Friday, October 30, 2009

अपने अंदर ही है ध्यान प्रशिक्षण केंद्र

जिस प्रकार हम अपने दैनिक जीवन के काम-काज निपटाने के लिए समय निकाल लेते हैं उसी प्रकार लगातार इसको करते रहने से हमारे अंदर इसकी प्रवृति भी बन जायेगी। अच्छी शिक्षा किसी भी व्यक्ति को आभूषण से कहीं अधिक सुशोभित करती है। वहीं ध्यान की शिक्षा को पाकर कोई व्यक्ति अद्वितीय व्यक्तित्व का स्वामी व प्रेरणादायक स्रोत का भी जनक हो जाता है।

अच्छी शिक्षा का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। इसी से जीवन सुधरता है। शिक्षा से जहां हमारा मस्तिष्क तेज होता है वहीं अच्छे और बुरे का पाठ भी पढऩे को मिलता है। पढ़-लिख कर हम बड़े भी हो जाते हैं और अपने-अपने काम-धंधे व नौकरी-रोजगार में लग जाते हैं। लेकिन हमने एक बात का ध्यान बिल्कुल नहीं दिया कि दिमाग के साथ अंतरआत्मा की शिक्षा पाना भी बहुत आवश्यक है, इसके लिए किसी स्कूल, कॉलेज या विश्व विद्यालय में दाखिला लेने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अपने ही अंदर छिपा है पूरा ध्यान प्रशिक्षण केंद्र। अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाने का मतलब ही यही होता है कि बच्चा पढ़-लिखकर एक अच्छा इंसान बन सके और जिसके अंदर अच्छे और बुरे की समझ भी पैदा हो सके। अच्छी शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य ही यही है। यही सब हमारे साथ हुआ और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हम अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई अच्छे स्कूलों में कराते हैं। जैसा हमारे साथ हुआ, वैसे ही हमारे बच्चों के साथ भी हो रहा है। बस अंतर जरा आधुनिकता का हो गया। आज शिक्षा कंप्यूटरीकृत हो गई। स्कूल, कॉलेज सब हाईटेक हो गए। बच्चे पढऩा-लिखना अच्छी तरह से सीख कर प्रोफेशनल बन गये। देखने वाली बात है कि दिमाग से तो सभी शार्प माइंड हैं, परंतु आभास यह होता है कि मन और अंतरआत्मा के प्रति भावशून्य हैं। इसकी निश्चित ही यह वजह हो सकती है कि इस विषय की अब तक इनको जानकारी ही नहीं हो पाई है। इसको जानने का उनके पास कोई विषय ही नहीं रहा। इसकी किसी ने पढ़ाई ही नहीं की और न ही हमने इनको सिखाया ही। सबसे बड़ी बात यह भी है कि ध्यान हमारा भी कभी विषय नहीं रहा और न ही हमने कभी इसे अलग से पढऩे व सीखने की कोशिश की। जबकि स्वयं को जानने व अपनी अंतरआत्मा को पहचानने का ही विषय है ध्यान। अभी भी ज्यादा देर नहीं हुई है। जब जागो, तब सबेरा। आज हमारे जीवन की सबसे बड़ी प्राथमिकता यही होनी चाहिए कि सबसे पहले हम इस ध्यान के विषय को अपने जीवन में एक बार आजमाने के लिए ही अपनाना शुरू करें। इसके लिए हमें कहीं और जाने की कोई जरूरत नहीं, और न ही