Saturday, August 8, 2009

जिंदगी में नकल कर नहीं बन सकते असली हीरो



यह एक अलग वास्तविकता है कि हमारा वास्तविक जीवन अंदर से बहुत अलग नहीं है जो रील लाइफ की रीयल्टी से बहुत मेल खाता है। अब अगर अपने वास्तविक जीवन की तुलना फिल्मी जीवन से की जाए तो आश्चर्य नहीं होगा कि ये दोनों जीवन बिल्कुल एक ही तरह से चलते हैं। एक है रील और दूसरा है रीयल।

सिनेमा शुरू से ही हर वर्ग को लुभाता रहा है। हम सभी सिनेमा से ही अपना मनोरंजन करते आये हैं। आज के युवा वर्ग में फिल्मों व प्रिय कलाकार के प्रति इतना अधिक क्रेज देखा जा सकता है कि अमुक फिल्म के हीरो की नकल करने में पाछे नहीं रहते। चाहे उनका हेयर स्टाइल हो, कपड़ों का नया फैशन हो या फिर नया कल्चर। वैसे भी फिल्में समाज में संदेश देने का कार्य करती हैं। फिल्मों को समाज का आईना भी कहा जाता है। जो कुछ भी समाज में होता है, वह सब हमारी फिल्मों में दिखता है। आज फिल्में किसी भी बात को जन साधारण तक पहुंचाने का बहुत सशक्त साधन व माध्यम बन चुका है। आज के बदलते हुए सिनेमा के दौर में पर्दे के जीवन को रील लाइफ के नाम से जाना जाता है, जो हमारी रीयल लाइफ यानि की वास्तविक जीवन को प्रेरित व प्रभावित करती हैं। इसी कड़ी में सबसे बड़ी व संवेदनशील जिम्मेदारी निभानी होती है फिल्म के निर्माता व निर्देशक को, जिनके हाथ में दर्शक की सबसे कमजोर नब्ज भी होती है।
रील लाइफ यानि सिनेमा की सबसे मजबूत डोर फिल्म निर्देशक के पास होती है। वह इसी डोर से सभी कलाकारों को नचाता है। कलाकार भी अपनी जान डालकर अपने पात्र को जीवंत कर देता है। फिर हम सब उस कलाकार व अभिनेता के मुरीद व प्रशंसक बन जाते हैं। अपने वास्तविक जीवन में फिल्म के किरदार को ढूंढऩे लगते हैं। पर्दे पर किसी का अभिनय हमको इस हद तक लुभाता है कि हमको अपना दीवाना बना देता है। खास बात यह है कि पर्दे पर किसी कलाकार का रोल इतना सधा हुआ होता है कि जिसमें एक आदर्श पुरुष के सभी गुण दिखाये जाते हैं। अब विडम्बना यह है कि हम उक्त कलाकार की प्रशंसा करते हें और अनुकरण करते हैं उनकी केवल बाहरी छवि का। हम आकर्षित होते हैं उनके चरित्र से भी, परन्तु उसको नहीं अपनाते। हम केवल दिखने वाले हीरो बनना चाहते हैं। यह एक अलग वास्तविकता है कि हमारा वास्तविक जीवन अंदर से बहुत अलग नहीं है जो रील लाइफ की रीयल्टी से बहुत मेल खाता है। अब अगर अपने वास्तविक जीवन की तुलना फिल्मी जीवन से की जाए तो आश्चर्य नहीं होगा कि ये दोनों जीवन बिल्कुल एक ही तरह से चलते हैं। एक है रील और दूसरा है रीयल। एक को चलाता है फिल्म निर्माता व निर्देशक तथा दूसरे को चलाता है परमात्मा व परमेश्वर। ये दोनों ही अपने अपने क्षेत्र के सुप्रीमो है, इन दोनों के पास ही सबकी डोर होती है, जिससे कि वह जब चाहे, जहां चाहे, जैसे चाहे और जिसको चाहे नचा सकता है। एक फिल्म निर्देशक अपनी डोर से सभी पात्रों को अभिनय में जीना सिखाता है, नाच-गाना भी सिखाता है तथा जरूरत पडऩे पर सस्पेंस भी पैदा करता है। इसी हिसाब से ही कहानी में मोड़ भी लेता है, जिससे कि पात्रों के जीवन में उतार-चढ़ाव भी लाता है। ठीक ऐसा ही क्या हमारे जीवन में नही होता है? हम भी सब तो इस दुनिया में एक पात्र की ही तरह से तो है, यहां पर तो एक ही आदमी को कई तरह के पात्रों को एकसाथ जीना पड़ता है क्योंकि एक ही व्यक्ति के पास कई प्रकार के रिश्ते होते हैं और इन सभी को एकसाथ निभाना होता है, सभी के साथ न्याय करना होता है, नहीं तो जीवन में एक भूचाल सा आ जाता है। अगर किसी भी रिश्ते को कोई चोट पहुंची या कोई कसर रही तो ठीक उसी तरह का दर्द महसूस