनी भाषा व व्यवहार कुशलता से दूसरों का मन मोह लें तथा सभी के आर्कषण का केंद्र बनें। साथ ही साथ हमें इस ओर भी ध्यान देना चाहिए कि हमारी वास्तविक भाषा, आचरण एवं लोक व्यवहार में कोई अंतर न दिखाई पड़े।
अक्सर हम देखते हैं कि जीवन की कुछ असामान्य स्थिति में अचानक ही हमारे आचरण व व्यवहारिकता में परिवर्तन दिखाई देन लगता है। एकाएक हमारी भाषा हमारे काबू में नहीं रह पाती है। अगर ऐसी स्थिति में हम गौर करें तो हम पाएंगे कि इस दौरान हमें किसी और चीज का ख्याल नहीं रहता है। क्योंकि सामान्य स्थिति में हम अपना सर्वश्रेष्ठï व्यवहार ही प्रदर्शित करना चाहते हैं।
इस समय हम केवल अपने अंदर की अच्छी बातें ही बताना व दिखाना चाहते हैं। परंतु क्रोध या तनाव की स्थिति में हम सब कुछ भूल जाते हैं। ऐसे में मुंह से जो शब्द निकलते हैं वही हमारी असली व वास्तविक भाषाका परिचायक होती है। मीठी बोली हमारे व्यक्तित्व व लोक व्यवहार में बहुत मायने रखती है। यह हमारी व्यवहार कुशलता का भी मुख्य पैमाना होती है। हमारे बोल-चाल की भाषा में मीठी बोली को मिश्री जैसे बोल की भी संज्ञा दी जाती है। हर एक व्यक्ति दूसरों से सदैव अच्छे व्यवहार की ही अपेक्षा रखता है। समझने वाली बात यह है कि हम अपनी मूल भाषा और आचरण को व्यवहारिक दृष्टि से इतना स्वीकार्य बनाएं कि हमारी वास्तविक व मेलजोल की भाषा में किसी भी प्रकार का विरोधाभास न दिखाई दे। किसी असामान्य स्थिति या उत्तेजना आदि की दशा में हम सदैव अपनी भाषाशैली व व्यवहार के तरीके पर अपना संयम बना कर रखें।
आज के इस कॉपोरेट युग में जहां हर चीज की मार्केटिंग हो रही है, वहीं अपनी अच्छी बोली व भाषाशैैली से हम किसी को भी प्रसन्न कर सकते हैं। किसी को भी हम अपनी वाक्ïपटुता व भाषा की पकड़ के रुआब में ले सकते हैं। ऐसे में इस बात का ध्यान में रखना बहुत आवश्यक हो जाता है कि जीवन की किंहीं दो परिस्थितियों में हम हमेशा एक सा ही आचरण अपनाने का प्रयास करें तथा हमारे व्यवहार में किसी प्रकार का दिखावा भी न पाया जा सके। फिर हमारी व्यवहारिक भाषा मूल भाषाकी तरह पहचानी जाए। जिनमें कोई भी किसी भी तरह का अंतर न ढूंढ़ सके।

2 comments:

  1. सारगर्भित आलेख
    न केवल पठनीय बल्कि सहेजनीय भी............

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  2. बिल्कुल सहमत...बेहतरीन आलेख!

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