किसी स्कूल, कॉलेज में अलग से कोई कोर्स करने की आवश्यकता है। जरूरत है केवल इसे नियमित रूप से अपने जीवन में उतारने व ढालने की। सर्वप्रथम हम यह प्रयास करें। फिर धीरे-धीरे हम अपने बच्चों को भी ध्यान की ओर बढ़ाने व इसे पढ़ाने की दिशा दें। जिस तरह से मां-बाप ही अपने बच्चों को अच्छे संस्कार व सद्गुण सिखाने का काम करते हैं, उसी तरह ध्यान का नियमित अध्ययन व इसे सीखने का संस्कार भी शुरुआत से ही उनमे डालना प्रारंभ कर दें। ध्यान का नियमित पाठ पढऩे व सीखने से धीरे-धीरे पूरे मन में तथा अन्त:स्थल में एक प्रशिक्षण केन्द्र बनना आरंभ हो जाता है। इस समय हमारी आत्मा एक ध्यानस्थली की तरह बन जाती है, जिससे हर क्षण सुंदर व अच्छे विचार जन्म लेना शुरू कर देत हैं। आत्मीय शांति के साथ ही असीमित ऊर्जा और क्षमता का स्रोत भी यहीं से फूटता है जो हमें पूरे दिन स्फूर्तिवान बनाये रखने में सहायक होता है। इस समय हमारा पूरा शरीर साक्षी मात्र होकर सब कुछ महसूस करता रहता है। जिस प्रकार किसी कॉलेज के एक कमरे में क्लास चलती है और पूरी बिल्डिंग में स्कूली माहौल नजर आता है, उसी तरह हमारा पूरा शरीर ऊर्जावान होकर तरोताजा हो जाता है। ध्यान के नियमित अभ्यास से हमारे ारीर की सभी नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता रहता है और ध्यान से ही यही ऊर्जा बदल कर सकारात्मक में रूपांतरित हो जाती है। जीवन की नई से नई चुनौतियों का भी तुरंत हल ध्यान से ही मिलता है। कठिन से कठिन परिस्थितियों व नये लक्ष्यों को हासिल करने तथा इनमे सफलता प्राप्त करने का अदम्य साहस भी ध्यान के स्वयं के प्रशिक्षण केंद्र से ही प्राप्त होता है। आज जीवन की आपाधापी में जूझते फिरते किसी के पास ज्यादा अतिरिक्त समय नहीं रहा। फिर भी ध्यान को अपने जीवन में शामिल करने तरीका हमें किसी भी समय निकालना होगा और इसी नियमित अभ्यास की आदत हमें अपने बच्चों में अभी से डालनी होगी, जिससे हमारे अंदर ध्यान को सीखने की नींव जल्द से जन्द पड़ सके। जिस प्रकार हम अपने दैनिक जीवन के काम-काज निपटाने के लिए समय निकाल लेते हैं उसी प्रकार लगातार इसको करते रहने से हमारे अंदर इसकी प्रवृति भी बन जायेगी। अच्छी शिक्षा किसी भी व्यक्ति को आभूषण से कहीं अधिक सुशोभित करती है। वहीं ध्यान की शिक्षा को पाकर कोई व्यक्ति अद्वितीय व्यक्तित्व का स्वामी व प्रेरणादायक स्रोत का भी जनक हो जाता है। इसलिए आज समय की यही आवश्कता है कि हम अपने साथ बढ़ते हुए किशोर वर्ग व युवा पीढ़ी को भी ध्यान की धरोहर का स्वामी बना दें ताकि देश के बढऩे वाले हर एक बच्चे की हर मायनों में शिक्षा पूरी हो सके। इस प्रकार हर कोई बच्चा सुसंस्कारवान, सुशिक्षित व सच्चे अर्थों में सम्माननीय हो सकेगा।