होता है जिस प्रकार एक कलाकार की अच्छी खासी बड़े बजट वाली फिल्म फ्लॉप हो जाने के बाद की स्थिति हो जाती है। जिस तरह से कोई कलाकार फिल्मों में काम करके ही अपने अभिनय में परिपक्व होता जाता है तथा दर्शको के बीच में लोकप्रिय भी हो जाता है तथा फिल्मी दुनिया में उसकी साख भी बनती जाती है। फिर फिल्म निर्देशक उस अभिनेता को अपनी किसी खास फिल्म के लिए अनुबंधित करता है क्योंकि पब्लिक के बीच में उसकी खास पहचान व इमेज बन जाने के कारण पूरी फिल्म उसके ग्लैमर को कैश कराती है। अत: इस प्रकार फिल्म किसी संदेश को जन-जन तक भी पहुंचाती है तथा हिट भी हो जाती है। बिल्कुल ठीक इसी प्रकार से हमारे वास्तविक जीवन में भी हमारी जिंदगी का निर्देशक अर्थात परमात्मा भी एक ऐसे ही आदमी का चुनाव करता है जिसके हर एक क्षण में तथा हर एक सांस में ईश्वर व परमात्मा समाया हुआ हो, एक ऐसा इंसान जो हमेशा परमात्मा का ही अनुभव करता हो तथा जिसके जीवन के हरएक पल में ईश्वर साक्षी हो। वह एक ऐसे इंसान को अपना संदेश देने के लिए, लोगों को सत्य व असत्य का मार्ग समझाने तथा धर्म का पालन करवाने के लिए हमारे समक्ष अपना देवदूत बनाकर भेजता है। यहां पर परमात्मा भी पर्दे के पीछे से अपना काम करता है। बस हमें वह दिखाई नही देता है, परन्तु होता सब उसी की ही मर्जी का है। यहां पर हम भी सब पात्र की ही तरह कार्य करते हैं हमारी वास्तविक कहानी में वह मुख्य अभिनेता का किरदार एक ऐसे इंसान को सौंप देता है जिसमें ईश्वर के प्रति सच्ची लगन व पूर्ण समर्पण की भावना होती है। वह अपने अनुभव, संस्मरणों को उदाहरण सहित हमारे समक्ष रखकर हमको ईश्वर की शरण में पहुंचाने का कार्य करता है तथा जीवन को सच्ची तरह से जीने की कला भी सिखाता है। ऐसे कई साधू-संत, महात्माओं व गुरुओं ने अपना पूरा जीवन आनंद में ही जिया है तथा हमें भी जीवन को जी भर जी लेने का तरीका भी बताया है। हम ऐसे महात्माओं का बहुत सम्मान करते, उनके प्रवचनों व कही हुई बातों को बहुत ध्यान से सुनते हैं, इनको ईश्वर के समतुल्य भी समझने लगते हैं तथा इनको ईश्वर की ही तरह से पूजते हैं। हम इनसे पूरी भक्ति व आस्था के साथ जुड़ जाते हैं, हम दूर-दूर तक जाकर इनके प्रवचनों को सुनते तथा सम्मेलनों में भाग भी लेते है, कई-कई दिनों तक इन महापुरुषों के सानिध्य में रहते हैं और कुछ लोग इनके द्वारा दिये गये प्रसाद स्वरूप दीक्षा कार्यक्रम में भी अपना नाम लिखाते हैं तथा इनसे दीक्षा भी लेते। वहां पर इस तरह का माहौल बन जाता है कि इनके लाखों लोग एक साथ प्रशंसक होते, भारी भीड़ एकसाथ जय-जयकार करती है। लगभग सभी संत व महात्मा सभी भक्तों को जीवन का सार बताते हैं कि क्रोध, लोभ, माया, मोह सभी छोड़ो; केवल ईश्वर व परमात्मा का भजन करो। सभी साधु संत अपने कई संस्मरणों व प्रसंगों सहित सभी भक्तों को ईश्वर के प्रति आस्था बढ़ानें के तरीके व लाभ बताते हैं, इस तरह से पूरा वातावरण ईश्वरीय ही हो जाता है एक समय इनके अन्दर से परमात्मा ही आनन्ददायी प्रवचनों की बौछार से सभी भक्तों को भिगो देता है और सभी लोग हृदय से बहुत आनंदित अनुभव करते हैं। अब खास बात देखनी यह होती है कि जितनी भी बातें हमको हमारे जीवन में अपनाने व आचरण में शामिल करने के लिए कही जाती हैं, उसमें हम कितनी आस्था से खरे उतरते हैं और इन सब बातों को अपने जीवन में कितना आत्मसात करते हैं और कितना अपने दैनिक जीवन के उपयोग में लाते हैं ? साधु-महात्माओं द्वारा ईश्वरीय बातें सुनने में तो किसी को भी बहुत अच्छी लगती हैं लेकिन इन सबका अपने जीवन में अमल करना मुख्य बात है।

No comments:

Post a Comment