Thursday, October 22, 2009

हीन भावना न रखें,तभी बदलेगी जिंदगी



हमारा पूरा व्यक्तित्व हमारी सोच से दिखाई पड़ता है। सोच और भावना में ज्यादा अंतर नहीं है क्योंकि किसी भी तरह की भावना का आधार हमारी सोच ही है। यहां जरूरी यह है कि हम अपने ऊपर कितना विश्वास रखते हैं अगर हमारे मन में विश्वास है और खुद पर पूरा भरोसा भी है तो निश्चित ही हमें किसी से भी डर नहीं लगेगा और विषम स्थिति का डट कर मुकाबला करेंगे।

जैसी सोच होगी, वैसी ही हमारी भावना भी होगी। हम जिस तरह से सोचते जाते हैं ठीक उसी तरह से हमारी भावना भी होती जाती है। अक्सर हम दूसरों के बारे में अपने ख्याल रखते हैं, उनका अनुमान लगाते हैं। ऐसे ही अपने बारे में भी sochatee हैं और इसी तरह अपने लिए भी एक भावना का निर्माण करते जाते हैं। इनमें से ही एक है- उच्च भावना तथा दूसरी हो जाती है- हीन भावना। इसी जगह अगर हम स्वयं में विश्वास भी जागृत करने में सफल हुए तो निश्चित ही अच्छी भावना के साथ आत्म विश्वास का भी विकास शुरू हो जाता है। हमारी सोच के ही दो पहलू हैं- उच्च व हीन भावना। अगर हम अपने जीवन में सकारात्मक हैं तथा आत्मविश्वास से भरे हुए हैं तो निश्चित ही हमारी भावना भी अपने बारे में उच्च की ही होगी। यदि हमारी सोच या भावना कमजोर हुई या फिर आत्मविश्वास की कमी हो,तो हम हीन भावना शिकार हो जाते हैं। आज जीवन के हर क्षेत्र में प्रतियोगिता चलती है और सभी प्रतिभागियों को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना होता है। ऐसे में एक दूसरे की तुलना लाजिमी हो जाती है। मुकाबला तब और गंभीर हो जाता है जब एक व्यक्ति खुद अपनी बराबरी सामने वाले से करने लगता है। उदाहरण के तौर पर एक जगह दौड़ प्रतियोगिता शुरू होने वाली है। सभी प्रतिभागी स्टार्ट लाइन पर खड़े हुए हैं और सब अच्छे धावक भी हैं। सभी को विश्वास भी है कि वे प्रतियोगिता जीतेंगे। इसी बीच, एक अन्य प्रतियोगी आता है। वह आते ही अपनी लाइन पर खड़ा होकर तमाम तरीकों से एक्सरसाइज तथा अपनी बॉडी- लैंग्वेज व एक्साइटमेंट से अपना अति आत्मविश्वास दिखाने लगता है। यह सब देखकर अन्य प्रतिभागियों का आत्मविश्वास डगमगा जाता है तथा परिणामस्वरूप अन्य सभी प्रतियोगी उसके विश्वास के आगे स्वयं में हीन भावना का शिकार हो जाते हैं। यहां पर स्थिति यह होती है कि अपने आपको अन्य दूसरे के मुकाबले में छोटा व हीन समझने लगते हैं। ऐसे में खास बात यह होती है कि जहां आत्मविश्वास कमजोर पडऩे लगता है वहीं स्वयं का मन भी आत्मकुंठित होने लग जाता है, तत्पश्चात हीन भावना का असर हमारे पूरे व्यक्तित्व में दिखना शुरू हो जाता है। हमारा पूरा व्यक्तित्व हमारी सोच से दिखाई पड़ता है। सोच और भावना मे ज्यादा अंतर नहीं है क्योंकि किसी भी तरह की भावना का आधार हमारी सोच ही है। अगर हमारे मन में विश्वास है और खुद पर पूरा भरोसा भी है तो निश्चित ही हमें किसी से भी डर नहीं लगेगा तथा हम किसी भी विषम परिस्थिति से भी डट कर मुकाबला करने व उससे जीत जाने का हौसला हमेशा बनाये रखते हैं। फिर हमारी बराबरी चाहे किसी भी व्यक्ति से हो या चुनौती किसी भी स्थिति से, सबसे आगे निकल जाने व सफल होनें की पूरी गारंटी बन जाती है। सामने कोई भी हो अब किसी से कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि अपने आप में हमारी सोच मजबूत हो जाती है और आगे बढऩे का सामथ्र्य व साहस भी बन जाता है। यह सच है कि जब किसी व्यक्ति के मन में उच्च भावना व स्वयं में विश्वास जन्मने लग जाता है तब अंदर ही अंदर वह मजबूत इरादों वाला व्यक्ति दिखाई पडऩे लगता है। क्योंकि एक स्थिति तब आती है जब उसके करीबी मित्र, रिश्तेदार, सहकर्मी व जीवन की सभी स्थितियां उस पर भरोसा करने लगती हैं। धीरे-धीरे सभी लोग मेहरबान होना शुरू हो जाते हैं। और यहां तक कि इस व्यक्ति पर ईश्वर की असीम अनुकंपा भी होने लगती है, क्योंकि ईश्वर भी केवल उसी व्यक्ति पर भरोसा करता है जिस व्यक्ति का स्वयं पर भरोसा हो। किसी व्यक्ति की प्रगति व उन्नति का मार्ग भी उसकी सोच ही प्रशस्त करती है। आत्मविश्वासी व्यक्ति अपने कार्यक्षेत्र में निरंतर सफलता प्राप्त करते हुए आगे बढ़ता रहता है। किसी भी कार्य में सफल होने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि हम अपने आपको मजबूत स्थिति में रखें। हम अपनी सोच व भावना को ऊपर उठायें व उसको इतनी ऊंचाई दें कि उससे अच्छे व सुंदर विचार जन्म लेना शुरू हो जाए। ऐसा होने पर हमारी सोच व भावना का हीन भावना से हर तरह का संपर्क टूट जायेगा। फिर ऐसी कोई भी स्थिति न होगी, जिससे हम हीन भावना का शिकार व इससे ग्रस्त हो सकें। एक बात और है कि किसी भी व्यक्ति की अन्य व्यक्ति से तुलना उसके बाहरी आकर्षण, महंगे कपड़े व बंगला-गाड़ी आदि से करने का कोई अर्थ नहीं है। यह तुलना तब सार्थक हो सकती है जब हम अपने विचारों, सोच व भावना के आधार पर करें। यह महत्वपूर्ण बात है कि हम अपने आपको कहीं से भी न तो हीन समझें और न ही हीन भावना रखें। यह बात हमें प्रारंभ से ही अपने अंतर्मन में ढालनी शुरू करनी है। हमें अपने मन को इतना मजबूत बिंदु बनाना है कि हर स्थिति में बड़ी सोच का जन्म हो। जिससे ही अच्छी व सुदृढ़ भावना का अवतरण तथा विकास संभव होगा। अच्छी सोच होने पर ही कुंठा भी नहीं होगी और न ही मन आत्मकुंठा का शिकार हो पायेगा। हमारी जिंदगी में सर्वप्रधान भावना ही है। इसके प्रबल होने से हम अपने जीवन के हर क्षेत्र में आसानी से सफल हो सकते हैं।

Wednesday, October 21, 2009

एक साथ मिलकर दिल से मनाएं दिवाली



आज के इस प्रयोगधर्मी दौर में पारिवारिक एकता को बनाये रखना हम सबके लिए बड़ी मांग है। हम सबकी जिम्मेदारी भी है कि आपसी सामंजस्य को हर हाल में बनाये रखें तथा हर दिल में प्रेम का दिया जलाने का प्रयास करें। तब निश्चित ही सभी लोग एक साथ मिलकर प्रेम भरे दिल से दिवाली मनाएंगे।

१४ साल वनवास काटने तथा रावण को मार विजय श्री प्राप्त करने के बाद भगवान श्री राम के अयोध्या आगमन पर नगरवासियों ने अपने राजा रामचन्द्र जी का पूरे दिल से स्वागत किया। श्री राम की अयोध्या वापसी पर पूरा नगर दीपमालाओं व चमचमाते प्रकाश से जगमगा उठा था। हर ओर खुशहाली व चहल-पहल थी। हर एक के दिल में अपार खुशियां थीं। लोगों ने इस दिन को एक त्योहार के रूप में मनाया। आज पूरे भारत वर्ष में यह दिन दीपावली के महापर्व के रूप में मनाया जाता है। इस प्रकार यह दिन अपार खुशियां, समृद्धि व पारिवारिक एकता का प्रतीक भी है।
रामायण व रामचरित मानस के अनुसार इस दिन के ठीक १४ साल पूर्व अयोध्या के राजा दशरथ की पत्नी कैकेर्ई के मांगे एक वरदान के कारण मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम को राज महल छोड़कर वनवास जाना पड़ा था। जिस दिन श्री राम ने अयोध्या छोड़ी, उस दिन पूरी अयोध्या में मातम छाया हुआ था। हर तरफ शोकाकुल माहौल, रोते-बिलखते लोग, आंखों मेंं आंसुओं का सैलाब तथा असहनीय पीड़ा लिए हुए लोगों ने श्री राम को न चाहते हुए भी अयोध्या से विदा किया। यह बहुत ही मर्मस्पर्शी घटना थी। पूरे अयोध्यावासी उस समय असहनीय पीड़ा से गुजरे थे। वहां के लोग श्री राम के बिछुडऩे से इतने दुखी व स्तब्ध थे कि बीमार पडऩे लगे। इसी तरह के असहनीय शोक के कारण राजा दशरथ का कुछ ही दिनों में ही निधन हो गया। अपना वनवास पूरा करने के बाद श्री राम जब १४ साल बाद अयोध्या लौटे तब पूरी अयोध्या में खुशियों की लहर दौड़ पड़ी। लोगों में अति उत्साह था। एक तरफ जहां श्री राम ने चौदह साल इधर-उधर जंगलों में काटे, वहीं पूरे चौदह साल अयोध्यावासियों के दिल में भी गम के बादल छाये रहे। अब मौका था- खुशियां मनाने का, आनंद व मस्ती का। सभी लोगों ने अपने-अपने घरों को खूब सजाया संवारा, सफाई, रंगाई-पुताई व नये-नये कपड़े पहन घरों में दीपमाला जलाकर पूरी अयोध्या को श्रीराम के स्वागत में जगमग कर दिया।
इसीलिए दीपावली का यह पर्व हम सब अपने पूरे परिवार के साथ मनाते हैं। यह त्योहार पारिवारिक एकता का भी सूचक है। एक परिवार के कई लोग अलग-अलग जगह व शहरों में रहते हैं, और इस दिन दूर-दराज स्थानों में रहने वाले सभी लोग एक जगह पूरे कुटुंब के साथ मिलकर बड़े हर्षोल्लास के साथ इस त्योहार का आनंद उठाते हैं। दीपावली का त्योहार पूरे परिवार के एक साथ मिल जुल कर खुशियां मनाने का है। हिंदू संस्कृति में इससे बड़ा दूसरा पर्व और कोई नहीं हैं जो एक साथ इतने उत्साह से मनाया जाता है। देखने वाली बात यह भी है कि अपने देश में बड़े-बड़े कुटुंबों में एक साथ किसी पर्व या अवसर को मनाने की परंपरा मात्र औपचारिकता बनती जा रही है। इसका प्रमुख कारण शायद परिवार का विघटन या टूटते-बिखरते परिवारों की स्थिति है। आज बड़े परिवार कई छोटे-छोटे परिवार में विभाजित हो रहे हैं। देखा यह भी जा रहा है कि ऐसे कुछ खास अवसरों पर भी लोग दिल से मिलकर एक साथ नहीं हो पाते। पहले संयुक्त परिवार की परंपरा को सभी लोग मिलकर एकसाथ निभाते थे, फिर संयुक्त परिवार से एकल परिवार का चलन प्रारंभ हुआ, तत्पश्चात इसके भी हिस्से होना शुरू हो गये। किसी संयुक्त परिवार की संरचना में सबसे बड़ी रुकावट आती है रहन-सहन को अच्छी तरह समझ पाने की कमी। यह हमारी ही कमी है कि हम इसके मतलब को अच्छी तरह नहीं समझ पाये हैं। इस पर गांधी जी ने भी कहा है कि परिवार के सदस्यों की एकजुटता से परिवार मजबूत होता है, परिवार के मजबूत होने से समाज मजबूत होता है और समाज के मजबूत होने से ही देश मजबूत होगा। इसीलिए हर एक परिवार का मजबूत होना अति आवश्यक है। दीपावली का यह पावन पर्व पारिवारिक एकता की इस तरह मिसाल भी है कि जब श्री राम की दूसरी मां कैकेई के पुत्र भरत को राजगद्दी व श्री राम को वनवास मिला था। जब श्री राम ने अयोध्या छोड़ी, उस समय भरत नगर में नहीं थे। वापस आने पर जब उन्हें श्री राम के वनवास जाने का समाचार मिला तो वह बहुत दुखी हुए तथा उन्होंने राज-पाठ नहीं स्वीकारा और वे उसी समय श्री राम को वापस लाने महल से निकल पड़े। वह श्री राम को वापस महल लाने में तो सफल नहीं हुए परंतु उनकी अनुपस्थिति में राज सिंहासन पर उनकी खड़ाऊ को रखकर राज्य का कार्यभार देखा। यह दोनों भाइयों के बीच आपसी प्रेम व एकता की अनूठी मिसाल थी। वहीं श्रीराम की अयोध्या वापसी पर पूरा नगर आज फिर एकजुट था। आज के इस प्रयोगधर्मी दौर में पारिवारिक एकता को बनाये रखना हम सबके लिए बड़ी मांग है। हम सबकी जिम्मेदारी भी है कि आपसी सामंजस्य को हर हाल में बनाये रखें तथा हर दिल में प्रेम का दिया जलाने का प्रयास करें। तब निश्चित ही सभी लोग एक साथ मिलकर प्रेम भरे दिल से दिवाली मनाएंगे।

Thursday, October 8, 2009

परम सुख की उपलब्धि का तरीका है ध्यान



जब हम ध्यान में होते हैं तो वस्तुत: हम शरीर रूप से होते ही नहीं हैं। जब हमारा ध्यान और मन इस शरीर से अलग हो जाता है, या यूं कहा जाय कि जब हम अपना वजूद पूरी तरह से मिटा देते है तब ध्यान की सच्ची उपलब्धि होती है। ऐसी स्थिति में पूरे अन्त:करण में एक अलग सुख की अनुभूति होती है। हम अपने अंदर एक विशेष धुन का अनुभव करते हैं।

आज विज्ञान और गणित में कई विधियां हैं, सब कुछ फार्मूलों पर ही आधारित है। अगर ऐसा हुआ तो यह होगा, अगर नहीं हो पाया तो फेल। सबकी अपनी पद्धति है, काम करने का अलग तरीका है। इसी प्रकार जीवन में भी सुख प्राप्त करने व इसे परम सुख बनाने के विशिष्ट तरीके को ही हम ध्यान कहते हंै। ध्यान के नियमित अभ्यास से ही हमें मन वांछित सफलता, धैर्य व साहस के साथ परम सुख की भी उपलब्धि हो सकती है।
वैसे, हम सबको अपने दैनिक जीवन में रोजमर्रा के घर से बाहर तक के काम-काज निपटानें के लिए ऊर्जा शक्ति की परम आवश्यकता होती है। इसी ऊर्जा शक्ति की कमी की वजह से कोई व्यक्ति कभी-कभी बोझिल भी दिखाई पड़ता है, जबकि नियमित रूप से ऊर्जा शक्ति का संचयन व वर्धन करने से ही व्यक्ति सुंदर, मजबूत व हमेशा तरोताजा दिखाई पड़ता है। ये सब अंदरुनी बातें हैं। जिनका इलाज केवल दवाओं व फल-मेवा आदि खाने से नहीं बल्कि हमारे शरीर के अंदर की मशीनरी के साथ अन्त:करण को शुद्ध, तंदुरस्त व चुस्त रखने वाली पद्धति का नाम है-ध्यान। घरेलू काम करते समय परम सुख की अनुभूति तथा बाजार आदि में काम में रहते हुए हमेशा परम सुख का अनुभव कैसे किया जा सकता है? इन सभी प्रश्नों का संतोष जनक उत्तर हमें नियमित रुप से ध्यान करने से अपने आप मिल जाता है। किसी व्यक्ति के अच्छी जगह पर रहने या अच्छा खाना खाने से खुशी हो सकती है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि वह व्यक्ति सुखी भी हो। सुख का मतलब ही यही है कि व्यक्ति के ह्रदय व मन स्थल में किसी भी प्रकार की कोई पीड़ा न हो। यह भी अक्सर देखा गया है कि एक गरीब व्यक्ति के पास मकान का सुख नहीं है, गाड़ी नहीं है व पहनने को अच्छे कपड़े नहीं हैं। उनके पास कोई भौतिक संपदा भी नहीं है और न ही कोई सुख समृ़िद्ध का साधन, लेकिन फिर भी सुखी हो सकते है। वहीं दूसरी ओर अमीर व्यक्ति के पास घर, बंगला, गाड़ी व वैभव के सभी साधन मौजूद है, और फिर भी यह जरूरी नहीं कि वह अपने जीवन में पूरी तरह से सुख का अनुभव कर रहा हो।
जब हम ध्यान में होते हैं तो वस्तुत: हम शरीर रूप से होते ही नहीं हैं। जब हमारा ध्यान और मन इस शरीर से अलग हो जाता है, या यूं कहा जाय कि जब हम अपना वजूद पूरी तरह से मिटा देते है तब ध्यान की सच्ची उपलब्धि होती है। ऐसी स्थिति में पूरे अन्त:करण में एक अलग सुख की अनुभूति होती है। हम अपने अंदर एक विशेष धुन का अनुभव करते हैं। ठीक इसी प्रकार की अनुभूति व सुख का अनुभव अपने काम या व्यवसाय में भी किया जा सकता है। जब हम पूरे मन से अपने कार्य में लिप्त होते हैं और हमें किसी और चीज का जरा भी ख्याल नहीं रह जाता। बस काम के प्रति ही अपना पूर्ण समर्पण करते हैं, चाहे वह पढ़ाई लिखाई हो या फिर नौकरी रोजगार। ऐसे समय में हम अगर अनुभव करें तो देखेंगे कि हम वर्तमान में इतना डूब जाते हैं कि दूसरों के प्रति तथा अपना भी तनिक होश नहीं रह जाता। इस समय हमारे शरीर के अंदर ही अंदर एक विशेष धुन चल रही होती है तथा पूरा मन आनंदमय व असीम सुख का अनुभव करता है। परिणाम स्वरूप जब इसी सुख की आवृत्ति बढ़ जाती है और इस आवृत्ति की पुनरावृत्ति लगातार होती रहती है तब इससे प्राप्त होने वाला सुख परम सुख बन जाता है।
आज का मानव अपने जीवन में सुखी रहने के लिए कितना प्रयत्नशील है। घर बनवाता है, गाड़ी खरीदता है और तमाम ऐशो आराम के साधन भी इकट्ठा करता है। परंतु इन सबसे मिलने वाला सुख वस्तुत: यर्थाथ सुख नहीं बल्कि बनावटी है। जबकि असली सुख हमारे अंदर है, और हमें इसे ध्यान के जरिए बाहर निकालना है। इतने समय तक इसके ऊपर इतनी गंदगी व विचार रूपी कूड़ा-करकट डाल कर दबा दिया गया है कि जब तक इसके ऊपर पड़ी परतें नहीं हटायी जाएंगी तब तक अंदर की अनुभूति जल्दी नहीं हो सकती। एक जगह कोई मूर्तिकार रहता था, उसके घर के पास ही एक बड़ा पत्थर कई दिनों से पड़ा था। वह अक्सर उस पत्थर को देखा करता था। एक दिन मूर्तिकार ने उस पत्थर पर एक मूर्ति बनानी शुरू की। कुछ दिनों के बाद जब मूर्ति बनकर तैयार हुई तो जो कोई भी उधर से निकलता, उस मूर्ति की बहुत तारीफ करता। मूर्ति वाकई बहुत खूबसूरत बनी थी। ऐसे में एक व्यक्ति ने मूर्तिकार से पूछा कि आपने इस बेकार पड़े पत्थर से इतनी आकर्षक व खूबसूरत मूर्ति कैसे बना दी। इस पर मूर्तिकार ने कहा कि मूर्ति तो इस पत्थर के अंदर पहले से ही थी, मैने तो केवल इसके ऊपर के बेकार पत्थर को तराश दिया और वही खूबसूरत मूर्ति बाहर आ गई। इसी प्रकार हमें भी करना है कि हमारे अंदर विद्यमान वास्तविक सुख के उऊपर पड़े कूड़ा-करकट को ध्यान में ही बैठकर हटाना है। ध्यान के नियमित अभ्यास से सुख की संवेदनशीलता व अनुभूति बढ़ जाती है।

Monday, October 5, 2009

अमूल्य है गांधी जी का जीवन दर्शन



गांधी जी ने अपने जीवन में सभी धर्मों को बराबरी से सम्मान दिया क्योंकि वह भारत को सर्व धार्मिक राष्ट्र बनाने का सपना देखते थे। इसी के साथ उन्होंने सारे जीवन केवल सत्य का मार्ग अपनाया।
दे दी हमे आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल। गांधी का मतलब- महान व्यक्ति, एक विचार धारा व सत्य-अहिंसा का पुजारी। एक साधारण से दिखने वाले पुरुष में अनेक असाधारण प्रतिभाओं का समिश्रण ही है- मोहनदास करमचन्द गांधी। जो आगे चलकर शांति के मसीहा के रूप में विख्यात हुए तथा अपनी जान की आहूति देकर भारत की आजादी का अपना लक्ष्य पा लिया। हिंदुस्तान की आजादी का सपना देखने वाले मोहनदास करमचन्द गांधी जी का जन्म पोरबंदर में 2 अक्टूबर 1869 को हुआ था। बनिया परिवार में जन्म लेने वाले इस बालक की आगे चलकर क्या हस्ती होगी, इस बात का किसी को तनिक भी अंदाजा नहीं था। गांधी जी अपने बाल्यकाल में बेहद शर्मीले व अन्तर्मुखी स्वभाव के थे। उनके असली संगी-साथी उनकी किताबें ही थीं। मात्र 13 वर्ष की आयु में ही गांधी जी का बाल-विवाह कस्तूरबाई के साथ हो गया था। उनकी पत्नी पढ़ी-लिखी नहीं थीं। स्कूल के दिनों में जिमनास्टिक विषय में रुचि न होने के कारण उस समय वह अपने बीमार पिता की सेवा करना ज्यादा पसंद करते थे। एक बार उन्हें जिमनास्टिक पीरियड में गैरहाजिर रहने के कारण दो आना का जुर्माना भी भरना पड़ा। अपनी सुलेख व हैंड राइटिंग से वह बहुत असंतुष्ट व शर्मिंदा रहते थे क्योंकि वह सुलेख को अच्छी शिक्षा का हिस्सा मानते थे। गांधी जी को अपने बचपन के मित्रों द्वारा मांसाहारी भोजन के लिए प्ररित किये जाते थे। उनके एक मित्र ने उनको बताया कि हम लोग मांसाहारी भोजन न करने के कारण ही कमजोर हैं, और अंग्रेज लोग मांसाहारी होते हैं। इसीलिए वे हम पर अपना शासन चलाने के लिए योग्य व सक्षम होते हैं। इन सब बातों से गांधी जी को बहुत पीड़ा पहुंचती थी। गांधी जी का परिवार वैश्णव था। उन्हें सच से बेहद लगाव था तथा इस बात का डर था कि उनके मांसाहारी होने की बात पता चलने पर परिवारजनों को बहुत आघात लगेगा। जबकि वह चाहते थे कि सभी लोग मजबूत व साहसी हो, जिससे कि अंगे्रजों को हराकर भारत को स्वतंत्र कराया जा सके। जब वह 16 साल के थे तभी उनके पिता का देहान्त हो गया। उन्हें इस बात का अत्यंत दु:ख व आघात लगा तथा अपने आप में शर्मिंदा भी थे कि अपने पिता के अन्तिम क्षणों में उनके पास क्यों नहीं रह पाये? 1887 में गांधी जी के मेट्रीकुलेशन पास करने के बाद इंग्लैंड रवानगी से पहले उन्हें शराब, मांस और औरत से दूर रहने की कसम दिलाई गई। उस समय अंग्रेजी भाषा में ज्यादा अभ्यस्त न होने के कारण वह अंग्रेजों की बातों का मुश्किल से जवाब दे पाते थे। कुछ समय बाद गांधी जी इंग्लैंड की एक्जीक्यूटिव कमेटी ऑफ वेजिटेरियन में चुन लिये गये। इंग्लैंड से वापस आने पर गांधी जी को मां की मृत्यु का समाचार मिला। इस समय उन्हें पिता की मृत्यु से भी ज्यादा आघात पहुंचा। बंबई आकर उन्होंने अपनी वकालत शुरू की, लेकिन उनका मन वकालत करने में नहीं लगा तथा कुछ ही समय में बंबई छोड़कर राजकोट में अपना ऑफिस बनाया। जहां पर उन्होंने लोगों के लिए एप्लीकेशन व लेटर आदि ड्राफ्ट करने का काम शुरू किया। एक दिन एक ब्रिटिश अधिकारी, एक पॉलिटिकल एजेन्ट, जो साहिब कहे जाते थे के द्वारा अपमान तथा चपरासी द्वारा बाहर निकालने की घटना ने उनको हिला कर रख दिया। इसी बीच गांधी जी को पोरबंदर से एक कम्पनी का प्रस्ताव आया। जिसमें गांधी जी को साउथ अफ्रीका की कोर्ट में कम्पनी के एक केस के तहत वकीलों को सलाह देने के लिए लगभग एक वर्ष के पूरे खर्चे के साथ 105 पौंड देने की पेशकश की गई। गांधी जी इस प्रस्ताव से बिल्कुल संतुष्ट नहीं थे, परंतु देश छोडऩे व नये अनुभव के लिए साउथ अफ्रीका रवाना हुए। गांधी जी का सामाजिक व राजनैतिक जीवन-विदेशों मे रहते हुए गांधी जी को वहां पर रहने वाले हिंदुस्तानियों के बारे में बहुत हमदर्दी थी। गांधी जी ने प्रेटोरिया में रहने वाले भारतीयों के बारे में जानना चाहा तथा उन्होंने सभी भारतीय नागरिकों को अपने काम में सच्चाई को पहचानने की पहली मीटिंग करी। वहां पर काम करने वाले भारतीय व्यापारियों को पूरी सच्चाई के साथ अपने कर्तव्यों के प्रति हमेशा सजग रहने के लिए प्रेरित किया। अपने तीन साल के साउथ अफ्रीका दौरे के दौरान गांधी जी ने विभिन्न धर्म, सम्प्रदायों एवं जातियों का तुलनात्मक रूप से गहन अध्ययन किया, और हर धर्म व जाति के प्रति उनमें विशेष आस्था बनी। गांधी जी ने अपने जीवन में सभी धर्मों को बराबरी से सम्मान दिया क्योंकि वह भारत को सर्व धार्मिक राष्ट्र बनाने का सपना देखते थे। इसी के साथ उन्होंने सारे जीवन केवल सत्य का मार्ग अपनाया तथा सभी से सत्य का अनुपालन करने का आह्वान भी किया। गांधी जी ने सत्य को कभी नहीं छोड़ा। गांधी जी कहते थे कि सत्य का मार्ग बहुत कठिन है। उस पर आसानी से नहीं चला जा सकता, चलने में अनेक दिक्कतें भी आती हैं, परन्तु अन्त में जीत सच की ही होती है। भारत की आजादी तथा हिंदुस्तान का भाग्य विधाता कोई राजा महाराजा, रण क्षेत्र का योद्धा, या साधू संत नहीं बल्कि दुबला-पतला एक बूढ़ा आदमी था। इस व्यक्ति का नाम मोहनदास करमचन्द गांधी था। आजादी के इस रचयिता के पास अंगे्रजों से मुकाबला करने के लिए न कोई हथियार था, और न ही अपने बचाव के लिए कोई ढाल। गांधी जी के पास था केवल सत्य का साथ व अदम्य साहस। वैसे गांधी जी के पास अपने आप को भोजन से वंचित रखने का अर्थात अनशन पर बैठने का ऐसा ब्रम्हास्त्र था, जो बड़े-बड़े ब्रितानियों को उनके आगे घुटने टेकने पर मजबूर कर देता था। गांधी जी इतने सादगी पसंद व्यक्ति थे कि वह अपनी बात को कहने के लिए हाथ से लिखकर पत्र व्यवहार करते थे। उनमें इतना चुम्बकीय आकर्षण था कि जो कोई भी उन्हें निकट से जानता, उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। किंग मार्टिन लूथर गांधी जी से बहुत प्रभावित रहा। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गांधी जी बहुत पसंद किये जाते रहे तथा हिंदुस्तान की इस हस्ती ने पूरे विश्व में अपना डंका बजाया। गांधी जी लोगों के बीच में शांति व न्याय प्रिय मसीहा के रूप में पहचाने गये। गांधी जी ने देश को आजादी दिलाई परंतु एक बड़ा डर भी उनको सताता था। और वह था, धार्मिक आधार पर आजाद हिंदुस्तान का बंटवारा। अंगे्रज शासक भी भारत छोडऩे से पहले हिंदुस्तान को बांट देना चाहते थे। जब कि गांधी जी ने बार-बार कहा था कि भारत के टुकड़े करने से पहले मेरे शरीर के टुकड़े करने होंगे। गांधी जी का अंतिम जीवन-गांधी जी जीवन की अंतिम अवस्था में निरंतर अनशन पर बैठने से शारीरिक रूप से काफी कमजोर हो गये थे। इस समय गांधी जी को बुरी तरह खांसी भी होने लगी थी। गांधी जी की शिष्या मनु गांधी जी के कमजोर व हांफते हुए शरीर को देखकर दुख से भर गईं। गांधी जी से खांसी की गोली खानेे को कहने से मनु डर भी रही थीं। परंतु उनकी हालत को देखकर उससे न रहा गया और मनु ने गोली खिलाने की बात कही। गांधी जी ने उत्तर दिया कि तुम्हें राम पर भरोसा नहीं रह गया है? खांसते हुए उन्होंने कहा कि यदि मैं किसी बीमारी से मर जाऊं, तो तुम्हारा कर्तव्य होगा कि सारी दुनिया से कहो कि मैं ढोंगी महात्मा था। अगर कोई मुझे गोली मार दे, और मैं गोली खाने के बाद आह किये बिना, होठों पर बस राम का नाम लिये हुए परलोक चला जाऊं, तब तुम कहना कि मैं सच्चा महात्मा था। शायद गांधी जी को अपने अंतिम समय का आभास हो गया था, इसीलिए उन्होंने मनु से वही प्रार्थना गीत गाने को कहा- न थको न हारो, आगे बढऩा स्वीकारो। रुकने का नही काम, बढ़ते जाओ प्यारों।
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